भारत की जनता पर, और उसमें हर धर्म और समुदाय के लोग मौजूद हैं एक दीर्घकालिक संज्ञानात्मक आक्रमण किया जा रहा है। यह कहा जा सकता है कि इस आक्रमण ने न सिर्फ हमें गहरा संज्ञानात्मक आघात दिया है बल्कि इससे एक बड़ी आबादी की संज्ञानात्मक क्षमताएँ बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई हैं। इस दुर्घटना के कारण अपनी दुनिया को देख और समझ पाने के उनके रास्ते में ऐसी बाधा पैदा हो गई है जिसे हटाना असम्भव तो नहीं है लेकिन बहुत बहुत मुश्किल ज़रूर है।
हम आगे इस संज्ञानात्मक क्षति को समझने की कोशिश करेंगे।'वायर' की हाल की एक रिपोर्ट से उस संज्ञानात्मक युद्ध की व्यापकता और गहराई का अंदाज मिलता है जो जनता के विरुद्ध चल रहा है।
टेक फॉग ऐप
यह रिपोर्ट बतलाती है टेक फॉग नाम के एक ऐप के जरिए किस तरह समाज में घृणा को इस तरह सक्रिय किया जा रहा है जिससे वह स्वतःस्फूर्त और उससे अधिक व्यापक जान पड़े, जितनी वह है। यानी उसका विस्तार वास्तविकता से अधिक दिखलाई पड़े और वही सच जान पड़ने लगे।
इस ऐप के सहारे सार्वजनिक विचार विमर्श या चर्चा को एक खास तरीके से मनचाही दिशा में मोड़ दिया जाता है। ट्विटर जैसे माध्यमों पर जिसे रुझान कहा जाता है, वह भी इस ऐप के जरिए विकृत कर दिया जा सकता है।
यह उन लोगों के खातों का, जो निष्क्रिय रहते हैं, अपहरण कर लेता है और उनके माध्यम से अपनी मर्जी के संदेश प्रसारित करता है। इससे उस विचार की, जो प्रसारित किया जा रहा है, पहुँच जितनी है, उससे लाख गुना अधिक दिखलाई पड़ने लगती है।
इससे समाज के बारे में हमारी जो समझ बनती है, वह भी विकृत होती है क्योंकि वह सच्चाई पर आधारित नहीं होती।
'टेक फ़ॉग' में फ़ॉग शब्द सटीक है। यह व्यक्ति और समाज के दिमाग में धुंध भर देता है। इस वजह से हमारे सोचने और समझने की प्रक्रिया बुरी तरह प्रभावित होती है। और आगे किसी मामले में निर्णय लेने की क्षमता पर भी इसी तरह प्रभाव पड़ता है।
संज्ञानात्मक क्षति कई कारणों से हो सकती है। कोरोना वायरस महामारी के दौरान जो अध्ययन किए जा रहे हैं, उनसे मालूम होता है कि वायरस मस्तिष्क को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित कर सकता है। हमारी देखने, पहचानने और समझने की शक्ति पर असर पड़ा है।
याददाश्त और दो चीज़ों या घटनाओं के बीच संबंध बनाने की ताकत कमजोर होती देखी गई है। एकाग्रता पर तो वायरस का सीधा असर पड़ता है। अगर हमारी निकट की या दूर की स्मृति प्रभावित हो तो आज जो घटित हो रहा है, उसे समझना भी दुश्वार हो जाता है। हमारी प्रतिक्रियाएँ ऊटपटाँग हो सकती हैं और हमें या किसी और को हानि भी पहुँचा सकती हैं।
जो काम शारीरिक तंत्र के साथ कोरोना वायरस करता है जिससे हमारा संवेदनात्मक और भावनात्मक तंत्र भी प्रभावित होता है, वही काम सामाजिक तंत्र के साथ जो मनुष्यों का समाज है, टेक फ़ॉग जैसा ऐप कर सकता है।
टेक फ़ॉग जो करता है, वही काम दूसरे तरीके से किया जा सकता है और किया जा रहा है। इसे मैंने तब समझा जब मैं टीवी के वाद-विवाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के लोगों के साथ शामिल हुआ।
कैमरा ऑन होते ही बीजेपी या आरएसएस के प्रवक्ताओं की मुद्रा और भाषा आक्रामक हो उठती थी और चेहरे घृणा और हिंसा से विकृत हो उठते थे। लेकिन कैमरा हटते ही वे बिलकुल सामान्य मुद्रा में लौट आते थे।
एक प्रवक्ता ने जो अब बहुत ऊँची जगह पहुँच गए हैं, एक बार कहा कि वे हर रात रक्तचाप की दवा खाते हैं। मैंने उनसे पूछा कि उन्हें क्योंकर बेवजह इतने हिंसक तरीके से चीखना, चिल्लाना चाहिए। उन्होंने सहज ढंग से कहा कि यह उनकी रोजी का सवाल है। कई बार अंतराल में उन्होंने यह भी कहा कि ज्ञान तो कहीं और है। यानी वे जो कह रहे थे, वह वे भी जानते थे कि सच नहीं था लेकिन एक उद्देश्य से उसे प्रचारित किया जाना था। इसका दबाव उनका शारीरिक तंत्र झेल रहा था। वह बीमार हो रहा था।
नफ़रत फैलाने का काम
इसपर मैं आज तक सोचता रहा हूँ। वे शायद जो घृणा टी वी के जरिए अपने दर्शकों में भर रहे थे उसपर उनका भी पूरा विश्वास न था। लेकिन जब वे चीखते हुए उस घृणा का प्रचार कर रहे थे तो उनके दर्शकों को वह बिलकुल प्रामाणिक जान पड़ती होगी।
उस घृणा को वे विश्वासपूर्वक अपनाते होंगे क्योंकि वे उस प्रवक्ता पर या उसकी राजनीति पर विश्वास करते हैं। बिना यह जाने कि खुद वह, जो इसका प्रचार कर रहा है, जानता है कि वह झूठ के आधार पर यह नफ़रत फैला रहे हैं।
ऐसा एकाधिक बार हुआ कि टी वी चर्चा के दौरान अंतराल में इन प्रवक्ताओं ने अपने चीखने चिल्लाने के लिए माफी माँगी है। यह उनके कारोबार की माँग है, ऐसा वे चाहते थे कि दूसरे मानें और उन्हें सामान्य मनुष्य मानें। हालाँकि यह बात ज़रा पुरानी हो गई।
अब तो शायद उनमें से कोई इस माफ़ी की ज़रूरत महसूस न करता हो। लेकिन उनका चीखना उनके दर्शकों के साथ क्या करता होगा? उनके सोचने, बर्ताव के तरीके में क्या तब्दीली इससे आती होगी?
वे चीख-चिल्लाकर और अपने चेहरे विकृत करके समाज में धीरे धीरे घृणा भर रहे थे। यह एक तरह से समाज के साथ संज्ञानात्मक घपलेबाज़ी है। लेकिन समाज इसे कैसे पहचाने?
गोडसे की जय-जयकार
इंटरनेट के सहारे उस काम को, जो वे अपने शरीर पर इतना ज़ोर डालकर कर रहे थे, अधिक सुगमता से किया जा सकता है। 2 अक्टूबर को मालूम हुआ कि लाखों लोगों ने बापू के हत्यारे की जयकार करते हुए ट्वीट किया है। इस खबर से एक तरफ उल्लास छा गया, दूसरी तरफ हताशा। क्या हमारे समाज में घृणा का इतना विस्तार है?
टेक्नॉलॉजी से परिचित एक मित्र ने पड़ताल करके बतलाया कि इस संख्या में असल ट्वीट कुछ हजार ही थे, बाकी नकली। लेकिन इसका एक असर तो पड़ा ही। समाज के बारे में हमारी समझ इससे प्रभावित हुई।
यह घपलेबाज़ी टेक फ़ॉग के सहारे कई गुना कुशलता के साथ की जा सकती है। आज ही वायर ने बतलाया है कि इसके माध्यम से महिला पत्रकारों को हजारों गाली गलौज से भरे सन्देश भेजे गए। लेकिन जैसा वायर ने अपनी जांच में बतलाया है हजारों लोग यह नहीं कर रहे थे। एक छोटा समूह ही हजारों, लाखों का भ्रम पैदा कर रहा था।
इससे समाज के बारे में एक भ्रामक समझ बनती है। अगर उसमें घृणा का प्रसार इतना है तो उसका प्रतिकार कैसे किया जाए? एक पराजय का भाव पैदा करना भी इसका मकसद है और अपने पड़ोसियों के बारे में संशय और निराशा पैदा होती है।
हम अपने संसार को अपनी इन्द्रियों से ग्रहण करते हैं। लेकिन अगर इन्द्रियों को विशेष प्रकार के संवेदनों से अनुकूलित कर लिया जाए? यह किया जा सकता है। उन्हें बाहरी दुनिया से जो सूचनाएँ मिलती हैं, उनके आधार पर ही वे उसे पहचान सकती हैं और उसकी व्याख्या भी कर सकती हैं। लेकिन अगर उन सूचनाओं में ही घपला कर दिया जाए? तब इंद्रियाँ भी विकृत हो सकती हैं जबकि लगता यही रहेगा कि वे जो ग्रहण कर रही हैं, वह बिलकुल ठीक है।
बाहरी इंद्रियों के साथ हमारे भावलोक को भी रख लें। उसका भी अनुकूलन किया जा सकता है। या विकृत। इस विषय पर हमारा ध्यान नहीं गया है कि सूचनाएं( डाटा) हमारे संवेदन और भाव तंत्र को किस तरह बदलती हैं। जो कल तक सहिष्णु और उदार थे, वे आज क्यों नफ़रत करने वाले इंसानों में बदल गए? अगर लगातार झूठ बोला जाए और उसका हमला चौतरफ़ा हो तो वह हमारी समस्त संज्ञानात्मक क्षमताओं को तहस नहस कर दे सकता है।
अगर वह पहले से पल रहे पूर्वग्रहों से मेल खाता हो तो और घातक हो सकता है। एक बार अगर ये क्षमताएँ क्षत विक्षत हो जाएँ तो उनका उपचार या चिकित्सा बहुत कठिन होती है। इसे जर्मनी के लोगों ने बहुत कीमत चुका कर समझा।
यहूदियों का नरसंहार
उनका यहूदी विरोध भारत में हिंदुओं के बीच पल रहे मुसलमान और ईसाई विरोध की तरह ही था। उनका संज्ञानात्मक तंत्र इतना टूट-बिखर चुका था कि उन्हें यहूदियों का कत्लेआम भी ज़रूरी और वाजिब जान पड़ने लगा और पूरे समाज ने उसमें हिस्सा लिया और हाथ बँटाया। लेकिन इसका नतीजा यहूदियों को भुगतना पड़ा। जर्मनी ने बाद में पश्चाताप किया और अपने समाज का संज्ञानात्मक परिष्कार भी किया। लेकिन जो करोड़ों यहूदी इसके शिकार हुए, वे इस विलंबित चिकित्सा का लाभ नहीं ले सके।
इसलिए जब यह दीख रहा हो कि हमारी समझ और संवेदना पर हमला हो रहा है तो उसी वक्त उसका उपचार आवश्यक है। हमारे पास जो भी साधन हैं, उन सबके सहारे यह किया जाना चाहिए।
सावधान होने की ज़रूरत
भारत के मुसलमान और ईसाई हिंदुओं को सावधान कर रहे हैं कि उनके साथ एक षड्यंत्र किया जा रहा है। हिंदुओं को उनके दिमागों और दिलों के साथ की जा रही घपलेबाजी की गंभीरता को समझना ही होगा। पहले ही काफी देर हो चुकी है।