विदेशी पत्रकारों का मुँह खुला का खुला रह गया। एक रथ का रूप धरे गोल्फ कार्ट पर, जिसके पीछे क्रिकेट के बल्लों को भद्दे तरीक़े से सजाया गया था, दो देशों के प्रधानमंत्री एक क्रिकेट के मैदान की परिक्रमा कर रहे थे। मैदान था अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम का, जिसमें भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के मेहमान, ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के साथ भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के पैसों से जुटाई गई भीड़ का अभिवादन कर रहे थे, उससे अभिवादन स्वीकार कर रहे थे। यह क्रिकेट प्रेमियों की नहीं, ‘मोदी प्रेमियों’ की भीड़ थी। लेकिन वह भी अपने नेता के दर्शन को ख़ुद नहीं आई थी। शायद अगर उसे अपनी जेब से अपने नेता के दर्शन के लिए कुछ खर्च करना होता तो वह घर ही रहती और टेलीविज़न के पर्दे पर उसे देख निहाल हो लेती। लेकिन भारत में हर चीज़ एक ढोंग या स्वाँग बन गई है। जैसे जो रथ कहा जा रहा है, वह गोल्फ कार्ट है उसी तरह जो जनता दीख रही है, वह पैसे से जुटाई गई भीड़ है। वैसे ही जैसे जो प्रधानमंत्री दीखता है, वह असल में सिर्फ़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक है। जो सरकार दीखती है, वह देश पर कब्जा जमाने की एक मशीन है।
कुछ भी सच नहीं है। जब मोदी प्रेमी अपने आराध्य को देख हुलस रहे थे, उसका हाथ तो उनकी दिशा में हिल रहा था, लेकिन ख़ुद वह अपने दर्शनार्थियों को नहीं, कैमरे को देख रहा था। उसकी आँखों में जनता नहीं थी, भविष्य के लिए उसे रिकॉर्ड करता कैमरा था। ये तस्वीरें काफ़ी कुछ खोलती हैं। एक तरफ़ ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री हैं जो कैमरे से बेफिक्र भीड़ की तरफ़ देख रहे हैं, दूसरी तरफ़ नरेंद्र मोदी जिनके हाथों और आँखों की दिशाएँ दो हैं।
आप इस तस्वीर को ज़ूम कीजिए। ऐसी एकाधिक तस्वीरें हैं। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री की मुस्कुराहट स्वाभाविक है, उनकी गर्दन और अभिनंदन करते हाथ एक ही दिशा में हैं। दूसरी तरफ़ नरेंद्र मोदी ध्यान से कैमरे को देख रहे हैं। होंठों पर एक जबरन चिपकाई मुस्कान है। लेकिन आँखों और होठों से आपको एक असुरक्षित आदमी का भाव मिलता है। मालूम नहीं, मैं फोटो में कैसा दीखूँगा, या कैमरा मेरी तरफ़ है भी नहीं, कहीं मैं छूट तो नहीं रहा!
कैमरे और नरेंद्र मोदी के रिश्ते पर लोगों का ध्यान पहले भी गया है। शायद नरेंद्र मोदी की जनता भी जानती है कि उसका नेता आत्ममुग्ध है। लेकिन उसे इससे ऐतराज़ नहीं। वह इसलिए कि वह उस जनता के भीतर छिपी आत्ममुग्धता की दलील बन जाता है। वह जनता ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ, सर्वसुंदर मानती है। आत्ममोह के साथ ही आती है दूसरों को हीन समझने की प्रवृत्ति। इस भाव और प्रवृत्ति को सहलाने वाला एक शख़्स सामने आता है और उसे यह जनता अपना नेता बना लेती है।
नारसीसस का क़िस्सा सबने सुना है। अपने सौंदर्य पर इतना मुग्ध कि प्यास लगने पर जब सरोवर गया तो जल में अपनी ही छवि देखता रह गया और प्यास के मारे उसकी जान चली गई। हिंदुओं में नारद की दो कथाएँ मशहूर हैं। उनमें से एक कथा है नारद की ख़ुद को सबसे बड़ा भक्त मानने की। भगवान ने यह दंभ तोड़ने के लिए उन्हें सर पर तेल से लबालब कटोरा लेकर चलने को कहा, यह ध्यान रखते हुए कि तेल छलके नहीं। नारद तेल का कटोरा सँभालने में ही व्यस्त रहे और एक बार भी नारायण का ध्यान नहीं किया। दिन भर, चारों पहर “नारायण नारायण” की रट के कारण ख़ुद को सबसे समर्पित भक्त मान लेने का नारद का घमंड इस तरह ख़ुद भगवान ने तोड़ा। एक दूसरी कहानी में जनतंत्र में भगवान तो जनता ही मानी जाती है। जब वह किसी और को अपना भगवान मान बैठे तो फिर उसके बचने का उपाय क्या है? कौन किसे सबक़ दे? दोनों दूसरे की पीठ खुजलाते प्रसन्न रहें!
भले ही भारत के लोग, ख़ासकर हिंदू, और उनमें भी भाजपा मतदाता, इस बीमारी की गिरफ़्त में हों, दूसरे देशों के लोगों की आँखें खुली हैं और दिमाग़ भी। इसलिए ऑस्ट्रेलिया से आए पत्रकार हैरान रह गए जब उन्होंने क्रिकेट के खेल का ऐसा निर्लज्ज इस्तेमाल भारत के प्रधानमंत्री की छवि को चमकाने के लिए किए जाते देखा। मौक़ा था भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट मैच का। दिन खिलाड़ियों का और खेल का था। उसे हथिया लिया राजनेता ने। अपनी जनता को प्रभावित करने के लिए एक विदेशी प्रधानमंत्री का इस्तेमाल वितृष्णाजनकथा। उसकी उपस्थिति में अपना गुणगान करवाना उन्हें हास्यास्पद लगा। यह भी कि वह अपनी तस्वीर इस मौक़े पर भेंट में ले रहा था। वे भारत के प्रधानमंत्री से तो सवाल कर नहीं सकते थे। इसलिए उन्होंने अपने प्रधानमंत्री से ही पूछा कि वे इस तमाशे में शामिल ही क्यों हुए।
सवाल सिर्फ़ यही नहीं था। पूछा गया कि आख़िर एक असहिष्णु को बर्दाश्त ही क्यों करें? नरेंद्र मोदी असहिष्णु हैं, यह लिखने में उस ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार को कोई दुविधा नहीं हुई।
इससे आगे बढ़कर उसने यह भी पूछा कि आख़िरकार ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने अपनी क्रिकेट टीम के खिलाड़ी उस्मान ख़्वाजा की भावना के बारे में कुछ क्यों नहीं सोचा जिनके हम मज़हब लोगों का क़त्लेआम उसी गुजरात में 2002 में किया गया था जो तब गुजरात का मुख्यमंत्री था और आज भारत का प्रधानमंत्री है? ख़्वाजा को ऐसे आदमी के सामने खड़ा करके उन्हें क्यों भावनात्मक तकलीफ़ पहुँचाई गई?
चाहे तो कोई कह सकता है कि 2002 का मुसलमानों का क़त्लेआम भारत का भीतरी मामला है। लेकिन ऑस्ट्रेलिया के मशहूर खेल पत्रकार ऐसा नहीं मानते। एक खेल पत्रकार यह सवाल कर सकता है, यह भारत में अकल्पनीय है।
सारे लोग जानते हैं कि भारत की जनता में, वह भी हिंदुत्ववादी जनता में गौरांग प्रभु अभी भी आदर के पात्र हैं। इसलिए डोनाल्ड ट्रंप के बाद ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री का दर्शन करवा के गुजराती जनता को यह भुलावा दिया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के साथ दुनिया के बड़े बड़े नेता हैं। यह मोदी के कारण नहीं, भारत के आकार और उसकी रणनीतिक स्थिति के कारण है, यह लोग सोच नहीं पाते। यह करना मोदी के लिए अभी इसलिए भी ज़रूरी था कि बी बी सी की फ़िल्म की आलोचना और हिंडनबर्ग के पर्दाफाश के बाद नरेंद्र मोदी साबित करना चाहते हैं कि भारत के बाहर उन्हें चाहनेवाले मौजूद हैं।
जो हो, भारत में अगर शारदा उगरा को छोड़ दें तो किसी खेल पत्रकार ने इस स्वाँग की आलोचना नहीं की। यह हमारी मानसिक दासता का एक और प्रमाण है। फिर एक विदेशी खेल पत्रकार ने ही कहा कि जब नेता की स्तुति होने लगे तो वह राजा बन जाता है। हम भी कभी ऐसा कह पाएँ, काश! ऐसी हिम्मत और अक्ल हमें हासिल हो।