हम इज़राइल के साथ हैं।” इस वाक्य का क्या अर्थ है? और क्या किसी को इससे इनकार हो सकता है? अगर किसी मुल्क से मुराद उसकी अवाम से है तो किसी को भी किसी अवाम के साथ होने में परहेज़ आख़िर क्यों कर हो?
लेकिन इज़राइल के साथ होने का मतलब आज फ़िलिस्तीन के ख़िलाफ़ होना मान लिया गया है। ‘इज़राइल ज़िंदाबाद’ नारे का मतलब ‘फ़िलिस्तीन मुर्दाबाद’ ही होगा, यह तय मान लिया गया है। जैसे हिन्दुस्तान में किसी को ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ बोलने की इजाज़त नहीं।
यह भी एक अजीब सी बात है कि आज पूरी दुनिया में’, फ़्रांस हो या इंग्लैंड, अमेरिका हो या जर्मनी, तुर्की हो या अफ़्रीका, 'हम फ़िलिस्तीन हैं’ के नारे सड़कों पर लग रहे हैं, फ़िलिस्तीन के झंडे हज़ारों हज़ार लोग, इन मुल्कों की अवाम लहरा रही है। लेकिन इज़राइल का झंडा इन मुल्कों की सरकारें अपनी सरकारी इमारतों पर फहरा रही हैं।
फ़्रांस की सरकार हो या इंग्लैंड की, धमकी दे रही है कि फ़िलिस्तीन का नाम लेने पर सज़ा होगी लेकिन उनकी जनता इस धमकी को अँगूठा दिखलाते हुए सड़कों पर नारे लगा रही है: ‘दरिया से समंदर तक: आज़ाद होगा फ़िलिस्तीन।”
इंग्लैंड में इस नारे पर एतराज जतलाया गया। इस नारे का मतलब इज़राइल के वजूद से इनकार है, यह आरोप है। जुलूस में शामिल लोगों ने कहा, जब हम यह नारा लगाते हैं तो हम इज़राइल को नेस्तनाबूद करनेकी बात नहीं करते, हम तो सिर्फ़ फ़िलिस्तीन की आज़ादी की माँग करते हैं।
इन दोनों में अगर चुनना हो तो कोई भी ग़ैरतमंद क्या चुनेगा? किसी मुल्क का झंडा लोगों के हाथ में शोभता है या सरकारी दफ़्तरों पर? ख़ुद इज़राइल के लोगों को क्या लगता होगा? क्या वे इसे फ़क्र की बात मानते हैं कि निहत्थी जनता के हाथ में फ़िलिस्तीन का झंडा है और उनके होठों पर फ़िलिस्तीन का तराना है लेकिन इज़राइल सिर्फ़ हथियारबंद सरकारों के बयानों में है? कौन सी बात अधिक प्रतिष्ठा की है?
दुनिया भर की सड़कों पर फ़िलिस्तीन के रंग देखकर इज़राइल के लोगों को कैसा लगता होगा? क्या वे अकेलापन महसूस करते होंगे?
जो फ़िलिस्तीन के साथ है, उसे भी शायद यह कहना चाहिए कि वह इज़राइल के साथ भी है।
लेकिन इज़राइल के साथ होने का मतलब क्या है? इस वक्त इज़राइल का हितचिंतक कौन है? वह जो इज़राइल को जंग और हिंसा की बंद सुरंग में और भीतर धकेल रहा है ? या वह जो उसे सावधान कर रहा है कि यह सुरंग आगे से बंद है और इसमें घुसने का मतलब है इसी में फँसे रहना?
कौन है वाक़ई इज़राइल के साथ? वे सारे लोग जो 7 अक्तूबर के हमास के हमले और क़त्लोगारत का तुरत और दुगुने क़त्लोगारत से बदले की इज़राइल सरकार की हुंकार पर उसकी पीठ ठोंक रहे हैं? या वे जो अभी भी कह रहे हैं कि हमास के हमले का जवाब ग़ज़ा को तबाह करना नहीं है? ठंडे दिमाग़ से इस मौक़े का इस्तेमाल हिंसा के उस दुष्चक्र से निकालने के लिए किया जा सकता है जिसमें पिछले 75 साल से इज़राइल ने ख़ुद को डाल रखा है और अपने साथ फ़िलिस्तीनियों को भी।
तो वे सारे लोग और उनके अगुवा जो बाइडेन और ऋषि सुनाक हैं, जो इज़राइल के प्रधानमंत्री नेथन्याहू को गले लगाने दौड़े आए क्या इज़राइल की अवाम के हितचिंतक हैं?
क्या इन लोगों की प्राथमिकता उन 200 से अधिक लोगों की रिहाई है जिन्हें हमास ने बंधक बना रखा है? जब 7 अक्टूबर के अगले रोज़ ही इज़राइल की सरकार ने ग़ज़ा पर बमबारी शुरू कर दी तो उसके दिमाग़ में उसके ये लोग थे जो इस बमबारी में मारे जा सकते थे? क्या इस बमबारी की जगह बेहतर यह होता कि हमास से बातचीत का कोई ज़रिया निकाला जाता और पहले इन बंधकों को आज़ाद करवाया जाता?
आमिरा हास हों या गिडीयन लेवी या डेविड शुल्मान या ऐसे सैकड़ों, हज़ारों इज़राइली चीख चीख कर कह रहे हैं कि अगर इज़राइल को अमन की ज़िंदगी चाहिए तो उसे फ़िलिस्तीन को आज़ाद करना ही होगा।
इज़राइल के पूर्व रक्षा सलाहकार डेनियल लेवी ने ‘अल जज़ीरा’ को अपने इंटरव्यू में कहा कि हमास के हमले की निंदा करने के पहले यह सवाल पूछने की ज़रूरत है कि आख़िर हम सब इस मुक़ाम तक पहुँचे ही कैसे ? हम यह सवाल पूछने को मजबूर ही क्यों हुए ? लेवी ने यह कहा कि यह सवाल पूछना ही नहीं पड़ता अगर 75 साल से लाखों फ़िलिस्तीनियों को एक तंग जगह में दुनिया की सबसे क्रूर क़ैद में रोज़ रोज़ न कुचला जाता।
सवाल यह भी नहीं है कि इज़राइल का ख़ुफ़िया तंत्र क्यों फेल कर गया और क्यों उसे हमास के इतने बड़ी और लंबी तैयारी की भनक भी न हुई। असली सवाल यह है कि हमास को किसने ताकतवर बनाया? क्यों इज़राइल की सरकारों ने और नेथन्याहू ने ख़ासकर, हमास को फ़तह के मुक़ाबले खड़ा किया? क्यों इज़राइल ‘ओस्लो करार’ से पीछे फिर गया और क्यों उसने अमेरिका की निगाह के नीचे फ़िलिस्तीनी ज़मीन हड़पना जारी रखा, फ़िलिस्तीनियों का रोज़ाना क़त्ल, उनकी रोज़ रोज़ बेइज्जती जारी रखी?
आख़िर ऐसी हालत किसने पैदा की कि इज़राइल को हरेक फ़िलिस्तीनी में हमास नज़र आ रहा है?
डेनियल लेवी सावधान कर रहे हैं कि ग़ज़ा को ज़मींदोज़ करने के बाद भी इज़राइल को आज से अधिक सुरक्षा कभी नहीं मिलेगी। इज़राइल के लोगों की सुरक्षा की गारण्टी सिर्फ़ और सिर्फ़ आज़ाद फ़िलिस्तीन है। आप जब किसी को दबाकर रखते हैं तो आपको उस दबाव को बढ़ाते रहना होता है क्यों जिसे दबाया जा रहा है उसकी सर उठाने की इच्छा उसी अनुपात में बढ़ती जाती है। फिर आप हमेशा चौकन्ना रहते हैं, अपनी बड़ी ऊर्जा उस दबाव को बढ़ाने में करते हैं। बेहतर यह है कि आप उसकी पीठ से उतर जाएँ और उसे सीधा चलने दें। फिर आप भी उसकी बग़ल में चैन से चल सकेंगे। यह इतना ही सरल है। इज़राइल को अगर चैन चाहिए तो उसे फ़िलिस्तीनियों को आज़ादी देनी ही होगी।