यह हिंदू धर्म के बारे में नहीं है। न मंदिर के बारे में। यह उस नफ़रत और हिंसा के बारे में है जो हिन्दुओं के मन में घर करती जा रही है। जिसके चलते अब हिंदू होने का अर्थ गीता का मर्म समझना, शिव, राम या कृष्ण या शक्ति का उपासक होना नहीं है। बल्कि अब हिंदू की परिभाषा है एक ऐसा प्राणी जो मुसलमान, ईसाई और पाकिस्तान से घृणा करता है। उसे वेद नहीं चाहिए क्योंकि वैदिक संस्कृत को पढ़ने और समझने में दांतों पसीना आ जाएगा, उसे उपनिषद् नहीं चाहिए और न गीता क्योंकि गीता का अर्थ क्या है, यह समझने के लिए उसे तिलक, गाँधी और विनोबा से विचार विमर्श भी करना पड़ेगा। उसे अपने पुरखों के द्वारा निर्मित मंदिरों में भी सर झुकाए घुसना और निकलना है, मंदिरों में समय व्यतीत नहीं करना। इस पर अचंभित न होना और न विचार करना कि क्यों लिंगराज-मंदिर में या और मंदिरों में हाथी के ऊपर सवार सिंह की प्रतिमा उत्कीर्ण है। नव ग्रह क्यों प्रत्येक देवी देवता के मंदिर के प्रवेश द्वार पर सिरनामे की तरह जड़ित हैं! सूर्य देवता की प्रतिमा को कैसे पहचानें? इस गुत्थी को कैसे सुलझाएँ कि शिव और पार्वती के चित्रों के ऊपर एक दंडधारी बौद्ध भिक्षु की ध्यानरत प्रतिमा पाई जाती है?
मुझे अपने दादा की याद है। भोलेबाबा की नगरी देवघर के पहले ‘ग्रेजुएट’। बांग्ला के ‘टॉपर’। वह भी संयुक्त बंगाल में। स्कूल के हेडमास्टर। सुबह-सुबह उन्हें पूजा अर्चना करते देखता था। चंडी पाठ उनका अब तक याद है। और अपनी अम्मी यानी माँ की हर सुबह की आराधना और दुर्गा पूजा में प्रत्येक दिन उनका चंडी पाठ। अभी कल ही भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘नील देवी’ की भूमिका के आरम्भ में दिए छंद का स्रोत जानना चाहा। किसी को मालूम न था। मुझे मेरी माँ के कारण ही या हर दुर्गा पूजा के पहले महालया की सुबह कलकत्ता रेडिओ स्टेशन से प्रसारित चंडी पाठ के कारण मालूम था। वह दुर्गा सप्तशती का अंश था। लेकिन उस छंद में दुर्गा जो मधु पीती हैं, वह क्या है? उत्तर कठिनाई से मिला। दोष क्या मेरे छात्रों का है? निश्चय ही नहीं। कितनों को महालया और जिस चंडी पाठ का ज़िक्र मैं कर रहा हूँ, उसका माहात्म्य बताया गया होगा? यह प्रश्न कि क्यों ब्रह्मा का मंदिर दुर्लभ है कौन करता है?
हिंदू होने के लिए अगर इतने सारे प्रश्न करने हों, इतना अध्ययन करना, इतनी पूछताछ करनी हो तो उस धर्म को दूर से ही प्रणाम कर लेने में भलाई है।
शिव, शंकर, नीलकंठ एक कठिन देवता हैं। उनकी कठिनाई से जूझकर उनसे रिश्ता कौन बनाए? रावण ने कठिन तपस्या की तो शिव उसे मिले। यह तप कौन करे?
आसान रास्ता मौजूद है। उसका अभ्यास करना भी कठिन नहीं। पलामू से शुरू होकर अब बिहार और झारखण्ड में शिव तक पहुँचने की कुंजी बना ली गई है। जैसे एक छात्र ने कहा कि गोदान उपन्यास नहीं है, क्या उसपर नोट्स मिल जाएँगे? हममें से जाने कितनों को गोदान या साकेत, कुंजी के सहारे ही उपलब्ध हुआ होगा। शिव चर्चा वह कुंजी है जिससे आप शिव के शिष्य बन सकते हैं।
हिंदू धर्म का सरलीकरण!
शिव चर्चा का नारा है: खर्चा न वर्चा, कर लो शिव चर्चा। मात्र ‘नमः शिवाय’ बोलिए और इस पंथ में शामिल हो जाइए। लेकिन हिंदू धर्म का और भी सरलीकरण कर दिया गया है। उसके लिए मानसिक और आध्यात्मिक श्रम की आवश्यकता नहीं। मन में अन्य धर्मावलम्बियों के लिए द्वेष होना ही पर्याप्त है। विशेषकर मुसलमानों के लिए। फिर किसी मुसलमान को अकेले देखकर उसे पीट देना, उसकी फ़िल्म बनाना और उसे चारों ओर प्रसारित करना। मुसलमान को पीट कर, उसे अपमानित करके या उसकी हत्या ही करके जो धर्म लाभ किया जाता है वह दूसरों को भी हो प्राप्त हो सके, इसलिए उसे प्रसारित किया जाता है। जितने प्राणी उसे देखते हैं, उन्हें पुण्य की अनुभूति होती है, फिर उसे आगे प्रसारित करते हैं।
विनम्रता, दया, करुणा, सहानुभूति, क्षमा, मैत्री, सत्य, साहस, आत्म विसर्जन: ये मात्र शब्द नहीं हैं। भाव हैं या मूल्य जिनके पीछे गहन वैचारिक साधना है। प्रत्येक धर्म दावा करता है कि वह इन मूल्यों का वाहक है।
लेकिन शायद ही ऐसा कोई कालखण्ड रहा हो जहाँ किसी भी धर्म के भीतर इन मूल्यों को चुनौती न दी गई हो। प्रायः धर्म या धर्मावलंबी श्रेष्ठता के अहंकार से ग्रस्त हो जाते हैं और अपनी सांसारिक प्रभुत्व की आकांक्षा को धर्म के ध्वज की आड़ में पूरा करना चाहते हैं। क्रूरता, छल, प्रपंच, रणनीति और जिनके रास्ते कोई साहसी अपना लक्ष्य पूरा नहीं करना चाहेगा, जो वास्तव में कायरता से जुड़े हैं, विनम्रता, दया, करुणा, सहानुभूति, क्षमा, मैत्री, सत्य, साहस की जगह ले लेते हैं। सत्य नहीं, साम दाम दंड भेद - यह जीवन पद्धति बन जाता है।
वह कोई और धर्म रहा होगा जहाँ अपने लिए अपराध का दंड भुगतना ही पड़ता था। धर्मराज को अर्धसत्य बोलने का दंड मिला और कृष्ण को भी न सिर्फ़ बलराम का कोप झेलना पड़ा बल्कि गांधारी का शाप भी सर पर लेना पड़ा। उस धर्म का लोप हो गया है जो इस उदात्त शिखर पर आरोहण की महत्त्वाकांक्षा रखता हो। इसके अनुयायी एक अकेले बच्चे पर मंदिर के प्रांगण में हिंसा कर सकते हैं, उसके गाली गलौज कर सकते हैं क्योंकि वह पानी पीने वहाँ आ गया था। उसे क्या पता था कि यहाँ हृदय घृणा से जलकर राख हो चुके हैं और उनमें मानवता का जल शेष नहीं है।
पूरी दुनिया में ऐसे लोगों की वजह से हिंदू अब अन्य मतावलंबियों के लिए घृणा, उद्धतपन और हिंसा से परिभाषित हो रहे हैं।
हाल में ऑस्ट्रेलिया में धर्मांध हिन्दुओं ने सिखों पर हमला किया। अमेरिका में बीजेपी समर्थक हिन्दुओं ने गुरुद्वारे के सामने विरोध रैली करने की कोशिश की। हो सकता है अब अमेरिका, कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया में पुलिस जगह-जगह चेतावनी की तख्ती लगा दे।
‘वायर’ ने ठीक ही रिपोर्ट की है कि उत्तर प्रदेश के दसना के मंदिर में एक मुसलमान किशोर पर हिंसा का कारण मुसलमानविरोधी घृणा का वह पर्यावरण है जिसमें वह हिंदू बना जिसने हिंसा की। उसके गुरु उसे शेर कह रहे हैं और उन्हें शर्म आ रही है कि जब उनका वह शेर गिरफ्तार हो गया, वे सो रहे हैं। सुना, उनके इस शेर को क़ानूनी मदद देने के लिए ‘सह-हिंदू’ पैसा दे रहे हैं। कुछ बरस पहले राजस्थान के राजसमंद में अफराजुल को शम्भूलाल रैगर ने मार डाला था। उसके लिए न सिर्फ़ लाखों का चंदा हुआ बल्कि उसकी प्रतिमा की झाँकी रामनवमी में निकाली गई और उसके मुक़दमे के समय अदालत पर चढ़कर भगवा ध्वज फहरा दिया गया।
नफ़रत और हिंसा की यह आबोहवा में इंसानियत की ऑक्सीजन की जगह कहाँ है? कहाँ है इसमें आत्मविस्तार और समर्पण? यह कौन सा धर्म है? और ये कौन धार्मिक हैं?