जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने परिसर में विरोध प्रदर्शन करने के अपराध के कारण 15 छात्रों को निलंबित कर दिया है। कुछ रोज़ पहले विरोध प्रदर्शन कर रहे छात्रों को गुप्त तरीक़े से विश्वविद्यालय प्रशासन ने पुलिस के हवाले कर दिया था और कुछ घंटों तक उनका कोई अता पता न था। पुलिस की हिरासत से तो वे छूट गए लेकिन उनके प्रशासन ने ही उन्हें निलंबित कर दिया। साथ ही उनकी तस्वीरें और उनके निजी ब्योरे सार्वजनिक भी कर दिए। जब इस पर शोर उठा तो प्रशासन ने अपनी ज़िम्मेवारी से इनकार किया और कहा कि वह जाँच करेगा कि यह कैसे हुआ और किसने किया।
जामिया के छात्र बतलाते हैं कि परिसर छात्रों पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है। सुरक्षा गार्ड अब परिसर के मालिक बन गए हैं। एक छात्रा ने बतलाया कि छात्रों को गार्ड थप्पड़ भी लगा देते हैं। जामिया के अध्यापक ख़ामोश हैं। लेकिन वे भी कह सकते हैं कि वे ख़ुद प्रशासन का हमला झेल रहे हैं। कुछ वर्ष पहले हुए प्रोफ़ेसर सोनिया सुरभि गुप्ता के निलंबन की याद भी शायद हमें न हो। उस वक्त भी अपने सहकर्मी के लिए अध्यापकगण आवाज़ नहीं उठा पाए थे।2022 में तत्कालीन कुलपति ने उन्हें शिक्षक संघ की चुनाव प्रक्रिया शुरू करने के कारण दंडित किया था। वह 2024 में वापस हो पाया जब कुलपति का कार्यकाल समाप्त हुआ। इस बीच उनकी बिरादरी की तरफ़ से किसी विरोध की खबर नहीं मिली। पूछने पर कुछ ने कहा कि वे ख़ुद भयभीत हैं और कुछ भी बोलने पर उन्हें भी निलंबित किया जा सकता है।
दंड की आशंका के बावजूद छात्र अपनी आवाज़ उठाते रहे हैं।लेकिन हम अभी उनकी वीरता की तारीफ़ के लिए नहीं लिख रहे, इन परिसरों के कारागृह बन जाने पर बात कर रहे हैं।जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने एक हास्यास्पद आदेश जारी किया है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के ख़िलाफ़ नारा लगाना मना है। फिर छात्र अगर शासन से नाराज़ हों तो नारा किसके ख़िलाफ़ लगाएँ? छात्रों का कुछ भी बोलना जामिया में अपराध घोषित कर दिया गया है।
जो हालत जामिया की है, वही अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की है।अनुशा रेहान और तल्हा मन्नान ने अपने एक लेख में (https://shorturl.at/hP9d6) ठीक कहा है कि बाक़ी विश्वविद्यालयों में भी दमन हो रहा है लेकिन इन दो के हालात भिन्न और ख़ास हैं। अपने मुस्लिम चरित्र के कारण वे ख़ास तौर पर निशाने पर हैं।लेकिन हम यह बोलने से कतराते हैं।
2019 के दिसंबर में नागरिकता के क़ानून में संशोधन के ख़िलाफ़ जब जामिया के छात्रों ने विरोध किया तो उन पर पुलिस जिस क्रूरता से टूट पड़ी और गाली गलौज करते हुए उन पर हमला किया उससे मालूम होता है कि राज्य का रवैया जामिया के प्रति क़तई अलग है।
जामिया की लाइब्रेरी में पुलिस की ये पुरानी तस्वीर लोगों के दिमाग में आज भी बसी हुई है।
2014 के पहले भी यह कहा जाता रहा था लेकिन 2014 के बाद भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ़ से इन दोनों संस्थानों पर यह कहकर हमला किया जाने लगा कि इनके अल्पसंख्यक चरित्र के कारण यहाँ आरक्षण नहीं होता है और ये दलितों और पिछड़े समुदायों का हक़ मार रहे हैं।’सामाजिक न्याय’ के हथियार से अल्पसंख्यक अधिकार की हत्या की कोशिश बंद नहीं हुई है।
कोई यह बात नहीं करता कि भारत में मुसलमानों के सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की सुरक्षा और उसके लिए विशेष इंतज़ाम पिछड़े और दलित या आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षण जितना ही ज़रूरी है, अगर उससे ज़्यादा नहीं तो।
मात्र सांस्कृतिक कारण से नहीं। मुसलमान सामाजिक -आर्थिक दृष्टि से प्रायः हर क्षेत्र में पीछे हैं। फिर उनके लिए विशेष प्रावधान क्यों नहीं?
इसके अलावा हम ईमानदारी से अपने परिसरों को देखें तो मालूम होगा कि उनका चरित्र , भले ही वह अघोषित हो, हिंदू चरित्र है। परिसरों में हिंदू प्रतीक, हिंदू रीति के अनुष्ठान सार्वजनिक तौर पर देखे जा सकते हैं। इन्हें स्वाभाविक माना जाता है और धार्मिक नहीं सांस्कृतिक कहकर उचित ठहराया जाता है।अयोध्या में एक राम मंदिर के उद्घाटन के वक्त दिल्ली विश्वविद्यालय में भजन, यज्ञ में प्रशासन के लोग भी शामिल हुए।यह असाधारण अवसर था, इसे यह कहकर टाला नहीं जा सकता।रोज़मर्रा के कार्यक्रमों में ही हिंदू छाप देखी जा सकती है।
भारत के ज़्यादा परिसरों में मुसलमान और ईसाई पहचानें प्रकट नहीं हैं।आज के समय वे और भी ओझल हो गई हैं।वे ख़ुद को छिपाकर रखने में ही सुरक्षा का अनुभव करती हैं। राम मंदिर का उत्सव परिसर में मनाया जा रहा था। उसी समय एक मुसलमान छात्रा ने मुझसे कहा कि मैं एक कोने में नमाज़ पढ़ रही थी।मुझे रोका गया।लेकिन हिंदू अनुष्ठान तो ही रहे हैं।उसे मैं यही कह सका कि आप इसकी वजह जानती हैं।
- हमें मालूम है कि कक्षाओं में भी मुसलमान प्रायः चुप रहते हैं। कहीं किसी तरह की मुसलमान अभिव्यक्ति नहीं दिखलाई पड़ती। उर्दू, अरबी और फ़ारसी विभागों को छोड़कर।
परिसरों को सांस्कृतिक क्षेत्रों के रूप में भी देखे जाने की ज़रूरत है। हम सब ख़ुद मानते हैं कि संस्कृति का एक हिस्सा धर्म है।फिर भारत के सारे परिसर सिर्फ़ एक तरह की धार्मिक अभिव्यक्ति को सांस्कृतिक क्यों मानते हैं और क्यों अन्य को धार्मिक, संकीर्ण और अस्वीकार्य मानते हैं। सरस्वती वंदना कितनी स्वाभाविक लगती है और तिलावत कितनी अजीब?
परिसरों को हर प्रकार के छात्र को पूरा सांस्कृतिक इत्मीनान देना चाहिए।लेकिन क्या यह इत्मीनान मुसलमानों को सामान्य शैक्षिक परिसरों में है? हम कह सकते हैं कि जामिया और ए एम यू जैसे परिसरों में यह इत्मीनान उन्हें है। दूसरे, ये परिसर मात्र सांस्कृतिक प्रतीक हैं। उनके होने भर से मुसलमानों को इसका अहसास रहता है कि इस मुल्क में वे कुछ जोड़ रहे हैं, उसमें उनका हिस्सा है।
परिसरों में हमें नई पहचान हासिल करने के भी मौक़े होते हैं।लेकिन इसमें स्वायत्तता का अनुभव आवश्यक है।क्या चुनाव का यह अधिकार सामान्य तौर पर हिंदुओं को छोड़कर किसी और को है?
स्कूलों के स्तर पर भी क्या कभी यह सवाल होता है? क्या स्कूल ईद, बक़रीद मनाते हैं? पुणे में एक मित्र ने बतलाया कि ईद के मौक़े पर एक स्कूल ने खुरमा बनाया तो हिंदू अभिभावकों ने इसका विरोध किया। आप हिंदू प्रार्थना तो गा सकते हैं लेकिन मुसलमानों की प्रार्थना की इजाज़त नहीं है।
ऐसी स्थिति में जामिया जैसे संस्थानों की अहमियत संकीर्ण अर्थों में शैक्षिक और जनतांत्रिक कारणों से ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक कारणों से भी बहुत बढ़ जाती है। अगर मुसलमान वहाँ अधिक खुला महसूस करें, अपनी बात खुल कर कह पाने का आश्वासन अगर उन्हें हो तो इसमें क्या आश्चर्य होना चाहिए?
ठीक इसी कारण से अब उन्हें ध्वस्त करने का प्रयास किया जा रहा है। उनके अल्पसंख्यक स्वरूप को ख़त्म करने की कोशिश की जा रही है। वह जब तक न हो तो वहाँ ऐसे लोगों को मुखिया बनाया जा रहा है जो आर एस एस के पालतू हैं।आर एस एस के एक पदाधिकारी ने मुसलमानों को संघ मार्का राष्ट्रवादी बनाने का काम लिया है। ए एम यू हो या जमिया या जामिया हमदर्द, सबके प्रमुखों के बारे में कहा जाता है कि वे इस पदाधिकारी के दरबारी हैं। जामिया की पिछली कुलपति ने पद सँभालने के बाद पहली सार्वजनिक सूचना देने के लिए आर एस एस के इस पदाधिकारी से आशीर्वाद लेते हुए अपनी तस्वीरें जारी कीं। जो मुसलमान अध्यापक राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच से किसी तरह जुड़े हैं, वे ही कुलपति आदि बनाए जाते हैं।
ऐसे अधिकारी अपने छात्रों और अध्यापकों के प्रति और भी क्रूर होते हैं क्योंकि उन्हें अपनी वफ़ादारी साबित करनी होती है। वे अपने छात्रों को पुलिस के हवाले करने को तत्पर रहते हैं। यही जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पिछले भाजपा सरकार के आने के बाद से हो रहा है और यही अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में भी हो रहा है। यहाँ छात्रों के दमन को सिर्फ़ छात्रों के दमन की तरह देखना ग़लत होगा। मुसलमान समुदाय को सबक सिखलाने का यह एक और तरीक़ा है।
(स्तंभकार अपूर्वानंद जाने-माने विचारक हैं और पेशे से शिक्षक हैं)