घृणा प्रचारक को घृणा प्रचारक कहना बुरा है! 

10:24 am Sep 18, 2023 | अपूर्वानंद

“यह ठीक है कि वे नफ़रत का प्रचार कर रहे हैं लेकिन उन्हें सार्वजनिक रूप से घृणा प्रचारक नहीं कहना चाहिए क्योंकि इससे उनकी बदनामी होती है। किसी को इस प्रकार चिह्नित करने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता। ऐसा करने से बातचीत का रास्ता बंद हो जाता है। यह जनतंत्र के लिए अच्छा नहीं।”यह बात कही जा रही है विपक्ष से जिसने 14 ऐसे समाचार वाचकों के नाम जारी किए हैं जिन्हें वह घृणा के प्रचारक मानता है।

पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर अख़बार और बुद्धिजीवी विपक्षी दलों के इस निर्णय से विचलित हो उठे हैं कि उनके प्रवक्ता कुछ ऐसे समाचार वाचकों के कार्यक्रमों में नहीं जाएँगे जो दिन रात नफ़रत फैलाते रहते हैं। विपक्षी दलों ने ऐसे वाचकों की फ़ेहरिस्त जारी की है। विपक्ष के इस कदम की आलोचना करनेवाले कह रहे हैं कि यह ठीक है कि ऐसे समाचार वाचकों के होठों पर घृणा है लेकिन उनका नाम प्रकाशित करके उनका बहिष्कार करना असहिष्णुता है। सिर्फ़ इसलिए कि वे आपसे सहमत नहीं, संवाद न करना ठीक नहीं। विपक्षी दलों का यह फ़ैसला पत्रकारिता की आज़ादी के लिए ख़तरा है। 

कुछ लोगों का कहना है कि मात्र 14 या 15 ऐसे वाचकों पर इतना ध्यान देने से बेहतर यह होगा कि विपक्ष उन 250 लोकसभा सीटों पर ध्यान दे जहाँ भारतीय जनता पार्टी ने 50% से अधिक मत हासिल किए हैं।

कॉंग्रेस पार्टी के नेताओं का उत्तर है कि हमने सिर्फ़ वैसे वाचकों के कार्यक्रमों में न जाना तय किया है जो समाज में घृणा और हिंसा फैला रहे हैं। हमारे इस कदम से उनकी हरकत में कमी नहीं आएगी। हम उनपर पाबंदी भी नहीं लगा सकते। हम सिर्फ़ यह कह रहे हैं कि हम अब उनके घृणा प्रचार के मंच पर जाकर उन्हें वैधता नहीं देंगे।

यह बात हमारे जैसे बहुत से लोग बहुत पहले से कह रहे हैं। टी वी पर होनेवाली बहसों में अगर आप शामिल होते हैं तो  उन बहसों के बहुपक्षीय और संतुलित होने का भ्रम होता है।इन बहसों में भाजपा और आरएसएस के लोग की संख्या कहीं अधिक होती है। समाचार वाचक भी उन्हीं के साथ सुर में सुर मिलाकर बोलते हैं। उन बहसों से निकलकर मन में एक कड़वाहट और पछतावा बचा रह जाता है।लेकिन उन बहसों के संचालक यह दावा कर सकते हैं कि हम तो हर पक्ष और विचार के  लोगों को बुलाते हैं, सबको मौक़ा देते हैं। इस तरह उस बहस को वैधता मिल जाती है। लेकिन दर्शक या श्रोता को शोर शराबे के अलावा मिलती है मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ नफ़रत।

यह नफ़रत ये समाचार वाचक स्वेच्छा से और काफ़ी जोश के साथ पैदा करते हैं और अपने माध्यमों से फैलाते हैं। इसका निशाना विपक्षी दल नहीं, मुसलमान होते हैं।इसका नतीजा क्या होता है?  

हाल में दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल के अध्यापकों ने बतलाया कि उनके कुछ छात्रों ने वैलेंटाइन दिवस के मौक़े पर बग़ल के पार्क में जाकर जोड़ों के साथ हिंसा की। इन लड़कों को और उनके माँ बाप को तलब किया गया। मालूम हुआ कि इनके घर में एक टी वी चैनेल 24 घंटा चलता रहता है। सूचना और विचारों का एकमात्र स्रोत।

मेरे एक मित्र  साल में दो बार अपने पिता से मिलने नोएडा आते हैं। वे ख़ुद अधेड़ हैं। लेकिन उनका अपने पिता से कभी संवाद नहीं हो पाता। कारण उनके घर पर निरंतर चलनेवाला टी वी।

यह एक स्थापित तथ्य है कि न सिर्फ़ ये वाचक बल्कि और भी दूसरे टी वी वाचक कम से कम पिछले 9 साल से मुसलमानों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, सरकार के आलोचक बुद्धिजीवियों और छात्रों के ख़िलाफ़ घृणा और हिंसा का प्रचार करते आ रहे हैं। इस घृणा अभियान ने इन सबको ख़तरे में डाल दिया है। ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो इन वाचकों के कार्यक्रमों को देख देखकर मुसलमान विरोधी हो गए हैं। ऐसे लोग आपको अब घर-घर मिल जाएँगे जो न सिर्फ़ मुसलमानों से बल्कि भारतीय जनता पार्टी के आलोचकों से नफ़रत करने लगे हैं। और यह सब कुछ टी वी चैनलों के कारण हुआ है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ख़िलाफ़ घृणा का प्रचार टी वी चैनलों ने किया। सिर्फ़ इनके कार्यक्रमों के कारण जनता के बीच उमर ख़ालिद और कन्हैया की छवि देशद्रोहियों की बन गई और उनसे घृणा करनेवाले हज़ारों की संख्या में तैयार हो गए। उनमें से दो ने हरियाणा से  दिल्ली आकर उमर को शूट करने की कोशिश की। वे वास्तव में यह मानने लगे थे कि उमर देशद्रोही है। उमर उस हमले में बच गए क्योंकि रिवाल्वर जाम हो गई। बाद में उमर ने कहा कि इस हमले के लिए वे टी वी चैनलों को ज़िम्मेदार मानते हैं जिन्होंने उनके ख़िलाफ़ हिंसक दुष्प्रचार किया और दर्शकों को विश्वास दिलाया कि वे भारत को तोड़ने की साज़िश कर रहे हैं।

इन्हीं चैनलों ने शायर, वैज्ञानिक गौहर रज़ा के ख़िलाफ़ हिंसक प्रचार किया। उसी तरह राजनीति शास्त्री और अध्यापिका निवेदिता मेनन के ख़िलाफ़ भी। 2020 में दिल्ली की हिंसा के समय ‘पिंजरा तोड़’ की छात्राओं के ख़िलाफ़ भी भयानक दुष्प्रचार किया गया।

कोरोना महामारी के वक्त तबलीगी जमात और मुसलमानों को महामारी फैलाने के लिए ज़िम्मेदार ठहरानेवाले कार्यक्रम इन वाचकों ने किए।

क्या ऐसा करना पत्रकारिता है? घृणा और हिंसा के इस हमले का सामना मुसलमान कैसे कर सकते हैं? क्या उन्हें इन वाचकों के कार्यक्रमों में जाकर उन्हें समझाना चाहिए कि वे जो बोल रहे हैं, वह ग़लत तो है ही, ख़तरनाक भी है?


इन 9-10 सालों में इन टी वी वाचकों ने भारत में हिंदुओं के तबके के भीतर जो घृणा, हिंसा भर दी है, उससे वे कैसे मुक्त हो सकेंगे?

इन वाचकों के कारण भारत की जनता में मूर्खता का प्रसार हुआ है जो जनतंत्र के लिए घातक है। लेकिन सबसे बढ़कर इन सबने भारत के मुसलमानों का जीवन असुरक्षित  बना दिया है। यह ऐसा अपराध है जिसकी सज़ा सिर्फ़ इनका बहिष्कार नहीं।

विपक्षी दलों ने इनमें से कुछ के नाम जारी करके यह बतलाया है कि वे अनेक इस घृणा प्रचार को नामंज़ूर करते हैं। इससे हमारे कुछ मित्र आहत हो उठे हैं। वे कहते हैं कि यह ठीक है कि घृणा फैलाना अच्छी बात नहीं लेकिन उतना ही बुरा है घृणा प्रचारक को घृणा प्रचारक कहना। आप क्या कहते हैं?