जब संसद में सरकार का कोई मंत्री कहे कि ‘वन्दे मातरम’ न कहने वाले को भारत में रहने का हक़ नहीं है, तो उसे संसद में और बाहर जवाब देना ही पड़ेगा कि भारत में रहने की शर्त ‘वन्दे मातरम’ का जाप या नारा नहीं है। नहीं हो सकता। भारत में रहने के लिए आप मुझे ‘जन गण मन’ गाने को भी बाध्य नहीं कर सकते। आप मुझे किसी झंडे को सलाम करने को मजबूर नहीं कर सकते।
गाँधी का दिसंबर, 1947 की एक प्रार्थना सभा का वक्तव्य याद कर लें हम जिसमें वह कहते हैं कि आप मेरे सर बंदूक लगाकर मुझे गीता पढ़ने के लिए भी बाध्य नहीं कर सकते।
यह तो कहने की ज़रूरत भी नहीं कि आप मुझे ‘जयश्री राम’ या ‘भारत माता की जय’ बोलने का हुक़्म नहीं दे सकते। अगर आप ऐसा करते हैं तो आप अपराध कर रहे हैं। आप मेरी स्वायत्तता और मेरी गरिमा का अतिक्रमण कर रहे हैं। यह भारत के संविधान और क़ानून के मुताबिक़ जुर्म है। सज़ा मुझे नहीं आपको होनी चाहिए। लेकिन यह तभी होगा जब भारत का पुलिस और प्रशासन और न्याय तंत्र भारत के संविधान के मुताबिक़ काम करे। आज के भारत को देखते हुए इसकी पूरी गारंटी करना संभव नहीं है। अगर सबसे बड़ी अदालत सिनेमा घर में राष्ट्र गीत बजाने और सबको सावधान खड़े होने का हुक़्म दे सकती है तो प्रशासन और पुलिस पर शक लाज़िमी है।
यह ख़याल किसका है कि ‘वन्दे मातरम’ या ‘भारत माता की जय’ का उद्घोष भारत में रहने की शर्त या भारतीयता की जाँच की कसौटी है जिस व्यक्ति ने संसद में ‘वन्दे मातरम’ को भारतीयता के लिए अनिवार्य बताया, वह बजरंग दल का नेतृत्व उस वक़्त कर रहा था जब उसके सदस्यों ने ग्राहम स्टेंस और उनके बच्चों को जलाकर मार डाला था। ख़ुद उस व्यक्ति पर धार्मिक समुदायों के बीच घृणा फैलाने और हिंसा करने के लिए कई मुक़दमे हैं। जब ऐसा व्यक्ति ‘वन्दे मातरम’ की दुहाई देता है, तो उसके वही मायने नहीं रह जाते जो उस ‘वन्दे मातरम’ के हैं जब अंग्रेज़ों से लड़ते हुए फाँसी पर चढ़ते वक़्त शहीदों के होंठों पर रहता था, या अंग्रेज़ों की पुलिस की बेंत खाते हुए नौजवान चुनौती के तौर पर बोलते ही जाते थे।
अपने प्राणों को जोख़िम में डालकर ‘वन्दे मातरम’ बोलने से उसका जो अर्थ निकलता है, वही ठीक उसका उलटा अर्थ है उस ‘वन्दे मातरम’ का जो किसी पर हमला करते हुए चिल्लाया जाता है, या जब उसे किसी और के गले से ज़बरदस्ती खींच कर निकाला जाता है।
क्रांतिकारी या स्वतंत्रता आंदोलन के योद्धा जब तिरंगा फहराते थे और यह जानते हुए कि ऐसा करते हुए वे मारे भी जा सकते हैं या ‘वन्दे मातरम’ का नारा लगाते थे तो वे एक प्रकार से आत्म गौरव का उद्घोष कर रहे थे। अंग्रेज़ों ने भारतीय पहचान को कुचल देने में कसर न छोड़ी थी। वैसी स्थिति में वन्दे मातरम, भारत माता की जय, जय हिंद भारतीय आत्म गौरव की अभिव्यक्तियाँ थीं। वे भारतीय होने के साथ हिंदू मन की अभिव्यक्ति भी थीं। इसलिए महात्मा गाँधी को ‘अल्लाहो अकबर’ भी पसंद था क्योंकि इसमें मुसलमान आत्म गौरव व्यक्त होता था। हिंदुओं की तरह वे भी अंग्रेज़ों से उत्पीड़ित थे।
‘वन्दे मातरम’ के इतिहास की पड़ताल करते हुए सुदीप्तो कविराज ने दुर्खीम के हवाले से कहा है कि प्रत्येक समाज के पास ऐसी भाषा होनी चाहिए जिसमें वे अपना मूल्य पहचान सकें। किसी भी समाज के रहने के लिए सामूहिक आत्मगरिमा का एक उपकरण या साधन होना ही चाहिए।
‘वन्दे मातरम’ और आत्म गौरव
एक समय किसी समाज के लिए जो तरीक़ा अपनी गरिमा की अभिव्यक्ति के लिए कारगर था, वह बदले हुए वक़्त में वैसा ही हो ज़रूरी नहीं। कविराज के अनुसार आधुनिकता के कारण आई तब्दीलियों के कारण पहले आत्मगरिमा की स्वीकृत भाषा में विचलन होना ही चाहिए। यह इसलिए कि आधुनिक सामाजिक दुनिया में पहले वाली दुनिया से भिन्न प्रकार के सामाजिक और राजनीतिक सचाई होती है। यथार्थ में नए तत्वों के प्रवेश के कारण आत्म का स्वरूप भी बदलता है और इस वजह से उसकी अभिव्यक्ति को भी बदलना चाहिए।
‘वन्दे मातरम’ का नारा अगर किसी आत्म के गौरव का घोष था, तो वह कौन-सा आत्म था यह ज़ाहिर तौर पर निजी नहीं, एक सामाजिक आत्म रहा होगा। क्या वह सिर्फ़ अपने बारे में था या किसी के साथ उसका कोई संबंध था क्या वह आत्म किसी और आत्म की क़ीमत पर या उसके लोप या नाश की कामना के साथ रूप ग्रहण करता है
यह नारा जिस गीत का हिस्सा है, उसके इतिहास के बारे में काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर आर. सी. मजुमदार, सव्यसाची भट्टाचार्य, तनिका सरकार, सुदीप्तो कविराज, ए.जी. नूरानी और जूलियस लिपनर आदि ने इस पर गहन विचार किया है। ‘वन्दे मातरम’ नारा, वे दो छन्द जो राष्ट्र गीत के रूप में गाए जाते हैं, और पूरा गीत ही नहीं और वह उपन्यास जिसमें बंकिमचंद्र ने इस गीत का इस्तेमाल किया, सबको ही हमें ध्यान में रखना होगा।
‘आनंद मठ’ में मुसलमानों के प्रति घृणा
पहले स्वतंत्र रूप से प्रकाशित अपनी इस कविता या गीत को बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘आनंद मठ’ उपन्यास में जिस जगह रखा, उससे इसका अर्थ पूरी तरह बदल गया। ‘आनंद मठ’ उपन्यास मुसलमानों के प्रति घृणा से भरा हुआ है। वह एक हिंदू राष्ट्र की कल्पना करता है जो मुसलमानों के क्षय के बिना संभव नहीं। यह उपन्यास एक मुसलमान पढ़े तो वह उस नफ़रत से चोट खाए बिना नहीं रह सकता जो इसमें मुसलमानों के प्रति है। इस उपन्यास की स्मृति इस मुसलमान विरोधी घृणा की स्मृति भी है। उपन्यास में जो संतानें इस गीत को गाती हैं, वे जिस माँ की आराधना इस ग़ीत के साथ करती हैं वह शत्रुओं का संहार करनेवाली है। वे शत्रु और कोई नहीं मुसलमान हैं। बल्कि अंग्रेज़ मुसलमानों के प्रभुत्व से मुक्त करनेवाले उद्धारकों के रूप में चित्रित किए गए हैं। उपन्यास में कहा जाता है कि मुसलमान शासन की समाप्ति ही संतानों का लक्ष्य है। अंग्रेज़ों का शासन हिंदुओं के लिए शुभ है, वे उनके मित्र हैं इसलिए उनके विरुद्ध लड़ने की ज़रूरत नहीं है।
उपन्यास में ‘वन्दे मातरम’ का उद्घोष बार-बार मुसलमानों के नाश के आह्वान के साथ होता है। उनकी उपासना में घरों को ध्वस्त करके हिंदू आराधना गृह बनाने की कामना व्यक्त की जाती है। अगर उपन्यास पढ़ें तो साफ़ है कि आप इसे या इसके किसी अंश को स्वीकार करने की अपेक्षा मुसलमानों से नहीं कर सकते।
उपन्यास से निकलकर ‘वन्दे मातरम’ अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आंदोलन का एक नारा बन गया। लोगों ने ‘वन्दे मातरम’ के साथ लाठियाँ खायीं और अपनी जान भी दी। इस तरह इस नारे ने एक दूसरा अर्थ ग्रहण करना शुरू किया।
यह दिलचस्प है कि अपनी उदार मानववादी दृष्टि के बावजूद रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को संगीतबद्ध किया। शायद वे इस बदलते हुए अर्थ को ध्यान में रखकर ऐसा कर रहे थे। उसी वजह से कांग्रेस और गाँधी और नेहरू जैसे नेता भी इसे राष्ट्र की अभिव्यक्ति के रूप में कबूल करने को तैयार हो गए। लेकिन मुसलमानों से यह उम्मीद करना कि वे इस नारे के उस संदर्भ को भूल जाएँ जो ख़ुद लेखक ने पैदा किया, ज़्यादती थी, अन्याय था।
अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी का आंदोलन क्या भारत नामक उस भौगोलिक प्रदेश में, जिसकी हदबंदी अंग्रेज़ों ने की थी, रहनेवाली सारी आबादियों की आज़ादी की आकांक्षा का आन्दोलन बन पाया था उस दौरान इन आबादियों के बीच ख़ुद भी द्वंद्व चल रहा था। वह इस बात को लेकर था कि यह कौन-सा देश है जिसे आज़ाद किया जाना है, वह किसका देश है यह सवाल मुसलमानों ने ही नहीं किया, दलितों ने भी किया।
सबसे अधिक बलवती इच्छा भारत को इन सबका समन्वित राष्ट्र बनाने की थी। हम सब भूल नहीं सकते कि गाँधी, नेहरू, आदि एक स्तर पर हिंदू थे। इसलिए उन्हें ‘वन्दे मातरम’ में पहली नज़र में कुछ अपात्तिजनक न दिखलाई पड़ा तो ताज्जुब नहीं। वह जब आज़ादी के आन्दोलन के उनके मुसलमान साथियों ने इस तरफ़ उनका ध्यान खींचा तब उन्होंने इसपर सोचना शुरू किया। चूँकि वे एक सहकारी राष्ट्रवाद के हामी थे, उन्हें यह ऐतराज़ समझ में आया। इस उदारता के बावजूद उन्होंने एक तरह से मुसलमानों पर यह दबाव डाला कि वे इस नारे और गीत के पहले दो छंदों को ‘आनंद मठ’ उपन्यास के मुसलमान विरोध से मुक्त करके देखें और स्वीकार भी कर लें। हम कह सकते हैं कि उन्होंने अपने मुसलमान साथियों की चोट या अपमान की स्मृति की पूरी तरह साझेदारी न की। यह भी कह सकते हैं कि उन्होंने मुसलमानों को इसे भूल जाने को बाध्य किया। टैगोर द्वारा इसमें काव्यात्मक सौंदर्य देखना, उसे संगीतबद्ध करना और हमारे राष्ट्रीय नेताओं द्वारा इसे स्वीकार करना एक ऐसा प्रकरण है जिसपर हमें और बात करने की ज़रूरत है।
यही संविधान सभा की बहस के बारे में कहा जा सकता है। उस सभा पर जो हिंदू दबाव था, वह ‘जन गण मन’ के रहते हुए एक अतिरिक्त राष्ट्रगान के रूप में गीत के पहले दो छंदों को स्वीकार करने के निर्णय से समझ में आता है।
आख़िर यह समझौता मुसलमानों ने क्यों किया क्यों उन्होंने बहुसंख्यक भावना की कद्र करते हुए खामोशी बरती इसलिए कि उनके लिए ‘वन्दे मातरम’ को बाध्यकारी न बनाया गया। यह एक नाज़ुक समझौता था। अगर इसे हिंदुओं की ओर से तोड़ दिया जाता है तो फिर मुसलमान क्या उनकी ज़िद के आगे झुक जाएँ क्या इसके बाद भी उन्हें इस देश में बराबरी की भावना का अहसास बना रहेगा
तनिका सरकार ने आशंका व्यक्त की थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और उनके लोग ‘जन गण मन’ की जगह ‘वन्दे मातरम’ को ही राष्ट्र गीत बनाने का अभियान चला सकते हैं और सफल भी हो सकते हैं। क्या यही आशंका मुसलमानों के मन में न होगी
इस चुनाव प्रचार में बार-बार भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं ने दो नारों को साथ-साथ लगाया, ‘वन्दे मातरम’ और ‘जय श्री राम’। सिर्फ़ इसी एक कृत्य से ‘वन्दे मातरम’ का अर्थ स्पष्ट हो गया। ‘जय श्री राम’ की छाया में ‘वन्दे मातरम’ ने वह अर्थ भी खो दिया जो अंग्रेज़ों से संघर्ष करते हुए इसका धर्मनिरपेक्षीकरण करते हुए हासिल करने की कोशिश की गई थी। इसलिए अब मुसलमानों को मजबूर करना कि वे इसे कबूल कर लें, दरअसल उनपर हिंदू वर्चस्व स्थापित करने का लालच और हिंसा है।
यह बात भारत के हिंदुओं को समझनी चाहिए कि उन्हें जो बात अच्छी लगती है, मुमकिन है वह दूसरों को नागवार गुज़रती हो। उन्हें ख़ुद से यह सवाल ईमानदारी से करना चाहिए कि जिसे वे उचित और अच्छा कह रहे हैं, उसकी असली वजह क्या है क्या उससे उन्हें आंतरिक शांति मिलती है या उससे उन्हें यह सुख मिलता है कि वे किसी को नीचा दिखला रहे हैं किसी को अपमानित करनेवाला सुख क्या सभ्य व्यक्ति या सभ्य समाज का सुख है