बाइडन की जीत, क्या अमेरिका ने खुद को बचा लिया?

07:38 am Nov 13, 2020 | अपूर्वानंद - सत्य हिन्दी

जो बाइडन अमेरिका के नए चुने हुए राष्ट्रपति हैं और कमला हैरिस नई चुनी हुईं उपराष्ट्रपति। बाइडन ने चुनाव के बाद अपने पहले वक्तव्य में कहा, “हमें अमेरिका की आत्मा का पुनर्वास करना है।” उन्होंने कटुतापूर्ण वाद-विवाद को पीछे छोड़कर समाज में समन्वय स्थापित करने का आह्वान किया है। 

बाइडन ने कहा कि जो हारे हैं वे भी अमेरिकी हैं। किसी और मौके पर यह सब कुछ बहुत ही घिसा-पिटा लगता लेकिन चुनाव नतीजों के बाद इस वक्तव्य को सुनते हुए रोने वालों की संख्या कम न थी। बर्नी सैंडर्स ने भी इसे अब तक के अमेरिकी इतिहास का सबसे अहम चुनाव बताया क्योंकि इस बार जनतंत्र का भविष्य और कानून का राज ही दाँव पर लगे हुए थे। 

सद्भाव की हुई जीत 

अमेरिका ने खुद को बचा लिया है। उसने खाई की कगार से खुद को वापस खींच लिया है। सभ्यता, शालीनता, संयम ने फूहड़पन, छिछलेपन और कटुता को आखिरकार पराजित किया है। घृणा की जगह सद्भाव ने विजय हासिल की है। विभाजन के स्थान पर समन्वय को स्वीकार किया गया है। कमला हैरिस ने इससे भी आगे अमेरिकी जनता को इसलिए बधाई दी कि उसने विज्ञान और सत्य का चुनाव किया है।

यह सब कुछ अपने आप नहीं हो गया। डोनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने के फौरन बाद आपको ट्रंप की राजनीति और विचारधारा के ख़िलाफ़ औरतों के विशाल जुलूस की याद होगी। यह उनके चुनाव नतीजों के तुरंत बाद हुआ था। 

अमेरिका में जनतंत्र के पक्षधर लोगों ने “जनमत” के आगे सिर झुकाकर हाथ नहीं बाँध लिए थे। उन्हें अपने मूल्यों पर विश्वास था और यह भी कि वे किसी जन समर्थन के मोहताज नहीं हैं। उनकी रक्षा के लिए नए चुनाव का इंतजार नहीं किया जा सकता था। वह तो हर रोज़ किया जाना था।

ट्रंप की 2016 की जीत को कोई अनहोनी नहीं मानना चाहिए। ट्रंप अमेरिका के भीतर पैबस्त पूर्वाग्रहों और मनोवृत्तियों के प्रवक्ता थे। लेकिन प्रश्न यह था कि क्या अमेरिका यही होगा या उसपर उनका भी कुछ हक है जो समानता, न्याय, विज्ञान, सहकारिता और सबसे बढ़कर सत्य पर यकीन रखते हैं अमेरिका की मीडिया और वहाँ के विश्वविद्यालयों ने राज्य की सत्ता के सम्मुख घुटने नहीं टेक दिए।

अमेरिकी मीडिया ने जनता को निरंतर वे सूचनाएँ देना जारी रखा जिनके आधार पर वह ट्रंप के शासन के असत्य को पहचान सकती थी। वह ट्रंप के दावों की परीक्षा कर सकती थी।

अमेरिकी विद्वानों की भूमिका

अमेरिकी विद्वानों ने जनता को ट्रंप के ख़तरे से सावधान करते रहना अपना बौद्धिक दायित्व समझा। इसे उन्होंने “एक्टिविस्ट” जमात के जिम्मे नहीं छोड़ दिया। चूँकि यह सक्रियता बनी रही, जनता होने का बोध भी बना रहा। उसी का परिणाम है कि आज अमेरिका चैन और राहत की साँस ले पा रहा है।

जनता को जनता बने रहने के लिए इन सब सक्रियताओं और कार्रवाइयों की ज़रूरत है। कमला हैरिस ने ठीक ही कहा कि जनतंत्र एक अवस्था नहीं, बल्कि एक कार्रवाई है। उसका भी रोजाना अभ्यास करना पड़ता है।

जो बाइडन।

कमला हैरिस की जीत

लेकिन इस चुनाव की असली उपलब्धि कमला हैरिस हैं। एक भारतीय, दक्षिण एशियाई माँ और एक जमैकन पिता की बेटी। एक आप्रवासी की संतान। वे खुद को अश्वेत कहती हैं और इसमें गर्व का अनुभव करती हैं। उन्होंने उपराष्ट्रपति चुने जाने के बाद अपने वक्तव्य में कहा कि उन्हें मालूम है कि अमेरिका के 244 साल के जनतंत्र के इतिहास में उपराष्ट्रपति के पद पर पहुँचने वाली वे पहली महिला, पहली अश्वेत महिला हैं। उन्होंने यकीन जाहिर किया कि वे ऐसी आख़िरी महिला नहीं होंगी। 

प्रचार के दौरान कमला हैरिस।

कमला के चुनाव के महत्व को भारत में समझे जाने की ज़रूरत है। कुछ भारतीय बौद्धिक इसे भारतीय कहानी की जीत बता रहे हैं- भारतीय उपलब्धि! ट्रंप ने कमला के नाम का जैसा भ्रष्ट उच्चारण किया और उनके मूल को लेकर जिस प्रकार का हमला उनपर किया, उससे हमें भारत के कुछ राजनेताओं और राजनीतिक दलों के उन वक्तव्यों की याद आ रही होगी जिनमें सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के विदेशी मूल की बार-बार याद दिलाई जाती थी और सोनिया के पूरे नाम का जानबूझ कर उल्लेख किया जाता था। 

बहुत सारे भारतीय आप्रवासी जिन्होंने अमेरिका में कमला को वोट दिया, वे ज़रूरी नहीं कि भारत में ऐसे पदों के लिए सोनिया, राहुल और प्रियंका को उपयुक्त मानें और इसका कारण इन सबका विदेशी मूल है।

सत्य और सद्भाव का पक्ष

अमेरिका के प्रतिष्ठित टेलीविज़न चैनलों पर हमने श्वेत और अश्वेत पत्रकारों और विश्लेषकों को निःसंकोच रोते हुए देखा। उन्होंने निष्पक्षता का ढोंग  नहीं रचा जो हमारे पत्रकार और बौद्धिक पालते हैं और खुद को “अंपायर” समझकर दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाए रखने की कवायद करते हैं। अमेरिकियों ने साफ कहा कि पक्ष तो एक ही है जो सारे सभ्य लोगों का हो सकता है। वह है- सत्य और सद्भाव का पक्ष। 

मैंने 2014 के चुनाव नतीजों  के बाद एक चैनल पर पत्रकारों को लड्डू खाते देखा तो मेरा सिर शर्म से झुक गया। वे जानते थे कि उस चुनाव में विभाजन और घृणा की राजनीति ने जीत हासिल की है कि उस जीत में भारत के अल्पसंख्यकों का अपमान है, फिर भी उन्होंने जश्न मनाया! यह अमेरिकी पत्रकारिता ने नहीं किया। इससे कम से कम उनके पाठकों के सामने यह स्पष्ट रहा कि यह इस प्रकार की राजनीति है जिससे कोई भी सभ्य व्यक्ति समझौता नहीं कर सकता।

अमेरिकी चुनाव नतीजों पर देखिए बातचीत- 

संघर्ष की ज़रूरत

सैंडर्स ने ठीक ही कहा कि इस जीत के बाद असली काम शुरू होता है और वह है- कठिन श्रम। वह अमेरिकी समाज में जड़ जमाकर बैठी असमानता से संघर्ष का श्रम है। वह हर प्रकार के न्याय का संघर्ष है। उस संघर्ष के लिए बाइडन और हैरिस की इस जीत ने रास्ता हमवार किया है। लेकिन उस वजह के इस क्षण का महत्त्व कम नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा कुछ चिर निराशावादी कर रहे हैं जो बता रहे हैं कि इस जीत से खुश होने की ज़रूरत नहीं क्योंकि वास्तव में कुछ भी नहीं बदला है। 

ऐसे लोग उन आंसुओं से नहीं भीग पाते जो हमने न जाने कितने गालों पर बहते देखे, वे श्वेत और अश्वेत आँखों के आँसू थे। वे असली थे। वे एक असली दर्द और असली उम्मीद के आँसू थे। जो इस लम्हे से आगे देखने की गंभीरता प्रदर्शित कर रहे हैं, उन्हें शायद गाँधी का वचन याद करना चाहिए- ‘मेरे लिए एक समय में एक क़दम।’

अमेरिकी जनता ने यह क़दम ठीक दिशा में उठाया है, मजबूती से उठाया है। इसका महत्व उस पर्दे को हटाने में है जो ट्रंप की राजनीति ने अमेरिका में अमेरिका और अमेरिकी के बीच डाल दिया था। बाइडन ने ठीक ही कहा है कि यह मुमकिन हुआ है कि हम एक-दूसरे को देख सकें!

एक-दूसरे को देख सकना इतना भी आसान नहीं है। यह इस चुनाव में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के बीच के कड़े संघर्ष से जाहिर हुआ है। लेकिन वह देखना खुद इंसान बनने और बने रहने के लिए ज़रूरी है। अमेरिका ने यह समझा है, इसके लिए अभी तो उसके साथ खड़े रहने की ज़रूरत है।