आज हम अपनी नैतिक आवाज़ खो चुके हैं!

12:11 pm Oct 30, 2023 | अपूर्वानंद

जंगबंदी: क्या इस वक्त से अधिक ज़रूरी कोई और लफ़्ज़ दुनिया की सारी ज़ुबानों के शब्दकोशों में  हो सकता है? और क्या दुनिया के सारे गलों से और कोई माँग की जानी चाहिए जंगबंदी के अलावा? अमेरिका हो या इंग्लैंड, जर्मनी हो या तुर्की, देश देश से सड़कों पर हज़ारों, लाखों गलों से एक ही सदा उठ रही है: जंगबंदी की। ग़ज़ा पर इज़राइल की बमबारी, औरतों, बच्चों, लोगों का क़त्लेआम फ़ौरन रोका जाए, यह माँग दुनिया के हर देश की तरफ से जा रही है।

संयुक्त राष्ट्र सभा की सामान्य परिषद में, जिसे दुनिया की संसद माना जाता है, 121 देशों ने ग़ज़ा में फ़ौरन जंगबंदी की माँग की। इस प्रस्ताव में सारे असैनिक नागरिकों की रिहाई की माँग भी की गई है। लेकिन 14 देशों ने इसका विरोध किया और 44 देशों ने इस प्रस्ताव पर मतदान नहीं किया। व्यावहारिक रूप से इसका अर्थ यही है कि वे देश इसे पारित नहीं होने देना चाहते थे। भारत ऐसे देशों में शामिल है। भारत ऐसा देश बन गया जो अपने होंठ सिलकर निहत्थे नागरिकों, बच्चों, औरतों, बीमारों का क़त्लेआम चलते रहना देखता रहेगा।

भारत सरकार का तर्क यह है कि इस प्रस्ताव में हमास की दहशतगर्दी की निंदा नहीं थी। क्या आज का मसला दहशतगर्दी है? जैसा अचिन विनायक बार बार कहते रहे हैं, दहशतगर्दी एक टेक्नॉलॉजी है और इसका इस्तेमाल अगर हमास जैसा संगठन करता है तो इज़राइल या अमेरिका या किसी भी देश की सरकारें भी करती रही हैं। दहशतगर्दी एक ऐसा तरीक़ा है जिससे एक कृत्य से एक बड़ी आबादी में, जो उससे तुरत प्रभावित न हो रही हो, इस बात की दहशत पैदा कर दी जाए कि उसका जीवन अनिश्चित है और उसके साथ भी यह कभी भी हो सकता है।  विचारधारा वामपंथी हो या धार्मिक राष्ट्रवादी, दहशत का इस्तेमाल उसके लिए किया जा सकता है। यह हमने पिछली सदी के ही नहीं, इस सदी के इतिहास में भी बार बार देखा है। दहशत पैदा करके एक बड़ी आबादी को डराया जा सकता है। इस टेक्नॉलाजी का इस्तेमाल  सरकारें भी करती हैं।लेकिन तब उसे जायज़ माना जाता है। जैसे जब पश्चिमी तट पर या ग़ज़ा में सामान्य दिनों में किसी एक फ़िलिस्तीनी के घर में घुसकर इज़राइली गुंडे उसकी हत्या कर देते हैं या उसे गिरफ़्तार कर लेते हैं, तो यह भी एक दहशतगर्द कार्रवाई है। इससे दूसरे फ़िलिस्तीनियों के मन में भय बैठ जाता है।या इज़राइल रोज़ाना पिछले 75 सालों से करता आ रहा है। सारी दुनिया इसे जानती है लेकिन इसे लेकर कभी कोई हाहाकार उठा हो, इसका सबूत नहीं है।

इसलिए इस क्षण का प्रश्न दहशतगर्दी नहीं है। 7 अक्टूबर की दहशतगर्द हिंसा जारी नहीं है। उसमें अब किसी दख़लंदाज़ी का कोई मतलब नहीं है। जो जारी है, वह है इज़राइल का हमला। अभी सबसे ज़रूरी है ग़ज़ा के निहत्थे लोगों को बचाना। 8 अक्टूबर से इज़राइली हमले में 8000 से ज़्यादा फिलिस्तीनी मारे गए हैं।  अगर बच्चों की मौत से हमारा दिल पिघलता हो, तो यह जान लेना काफी है कि इज़राइल रोज़ तक़रीबन 100 बच्चों को मार रहा है। क्या यह संख्या पर्याप्त नहीं कि इज़राइल का हाथ पकड़ा जाए?


लेकिन अमेरिका और इंग्लैंड जैसी सरकारें बेशर्मी से इज़राइल के इस क़त्लेआम को न सिर्फ़ देख रही हैं, बल्कि इसके लिए उसकी पीठ ठोंक रही हैं । इस हमले को जायज़ ठहरा रही हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति और उसके मंत्रीगण तर्क दे रहे हैं कि कायर हमास फ़िलस्तीनियों के बीच छिप कर बैठा है।बेचारा इज़राइल क्या करे? उसे इन फ़िलिस्तीनियों को मारने को मजबूर होना पड़ रहा है। बाइडेन कह रहे हैं कि असैनिक मारे नहीं जाने चाहिए लेकिन अभी कुछ नहीं किया जा सकता।

यह भी कहा जा सकता है कि ग़ज़ा में इज़राइल के इस जनसंहार को जायज़ ठहराने के लिए तर्क अमेरिका और इंग्लैंड के नेता मुहैया करवा रहे हैं। हमास के हमले को‘होलोकॉस्ट’ के बाद का यहूदियों पर सबसे बड़ा हमला कहा गया। इस तर्क की  बेईमानी इतनी साफ़ है कि अलग से इस पर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। यह कहकर इज़राइल को खुला लाइसेंस दिया जा रहा है कि वह ‘यहूदी संहार’ के ख़िलाफ़ कोई भी कदम उठा सकता है।

इज़राइल में ऐसे लोग मौजूद हैं जो हिटलर की यहूदी विरोधी विचारधारा और नस्लकुशी के शिकार रहे हैं। उनमें से अनेक बार बार कह रहे हैं कि पश्चिमी देशों के नेता वास्तव में हिटलर के वक्त अपनी भूमिका के कारण पैदा हुए अपराध बोध को छिपाने के लिए अब बढ़ चढ़ कर यहूदी विरोध के ख़िलाफ़ अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर कर रहे हैं।

यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि यूरोपीय देशों ने और अमेरिका ने भी उन यहूदियों के मुँह पर,जो नाज़ी हिंसा से बचने को शरण माँग रहे थे, अपने दरवाज़े बंद कर दिए थे। इन देशों ने ख़ुद को यहूदियों से मुक्त रखने के लिए उन्हें अरब रवाना कर दिया यह कहकर कि वेअपना मुल्क फ़िलिस्तीन में  बना सकते हैं। आज तक यूरोप और अमेरिका ने अपने इस अपराध को स्वीकार नहीं किया है। वे ख़ुद उन हज़ारों या लाखों यहूदियों के क़त्ल और उनकी मौत के लिए ज़िम्मेदार हैं जिन्हें वे पनाह देकर बचा सकते थे। ऐसा उन्होंने नहीं किया।

इसकी जगह उन्होंने एक धारावाहिक नस्लकुशी का रास्ता खोला, फ़िलिस्तीन पर इज़राइल को थोप कर। पहली बड़ी नस्ली सफ़ाई 1948 में हुई जिसे फ़िलिस्तीनी नक़बा के नाम से याद करते हैं। अपनी ज़मीन, अपने घरों से लाखों फ़िलिस्तीनियों को बेदख़ल किया गया, उन्हें अपने ही वतन में शरणार्थी बना दिया गया। और उस जगह इज़राइल की स्थापना की गई।


1948 से नस्लकुशी रुकी नहीं है। एक राज्य दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्कों की शह पर रोज़ाना यह अपराध कर रहा है। इसके किसी भी विरोध को यहूदी विरोध कह कर इज़राइल अपनी हिंसा को जायज़ ठहराता रहा है।

और अब हमास के हमले के जवाब में ग़ज़ा को हथियाने का एक बहाना इज़राइल को मिल गया है। हमास के हमले का समर्थन करना कठिन है। लेकिन कोई भी ज़िम्मेवार सरकार ऐसे हमले के बाद, जिसमें 200 से ज़्यादा लोग बंधक बना लिए गए हों, पहले उनकी हिफ़ाज़त और उनकी वापसी की तरकीब सोचेगी न कि उसका बदला उन लाखों लोगों पर हमला करके लेगी जिनके नाम पर हमास ने हिंसा की है।

अगर फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ इज़राइल की हिंसा का जवाब इज़राइल के लोगों पर हमला नहीं है, जो हमास ने किया तो फिर उसके हमले का जवाब ग़ज़ा के लोगों का जनसंहार करके करना  क्यों उचित है? इस नाम पर कि हम इन लाखों लोगों में छिपे हमास को खोज रहे हैं? कि ये हमारे और हमास के बीच आ रहे हैं?


जो मुल्क हमास की हिंसा का विरोध करते हैं और इज़राइल की नस्लकुशी के लिए तर्क खोजते हैं, उनके नैतिक खोखलेपन के बारे में कुछ भी कहना व्यर्थ है। भारत ऐसे ही मुल्कों में शामिल हो गया है। भारत की सरकार की ख़ामोशी ग़ज़ा और पश्चिमी तट में चल रही इज़राइली नस्लकुशी की हिमायत ही मानी जाएगी। यह बात भारतीयों के लिए तकलीफ़ और शर्म की है क्योंकि हम आर्थिक रूप से कमजोर होने के बाद भी उन पहले मुल्कों में थे जिन्होंने दक्षिण अफ़्रीका के नस्लभेद का विरोध किया, जिसने फ़िलिस्तीनियों के अपने मुल्क के हक़ का समर्थन  किया। आज हम अपनी वह नैतिक आवाज़ खो बैठे हैं।