जो दूसरों के प्रति सहानुभूति नहीं रख सकता, वो अन्याय को पहचान नहीं सकता 

09:22 am Jul 10, 2023 | अपूर्वानंद

“यह देश विद्रोही वीरों का दीवाना है, विरोध  का नहीं।”

फ़्रांस में एक किशोर  के पुलिस के हाथों मारे जाने के बाद जो व्यापक क्षोभ उमड़ पड़ा और जिसने हिंसक रूप भी ले लिया, उस पर भारत में जो प्रतिक्रिया हुई, उसे देखते हुए रघुवीर सहाय की यह पंक्ति याद आ गई। अंग्रेजी के कुछ मीडिया के मंचों को छोड़ दें तो हिंदी में इस पर सहानुभूतिपूर्ण चर्चा न के बराबर हुई। सोशल मीडिया पर तो फ़्रांस में विक्षोभ प्रदर्शन के ख़िलाफ़ टिप्पणियों की बाढ़ आ गई। कई लोग अफ़सोस करने लगे कि फ़्रांस के पास उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जैसा प्रधान नहीं वरना इन प्रदर्शनकारियों के घरों पर अब तक बुलडोज़र चल गया होता और इन्हें सबक़ सिखला दिया गया होता। इससे भारत के सामाजिक स्वभाव के बारे में कुछ सूचना मिलती है।  

एक अश्वेत अल्जीरियाई मूल के किशोर नाहेल एम की पुलिस के द्वारा हत्या के बाद फ़्रांस में जगह जगह क्रोध में लोग सड़कों पर निकल आए। उन्होंने सरकारी इमारतों, गाड़ियों, पुलिस थानों, दुकानों पर हमला किया और उनमें आग लगा दी। कोई 23000 आगज़नी की वारदातों की खबर है जिनमें 12000 गाड़ियाँ जला दी गईं, 2000 से ज़्यादा  इमारतें निशाना बनाई गईं और पुलिस से कई जगह प्रदर्शनकारियों की मुठभेड़ हुई। तक़रीबन 4000प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया गया है।

फ़्रांस में भी इस विरोध प्रदर्शन के लिए आप्रवासियों, विदेशियों को ज़िम्मेवार ठहरानेवालों की संख्या अच्छी ख़ासी है। हालाँकि अब सरकार ने भी साफ़ कर दिया है कि विरोध प्रदर्शन में गिरफ़्तार 4000 लोगों में सिर्फ़ 40 विदेशी हैं। ध्यान रहे सरकार ने यह स्पष्टीकरण इस दुष्प्रचार के बाद दिया है कि ये प्रदर्शन विषयों के द्वारा भड़काए गए हैं। सरकार यह भी कह सकती थी कि जिन्होंने विरोध किया वे फ़्रांस विरोधी हैं। ऐसा उसने नहीं किया है। 

धुर दक्षिणपंथी दलों ने इस हिंसक विरोध को फ़्रांस की उदारता का परिणाम बतलाया है। उसने इन सारे लोगों को आने और बसने दिया, उसी का तो यह नतीजा है। लेकिन फ़्रांस में ऐसे लोग और राजनीतिक दल भी हैं जो इस व्यापक विक्षोभ के कारण को समझने की कोशिश कर रहे हैं।वे हिंसा, आगज़नी का समर्थन नहीं कर रहे लेकिन कह रहे हैं कि इस विरोध का कारण है।जो मूल फ़्रांसीसी नहीं हैं उनके ख़िलाफ़ फ़्रांस की राजकीय संरचना में किसी प्रकार की कोई सहानुभूति नहीं रही है बल्कि उनके ख़िलाफ़ उसमें गहरा पूर्वग्रह है।यह पुलिस के द्वारा की गई कोई पहली हत्या नहीं। और उसका पता भी तब चला जब किसी ने इसका वीडियो प्रसारित किया। वरना उसके पहले पुलिस यह कह रही थी कि यह किशोर भाग रहा था और पुलिस को मजबूरी में गोली चलानी पड़ी।

फ़्रांस का बड़ा मीडिया भी उस किशोर को ज़िम्मेवार ठहरा रहा था। वह तो वीडियो से साफ़ हुआ कि पुलिस ने उसे रोककर गाड़ी के भीतर गोली मारी थी।वह निहत्था था और उसके पुलिस पर हमला करने का कोई सवाल ही नहीं था। वीडियो बन सका क्योंकि फ़्रांस वह क़ानून नहीं बना सका जिसके तहत पुलिस की किसी कार्रवाई को रिकॉर्ड करना अपराध होता। वह प्रयास विफल रहा जिसके कारण पुलिस की ज़्यादती या हिंसा का सबूत अभी हमारे पास है वरना इस ‘घटना’ के पुलिस के वर्णन को ही हमें स्वीकार करना पड़ता। इससे यह भी मालूम होता है कि झूठ बोलना और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ पूर्वग्रहग्रस्त होना सिर्फ़ भारत की पुलिस की बीमारी नहीं है।

फ़्रांस के राष्ट्रपति ने कहा कि पुलिस की इस हिंसक कार्रवाई को समझना कठिन है लेकिन लोग उन्हें बतला रहे हैं कि यह इतना भी मुश्किल नहीं है। यह अपवाद नहीं है और दशकों से अश्वेत,‘ग़ैर फ़्रांसीसी मूल’के फ़्रांसीसियोंके साथ यही बर्ताव राज्य करता आया है।  

फ़्रांस में अल्जीरियाई मूल या अफ़्रीकी और अरब मूल के लोगों के होने का कारण है।उसने सदियों तक इन मुल्कों को अपना उपनिवेश बनाकर उनके हर प्रकार के संसाधन का शोषण किया है। उस दौरान ही और उपनिवेशवाद खत्म होने के बाद इन देशों के लोग कई कारणों से फ़्रांस आए और फिर यहाँ बस गए।फ़्रांस ख़ुद उन्हें सस्ते मज़दूरों के तौर पर लाया। फ़्रांस की आर्थिक समृद्धि उनके बिना संभव नहीं थी। लेकिन उस समृद्धि का लाभ उन्हें नहीं मिला।वे फ़्रांसीसी नागरिक ज़रूर हैं लेकिन फ़्रांस में उनके मोहल्लों और ‘मूल’ फ़्रांसीसियों के मोहल्लों में फ़र्क  साफ़ देखा जा सकता है।नागरिक सुविधाएँ हो या दूसरी सुरक्षा, वह उनके हिस्से नहीं है। ज़ाहिर है उनमें हताशा और क्रोध होगा। संरचनागत भेदभाव के अलावा सुरक्षा एजेंसियों का रवैया भी अनेक प्रति शत्रुतापूर्ण रहा है।उनके शांतिपूर्ण विरोध को भी हमेशा हिंसक तरीक़े से कुचला गया है।

इस वक्त भी इसकी याद दिलाई गई है कि किस प्रकार फ़्रांस की पुलिस ने 1961 में अल्जीरियाई स्वाधीनता के लिए किए जा रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर गोली चलाई थी यहाँ तक कि प्रदर्शनकारियों में कई को नदी में डुबा दिया था। तब से यह सिलसिला जारी है।

फ़्रांसीसी उदारता के ढोंग और अहंकार में इस संरचनागत नस्लवाद को उसके सही नाम से पुकारा नहीं जाता। हर बार राजकीय हिंसा को अपवाद कहकर उसकी गंभीरता को कम किया जाता है।‘अल जज़ीरा’ में प्रोफ़ेसर क्रिस्टल फ़्लेमिंग ने ठीक ही लिखा है कि फ़्रांसीसी सांस्कृतिक अहंकार इस सच्चाई से मुँह चुराता रहा है और उसमें उदारपंथी और वामपंथी भी सहमत दिखलाई पड़ते  हैं।

यह दशकों का जमा हुआ ग़ुस्सा है जो नाहेल की हत्या के बाद फूट पड़ा। नाहेल की माँ ने भी हिंसक प्रदर्शन रोकने की अपील की है लेकिन सभी जानते हैं कि व्यवस्था के भीतर व्याप्त नस्लवाद को ख़त्म किए बिना इस हिंसा का कोई समाधान नहीं है। अगर एक आबादी को बराबरी का अहसास कभी न हो और वह लगातार नाइंसाफ़ी झेलती रहे तो उसका शांत बने रहना संभव नहीं।

यही बात अमेरिका में बीच बीच में अश्वेत क्रोध के फूट पड़ने के समय अमेरिकी ख़ुद को याद दिलाते हैं। फिर भी कहा आ सकता है कि यूरोप हो या अमेरिका इस क्रोध और विरोध को समझनेवालों की संख्या भी ख़ासी है। 

अन्याय के ख़िलाफ़ विरोध सबसे मानवीय और सबसे स्वाभाविक चीज़ है लेकिन भारतीय, ख़ासकर आजकल हिंदुत्ववादियों का एक तबका, ऐसी कोई भी अभिव्यक्ति देखकर हैरान हो उठता है। भारत में भी और बाहर भी। उनके लिए सरकारी या सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा पहले है, इंसाफ़ का सवाल बाद में। बल्कि वे किसी के भी विरोध का अधिकार ही समाप्त कर देना चाहते हैं। इसलिए उनका प्रिय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जैसा नेता होता है जो सरकार के किसी भी विरोध का जवाब बुलडोज़र से देने की धमकी देता है। अगर कोई सरकार का विरोध करे तो वह  बदला लेने की चेतावनी देता है। 

दिलचस्प और विडंबनापूर्ण बात यह है कि भारत के बाहर जाकर बस गए कुछ लोग भी बुलडोज़र के इस्तेमाल को जायज़ ठहराते हैं! अमेरिकी नागरिक होते हुए भी वे भारत माता का जय का नारा लगाने का अधिकार चाहते हैं लेकिन भारत में अल्पसंख्यकों को, जो भारत के नागरिक हैं, बराबरी का अधिकार देने के वे ख़िलाफ़ हैं।


सरकार का या राज्य का विरोध किया ही कैसे जा सकता है?मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की आलोचना कैसे की जा सकती है? अब यह हमारी अदालतें भी पूछने लगी हैं। मानो वे सब आलोचना के परे हों और सरकार का विरोध तो किया ही नहीं जा सकता। नागरिक का अधिकार वोट देने के बाद ख़त्म हो जाता है और उसके पास 5 साल तक सरकार को स्वीकार करने के अलावा कोई और चारा नहीं।अभी कर्नाटक के उच्च न्यायालय ने भी कहा कि सरकारी नीतियों की आलोचना करने के लिए छात्रों को नहीं उत्साहित करना चाहिए।

शायद इसका एक बड़ा कारण भारत की सामाजिक संरचना में व्याप्त जातिगत भेदभाव है जिसे प्राकृतिक और स्वाभाविक माना जाता है।जब भी इसके ख़िलाफ़ कोई विद्रोह होता है, मर्यादा भंग होने का ख़तरा सबको सताने लगता है।किसी को अपनी औक़ात से बाहर नहीं जाना चाहिए, हर किसी को अपनी जगह मालूम होनी चाहिए। इस मानसिकता ने भारत में विरोध को एक असाधारण बात बना दिया है। अभी मध्य प्रदेश में जिस आदिवासी के साथ एक शख्स ने हैवानी बर्ताव किया, वह ख़ुद ही उस बात को अब भूल जाने को कह रहा है। वे गाँव के पंडित हैं, ठीक है कि यह ‘गलती’ उनसे हो गई लेकिन अब इस बात को ख़त्म कर देना चाहिए! 

इसी कारण जब हाल में मुसलमानों ने नागरिकता के नए क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध ज़ाहिर किया तो हिंदुत्ववादियों की एक बड़ी आबादी उनके ख़िलाफ़ हो गई। वे सड़क कैसे जाम कर सकते हैं? यह वही आबादी है जो बाबाओं के सत्संग के चलते हफ़्तों तक रास्ते बंद करने और जाम होने पर पर चूँ नहीं करती। लेकिन जब किसान सड़क पर उतरे तो यह आबादी उनके ख़िलाफ़ हो गई। 2018 में जब दलितों ने विरोध प्रदर्शन किया तो विरोध की विरोधी इस आबादी ने पुलिस के साथ मिलकर उनका दमन किया। मज़दूर सड़क पर हो या छात्र, यह आबादी राज्य के साथ उनके ख़िलाफ़ होती है।ज़रूरी हो तो इन्हें सालों जेल में सड़ा दे या गोली ही क्यों न मार दे! ऐसे लोगों की संख्या अब बढ़ती जा रही है।

और यही वह आबादी है जो सुभाष बोस और भगत सिंह को पूजती है। गाँधी पर आरोप लगाती है कि उनकी वजह से इन्हें अपना हक़ नहीं मिला। इस आवाज़ से वह गाँधी की हत्या को भी उचित ठहराती है कि उन्होंने हिंदुओं का पौरुष छीन लिया। लेकिन यह ‘पौरुष’ आख़िर क्या है? वह  किसी अन्याय के खिलाफ़ कभी जाग्रत क्यों नहीं हो पाता?

जो दूसरों के साथ सहानुभूति नहीं रख सकता, वह अन्याय को पहचान नहीं सकता और न उसका विरोध कर सकता है। भगत सिंह, सुभाष बोस या अंबेडकर की फोटो ज़रूर टाँग सकता है।