बीसवें साल की शुरुआत। 2002 से 2021। बीस साल बहुत होते हैं। एक पूरी पीढ़ी जवान हो जाती है, एक अधेड़ हो जाती है और एक ढल जाती है। एक व्यक्ति के जीवन के लिए यह अवधि कम नहीं है। राष्ट्र के लिए शायद यह सागर में बूँद की तरह है। इसलिए कुछ लोग ऐतिहासिक और दार्शनिक रुख लेकर कहते हैं कि इतनी छोटी अवधि के आधार पर किसी समाज के बारे में कोई समझ नहीं बनानी चाहिए, कोई निर्णय नहीं करना चाहिए। वे एक तरह से ठीक कहते हैं। लेकिन एक व्यक्ति का जीवन इस बीच पूरी तरह बदल गया होता है। लेकिन भारत के संदर्भ में कहा जा सकता है कि 2002 को उसकी ढलान पर फिसलन शुरू हुई, वह अब इतनी तेज़ हो गई है कि वह खाई में गिर चुका है या उससे बच सकता है, यही अब तय करना बाक़ी रह गया है।
2002 की संख्या भारत के लिए वैसे ही महत्त्वपूर्ण है जैसे 1992 की। एक हिस्सा इसे गोधरा काण्ड के साल के तौर पर याद करता है। यह आधा सच है और पूरी कहानी नहीं कहता। 27 फ़रवरी, 2001 की सुबह गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन से निकलते ही सिग्नल के पास साबरमती एक्सप्रेस के एक डब्बे में आग लगती है। 59 लोग मारे जाते हैं। वे सब हिंदू हैं और उनमें से प्रायः सभी अयोध्या से लौट रहे हैं। ट्रेन अयोध्या से आ रही है। ये मामूली यात्री नहीं हैं। यह ख़बर नहीं छपती कि साबरमती एक्सप्रेस के कोच नंबर 6 में आग लगने से यात्री जलकर मारे गए। ख़बर यह छपती है कि साबरमती एक्सप्रेस में मुसलमानों ने आग लगा दी और 59 कार सेवकों को जलाकर मार डाला।
क़ायदे से इस कोच को फोरेंसिक जाँच के लिए सुरक्षित किया जाना चाहिए था और इसमें किसी भी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश नहीं होना चाहिए था। लेकिन राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री सदलबल पूरे कोच का चक्कर लगाते हैं। साथ ही बिना किसी जाँच के वह बयान जारी करते हैं कि यह पूर्व नियोजित साज़िश थी। इसे एक सुनियोजित हत्याकांड ठहरा दिया जाता है जबकि अभी इसकी कोई पड़ताल शुरू नहीं हुई है।
जले हुए शवों को गोधरा से 100 किलोमीटर दूर अहमदाबाद ले ही नहीं जाया जाता बल्कि उन्हें विश्व हिंदू परिषद को सौंप दिया जाता है। वह इनका लंबा जुलूस निकालता है। 28 फ़रवरी से गुजरात भर में मुसलमानों पर हमले शुरू हो जाते हैं। कहा जाता है कि गोधरा में क्रूरतापूर्वक कार सेवकों की हत्या से हिंदू जनता के स्वतःस्फूर्त क्रोध का यह नतीजा था। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इसे क्रिया की प्रतिक्रिया ठहराया।
किसी ने न पूछा और अगर किसी ने पूछा भी तो वह सुना नहीं गया कि क्रिया दरअसल थी क्या! इस निष्कर्ष पर मुख्यमंत्री और सरकार पहले ही कैसे पहुँच गई कि ट्रेन में बाहर से मुसलमानों ने आग लगाई होगी! कोई भी ज़िम्मेदार सरकार सबसे अपील करती कि इस घटना की जाँच होने तक जल्दबाज़ी में किसी को ज़िम्मेदार न ठहराया जाए। साथ ही वह जले हुए शवों के साथ राजधानी में जुलूस की अनुमति न देती।
गुजरात की सरकार ने ठीक इसके उलट काम किया। कई वर्ष बाद ओडिशा के कंधमाल में लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद उनके शव के साथ भी विश्व हिंदू परिषद् ने कई किलोमीटर लंबी यात्रा निकाली जो कई गाँवों से होती हुई गुजरी। यात्रा के पूरे रास्ते में ईसाइयों के ख़िलाफ़ हिंसा की गई।
यह स्वतःस्फूर्त न था। उसी तरह 28 फ़रवरी को उस अहमदाबाद में इन शवों के साथ जुलूस निकालने की अनुमति देकर सरकार ने हिंसा की अनुमति दे दी।
साथ ही विश्व हिंदू परिषद ने गुजरात बंद का आह्वान किया। चुन-चुनकर मुसलमानों पर हमले किए गए और उनके घरों, दुकानों और अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठानों को बर्बाद कर दिया गया।
क्या यह सब कुछ प्रतिक्रिया थी या सब कुछ सुनियोजित था? विश्व हिन्दू परिषद् के गुजरात के अध्यक्ष, 96 साल के केशवराम काशीराम (केका) शास्त्री ने इस हिंसा को जायज़ ठहराया: ‘करना ही था, करना ही था।’ जिन्होंने हिंसा की वे हमारे भले बच्चे थे। हमें भले ही यह पसंद न हो, लेकिन वे आख़िर हमारे बच्चे हैं। हम उनके ख़िलाफ़ कैसे जा सकते हैं। कुछ तो किया ही जाना था।
केका शास्त्री के मुताबिक़ गोधरा की ट्रेन में कार सेवकों को जैसे मारा गया था उससे हिन्दुओं में क्रोध था और वह कहीं तो फूटना था। कुछ ज़्यादा हो गया लेकिन यह तो किया ही जाना था।
लेकिन यह स्वतःस्फूर्त न था यह इससे मालूम होता है कि हमलावरों के पास मुसलमानों के घरों, दुकानों, आदि की पूरी सूची पहले से थी और उनकी निशानदेही कर ली गई थी। हिंसा में जो हथियार इस्तेमाल किए गए वे पहले से इकट्ठा किए गए थे। जलाने के लिए पेट्रोल का इंतज़ाम भी पहले से किया गया था। यह क़तई ख़ुद बी ख़ुद भड़क गया ग़ुस्सा और हिंसा न थी।
यह सब कई बार कहा जा चुका है लेकिन इसे दोहराने की ज़रूरत है। 2000 से ज़्यादा मुसलमान मारे गए। सरकार ने न सिर्फ़ हिंसा रोकने की कोशिश न की बल्कि हिंसा के शिकार मुसलमानों को कोई मदद का हाथ भी उसने नहीं बढ़ाया। सामाजिक संगठनों और मुसलमान संगठनों ने राहत का इंतज़ाम किया और शिविर लगाए।
मुख्यमंत्री ने इन शिविरों के ख़िलाफ़ भी घृणा का प्रचार किया। इन्हें आतंकवादी पैदा करने वाली फैक्ट्री बताया गया और पूछा गया कि क्या ऐसे कारखाने के लिए सरकारी पैसा दिया जाना चाहिए! इन शिविरों के संचालकों को धमकियाँ दी गईं और उनपर दबाव इतना बढ़ाया गया कि शिविर बंद करने पड़े।
इस हिंसा की बात करनेवालों को हिंदू विरोधी और गुजरात विरोधी ठहराया गया। मुख्यमंत्री ने हिंदू जनता को कहा कि जो लोग इस हिंसा की बात कर रहे हैं, वे गुजरात को बदनाम करने की साज़िश कर रहे हैं। बड़ोदा के प्रोफ़ेसर बंदूक़वाला को सीधे मुख्यमंत्री ने धमकी दी। मेधा पाटकर पर साबरमती आश्रम में हमला किया गया।
हज़ारों मुसलमान विस्थापित हो गए। उनमें से ज़्यादातर हमेशा के लिए। मुसलमान नामों से जुड़े ऐतिहासिक स्मारकों को नष्ट-भ्रष्ट किया गया। समाज में पहले जो दरार थी अब वह खाई में बदल गई। 2002 की हिंसा ने गुजरात में विभाजन मुकम्मल कर दिया।
इस हिंसा ने हम जैसे बहुत से ग़ैर गुजरातियों का परिचय गुजरात से करवाया। गुजरात में जो हो रहा था, वह हमारे राज्यों में नहीं हो सकता, इस खुशफहमी में भी हम काफ़ी वक़्त तक रहे। लेकिन वहाँ जो मुसलमानों के साथ किया गया वह एक मॉडल बन गया।
इन 19 सालों में गुजरात ने जो दिशा पकड़ ली है, उससे क्या वह पीछे मुड़ पाएगा? 2002 में जो सामाजिक संगठन सक्रिय थे अब उनमें से प्रायः सब खामोश कर दिए गए हैं। इन 19 वर्षों में गुजरात की सामाजिक भाषा से सद्भाव ग़ायब हो चुका है। वह सिर्फ़ विभाजित समाज नहीं है, आत्म विस्मृत भी है। उसे उसके खोए हुए आत्म की याद दिलाने पर क्रोध आ जाता है। आत्मलोप और अहंकार का विषैला मेल गुजरात को नष्ट कर रहा है। लेकिन उसे उसकी परवाह नहीं है।
ऊपर से गुजरात सामान्य है। लेकिन उसके विश्वविद्यालय, शिक्षा संस्थान टूट-फूट चुके हैं। उसमें संस्कृति बहुत दीखेगी लेकिन सभ्यता के लिए अनिवार्य साझा जीवन की इच्छा वहाँ अपराध है। स्वतन्त्र मेधा और साहस ऐसे गुण नहीं हैं जिनका अभ्यास समाज को जीने के लिए ज़रूरी लगता हो। 19 साल पहले जो हिंसा गुजरात की सड़कों पर हुई थी, वह अब अंदर पैठ गई है। हिंसा और घृणा की इन जम गई परतों को काटने के लिए सांस्कृतिक, बौद्धिक और राजनीतिक श्रम की आवश्यकता है। गुजरात को इंसानियत का पानी चाहिए। लेकिन क्या सिर्फ़ उसी को?