सुखद आश्चर्य हुआ कि भारत के बहुसंख्यक जन अभी भी मानते हैं कि उनका देश सारे धर्मों के लोगों का देश है।‘लोकनीति’ के नए देशव्यापी सर्वेक्षण में 79% लोगों ने कहा देश सबका है, सिर्फ़ 11% ने कहा कि यह मात्र हिंदुओं का देश है। चारों तरफ़ से रोज़ रोज़ जो खबर आती है, उससे मालूम होता है कि अलग-अलग विश्वासों के लोगों के साथ-साथ रहने का विचार इस देश में कब का तर्क कर दिया गया है। लेकिन यह सर्वेक्षण तो कुछ और कहता है। फिर इसकी व्याख्या कैसे करें?
कुछ वक्त पहले प्रकाशित प्यू सर्वेक्षण की रिपोर्ट में भी इस विषय पर कुछ मिलता जुलता निष्कर्ष था। उस सर्वेक्षण में भी बहुमत ने कहा कि सभी धर्मों का सम्मान भारतीयता के मूल में है। इसलिए अगर ‘लोकनीति’ का सर्वेक्षण यही बात कहता है तो कुछ नया नहीं है। फिर भी अगर सर्वेक्षण का यह नतीजा खबर बन गया तो उसकी कुछ तो वजह होगी। चारों तरफ़ से रोज़ रोज़ जो खबर आती है, उससे मालूम होता है कि अलग-अलग विश्वासों के लोगों के साथ साथ रहने का विचार इस देश में कब का तर्क कर दिया गया है। लेकिन यह सर्वेक्षण तो कुछ और कहता है। फिर इसकी व्याख्या कैसे करें?
मेरे एक मित्र ने कहा कि यह कुछ वैसा ही है जैसे हम सारे लोग ‘दहेज प्रथा अभिशाप है’ विषय पर लेख लिखते हैं लेकिन दहेज लेना इस देश में कम नहीं हुआ है। वह अब इतनी खामोशी से लिया जाता है कि किसी को खबर नहीं होती। वैसे ही हम कह तो यह रहे हैं कि देश सभी धर्मों के लोगों का है लेकिन व्यवहार में हो कुछ और रहा है। यह कथनी और करनी का फ़र्क है।
सर्वेक्षण ने अवश्य ही ध्यान रखा होगा कि उसमें भाग लेने वाले अलग-अलग धर्मों के हों। उसमें हिंदुओं का अधिक होना स्वाभाविक है। इस वजह से यह जानकर तसल्ली होती है कि सद्भावना और सहजीवन का विचार आज भी प्रभावी है। देश सबका है, यह धर्मनिरपेक्षता का ही विचार है। उस विचार से भारत की जनता आज भी सहमत है।
अगर लोग मानते हैं कि देश सभी धर्मों, विश्वासों के लोगों का है तो इसका अर्थ यह है कि वे यह भी मानते हैं कि देश पर सबका बराबरी का अधिकार है। यह भी कि सबके साथ उनकी विशेष स्थिति के सम्मान के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। यही नहीं, हर तरह के लोगों को एक जैसा इत्मीनान महसूस होना चाहिए। यह इत्मीनान कैसे महसूस होगा? देश या राष्ट्र तो एक भावनात्मक इकाई ही है। व्यवहार में राज्य की शक्ल में हम उससे दो चार होते हैं।राज्य का मतलब है विधायी निकाय, जैसे संसद या विधान सभाएँ जिनके सदस्य यह तय करते हैं कि देश कैसे चलेगा या रहेगा।या क़ानून जो वे बनाते हैं जो हमारे जीवन के विभिन्न पक्षों को संचालित और नियंत्रित करते हैं। या राजकीय नीतियाँ जो सार्वजनिक संसाधनों का बँटवारा समुदायों और व्यक्तियों के बीच करती हैं। इसके साथ ही प्रशासन का सबके प्रति समान व्यवहार। उसमें भी पुलिस का सबके साथ समान बर्ताव। और सबसे बढ़कर अदालतें जो इंसाफ़ करती हैं। बराबरी की भावना इस अहसास से पैदा होती है कि सबको इंसाफ़ मिलने का पूरा यक़ीन हो।
समाज लेकिन सिर्फ़ राज्य नहीं है।अपने जीवन का बड़ा हिस्सा हम राज्य से अपेक्षाकृत स्वतंत्र रूप में भी जीते हैं।हमारा कहीं रहने का, पहनने-ओढ़ने, खाने पीने का, मित्रता या प्रेम का निर्णय, धार्मिक या सांस्कृतिक गतिविधियों का निर्वाह, इन सबमें हम मात्र स्वतंत्रता नहीं चाहते बल्कि एक दूसरे से स्वीकृति और सहयोग भी चाहते हैं। यह आसान नहीं है। एक समुदाय को दूसरे समुदाय का जीने का तरीक़ा कई बार अजीब लग सकता है। उसके साथ तालमेल बैठाने में दिक़्क़त पेश आ सकती है। कुछ अवसरों पर वितृष्णा भी हो सकती है।फिर भी हम उसे सिर्फ़ बर्दाश्त नहीं करते बल्कि उसे जानने की कोशिश करते हैं। अजनबीयत को ख़त्म करने के लिए दूसरे के प्रति उत्सुकता आवश्यक है। फिर भी हम जानते हैं कि हमारे सारे पूर्वग्रह हमेशा के लिए ख़त्म नहीं होते और व्यक्ति हो या समुदाय, उसे पूरी तरह कभी जाना या समझा नहीं जा सकता। इस अधूरेपन के अहसास के साथ दूसरे के लिए जगह बनाकर ही सद्भावपूर्ण समाज बनाया जा सकता है। यानी एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता ही नहीं स्वागत का भाव जिससे सामाजिक जीवन में इत्मीनान बना रहे। यह रोज़मर्रा केजीवन से लेकर विशेष अवसरों तक पर लागू होता है।
क्या यह भारत का स्वभाव है? भारत के लोग अपने स्वभाव को इस कसौटी पर कसें तो कितने खरे उतरेंगे?
सर्वेक्षण 18वीं लोक सभा के लिए चुनाव के समय प्रकाशित हुआ है। तो समाज के स्वभाव का पता चुनाव में उसके निर्णय से भी होगा। उसके राज्य संबंधी जीवन को निर्धारित करने वाले उसके प्रतिनिधियों के आचरण से भी कुछ अनुमान हो सकता है कि वे सर्वेक्षण के नतीजे में कितना यक़ीन करते हैं।
चुनाव संबंधी सारे सर्वेक्षणों से मालूम होता है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता और भारत के प्रधानमंत्री सबसे लोकप्रिय नेता हैं। यानी इस समाज का प्रतिनिधि स्वर। इस चुनाव में ही अगर उनके भाषणों को सरसरी तौर पर पढ़ा जाए तो साफ़ है कि सर्वेक्षण के विचार से वे ठीक विपरीत विचार रखते हैं। उनके भाषण बार-बार, प्रायः कूटभाषा में और कई बार खुलेआम, हिंदुओं को ही संबोधित करते हैं और वह भी उनमें मुसलमानों को एक ‘विपरीत अन्य’ दिखलाते हुए। यानी हिंदू अकेला नहीं, मुसलमान के बरक्स हिंदू। यह सिर्फ़ वे ही नहीं करते। भाजपा के ज़्यादातर नेता मौक़ा निकालकर ‘मुसलमान के बरक्स हिंदू’ को ही लुभाने, उकसाने वाले भाषण देते हैं। कुछ इस मामले में अपने प्रमुख नेता से प्रतियोगिता करते हैं, मसलन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री या असम के मुख्यमंत्री।
चुनावी भाषण नेता देते हैं जनता को अपनी तरफ़ खींचने के लिए। वे अपनी जनता का निर्माण चुनाव प्रचार के बीच करते हैं। अगर देश सबका है तो सारे नेता समाज के हर धर्म, संस्कृति के लोगों को अपनी जनता में शामिल करना चाहेंगे। भाजपा के नेताओं के भाषणों, उनकी प्रचार सामग्री में क्या मुसलमानों, ईसाइयों को आकर्षित करने की कोशिश कहीं दीखती है? क्या वे उनकी सभाओं में भी सुरक्षित महसूस करते हैं? क्या वे उन्हें दावत देती मालूम पड़ती हैं?
उन सभाओं में जाने वाले हिंदुओं को क्या कभी इन समुदायों की अनुपस्थिति या उनकी अस्वस्ति विचारणीय भी लगती है?
चुनावी सभाओं को छोड़ दें। राजनीति से स्वतंत्र जीवन की तरफ़ आएँ। इस बार ईद चैत्र नवरात्रि के बीच पड़ी। एक हिंदू मित्र ने लिखा कि वे जब मछली, गोश्त ख़रीदने निकले तो सारी दुकानें बंद मिलीं। वहाँ लोगों ने कहा कि 9 दिन तक मांस, मछली की बिक्री बंद है। उन्होंने कुछ हैरानी, कुछ नाराज़गी में पूछा कि भला मुसलमान ईद के दिन गोश्त कहाँ से लाए? जवाब मिला कि यह उनकी बदक़िस्मती है कि ईद नवरात्रि के बीच पड़ी।उन्हें बिना गोश्त के ईद मनानी होगी।
यह बात सिर्फ़ दिल्ली नहीं, भारत के बड़े हिस्से के लिए सच है। फिर सर्वेक्षण के नतीजे से इसका क्या मेल है? या तर्क दिया जाएगा कि यह कोई बड़ी बात नहीं? कि भारत है तो सबका देश लेकिन ख़ास तरह के हिंदुओं की मर्ज़ी से बाक़ी लोगों को अपना खानपान, पहरावा, धार्मिक कृत्य तय करना पड़ेगा? फिर वह किस हिसाब से सबका देश है?
हमने क़ानून, राजकीय नीतियों या प्रशासन या अदालत के रुख़ की बात नहीं की है। पिछले 10 सालों में मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति उनका भेदभाव बढ़ता गया है। यह मात्र भेदभाव नहीं है, सक्रिय हिंसा भी है। हिंसा के शिकार मुसलमान और ईसाई हैं। क़ानूनों, राजकीय नीतियों , प्रशासन और पुलिस के व्यवहार और अदालतों के रुख़ ने इस हिंसा को और बढ़ावा दिया है। इसके उदाहरण देने की ज़रूरत नहीं।
फिर सर्वेक्षण के नतीजे और इस यथार्थ के बीच के अंतर को कैसे समझें? क्या सर्वेक्षण यह बतलाता है कि अभी भी हमारे लिए आदर्श एक धर्मनिरपेक्ष देश है? तो उस आदर्श को यथार्थ बनाने के लिए आज के यथार्थ को बदलना होगा।उसका सबसे कारगर तरीक़ा चुनाव है। उसमें हम क्या फ़ैसला करते हैं, उससे तय होगा कि हम इच्छित आत्मछवि को असलियत बनाना चाहते हैं या नहीं।
(अपूर्वानंद देश के जाने-माने चिन्तक और लेखक हैं। वो दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते भी हैं)