द्रौपदी मुर्मू का एनडीए की उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति चुनाव में चुना जाना क्या सामाजिक न्याय की राजनीति की जीत है? पिछले तीन दशकों में अस्मिता आधारित जिस सामाजिक न्याय की राजनीति ने भारत की राजनीतिक भाषा को बदल दिया, क्या उसी ने भारतीय जनता पार्टी को बाध्य कर दिया कि वह एक आदिवासी महिला को भारत के सर्वोच्च पद के लिए चुने?
आख़िरकार भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा ही तो है और संघ पुरुषवादी ब्राह्मणवादी वर्चस्व का पोषक है, यह आम समझ हम जैसे लोगों की रही है। फिर उसने द्रौपदी मुर्मू को कैसे चुना? क्या अब संघ समावेशी और प्रगतिशील हो गया है?
या द्रौपदी मुर्मू की यह जीत सामाजिक न्याय की राजनीति की आख़िरी पराजय की घोषणा है? उसकी सारी संभावनाओं के चुक जाने का संकेत? क्या यह चुनाव सामाजिक न्याय की राजनीति के चक्र के पूरा घूम जाने की सूचना है?
एक समझ यह है कि भाजपा या संघ ने सामाजिक न्याय का जाप करनेवाली पार्टियों को उन्हीं के मैदान में पछाड़ दिया है।
इस क्षण सामाजिक न्याय की राजनीति की सीमाओं पर विचार करने की आवश्यकता अवश्य है। विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की घोषणा या भारतीय राजनीति में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं के प्रभावकारी होने की परिघटना से सामाजिक न्याय की राजनीति का अर्थ समझाने की कोशिश की जाती है। चुनावी भाषा में पिछड़े समुदायों, दलितों के राजनीतिक उभार से। और यह ठीक भी है। पिछली सदी के अस्सी में दशक में इस राजनीति ने सब कुछ उलट पलट कर दिया। वामपंथी दल भी, जो प्रगतिशील माने जाते थे, एक स्तर पर काफ़ी संरक्षणशील थे। उनके नेतृत्व में भी उसी क़िस्म के चेहरे थे जो उन दलों में दिखलाई पड़ते थे जिन्हें वामपंथी प्रतिक्रियावादी कहा करते थे और हैं।
संसदीय जनतंत्र का गौरव गान करते हुए इस सच्चाई से मुँह मोड़ना कठिन था कि सामाजिक रूप से पिछड़े और दलित लोगों का वोट देना भी आसान नहीं था। बाबू साहब लोग ही उनका वोट दे दिया करते थे। अगर वे मतदाता के रूप में स्वीकार किए गए तो भी उसी भूमिका तक सीमित रहने को वे मजबूर थे। वे नीति के विषय अवश्य थे, नीति निर्माता नहीं। सारे समाज के प्रतिनिधि के रूप में उनकी स्वीकृति लगभग असंभव थी।
यह भी कहा ही जा सकता है कि यदि संसद या विधानसभा की सीटों में आरक्षण न होता तो पिछड़े, दलित समुदायों के प्रतिनिधियों का इन सदनों में पहुँचना भी असंभव था। हम अभी प्रायः “हिंदी पट्टी” की बात कर रहे हैं।
सामाजिक न्याय की राजनीति सामाजिक न्याय की राजनीति ने इसे बदल दिया। लालू यादव और मुलायम सिंह के बिहार और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने की घटना एक प्रकार से क्रांति ही थी। इसे आसानी से स्वीकार नहीं किया गया। यह भी क्या संयोग है कि सामाजिक न्याय की राजनीति और हिंदुत्व की राजनीति का उभार एक ही समय हो रहा था?
ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की काट
“धर्मनिरपेक्ष” राजनीतिक दलों और राजनीति के पंडितों की समझ यह थी कि ब्राह्मणवादी हिंदुत्व का तोड़ सामाजिक न्याय की राजनीति ने खोज लिया है। पिछड़ों, दलितों के साथ मुसलमानों के गठबंधन से जो बहुमत निर्मित होगा, उसे अल्पमत ब्राह्मणवाद कैसे अपदस्थ कर सकता है?
सामाजिक न्याय की राजनीति अपनी इस अपराजेयता को लेकर इस कदर निश्चिंत थी कि उसने राजनीति को मात्र प्रतिनिधित्व के प्रश्न तक सीमित कर दिया। इस राजनीति के पास सामाजिक या राजनीतिक परिवर्तन का कोई कार्यक्रम या सपना नहीं था। यह एक नए सामाजिक समीकरण के निर्माण और उसके संतुलन को हासिल करने मात्र से संतुष्ट थी। न तो शिक्षा, न स्वास्थ्य, न अर्थव्यवस्था, किसी भी क्षेत्र के लिए इस राजनीति के पास कोई नई योजना न थी। यहाँ तक कि एक समय एक बाद इसने धर्मनिरपेक्षता में भी रुचि खो दी। इसीलिए तक़रीबन सारे सामाजिक न्याय के पैरोकार दलों ने भाजपा के साथ समझौता किया। तर्क यह था कि दलित या पिछड़ों को नेतृत्व के लिए भाजपा के साथ से सहायता मिलती है तो इसमें हर्ज ही क्या है।
दूसरे, यह राजनीति एक वर्चस्ववाद को तोड़ने के नाम पर आई थी तो इसका ज़िम्मा एक नई सार्वभौम भाषा के निर्माण का भी था जिसे समाज का हर तबका समझ सके और जिसमें एक दूसरे से संवाद कर सके। लेकिन अपने इस अहंकार में कि एक अमर सामाजिक चुनावी बहुमत हासिल कर लिया गया है, यह राजनीति अपने इस दायित्व को भूल गई कि अगर एक सामाजिक अनुबंध तोड़ा गया है तो नए सामाजिक अनुबंध को उससे आगे निकलना होगा और उसका प्रस्ताव इसी राजनीति को करना था। वह नहीं किया गया।
यह तो अब स्पष्ट है कि इन राजनीतिक दलों को ब्राह्मणवादी विचारधारा का मुक़ाबला करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। इनके आचरण से स्पष्ट था कि इन्होंने खुद को इस विचारधारा के नए वाहन के रूप में ही पेश किया।
परिवारों को ही मिला न्याय
कुछ दिनों के बाद यह भी साफ़ हो गया कि सामाजिक न्याय की राजनीति का लाभ एक सामाजिक समुदाय को और उसमें भी कुछ परिवारों को मिला है। इस राजनीति ने अन्य जातियों में भागीदारी की जो प्यास जगा दी थी, उसे भी भाजपा ने समझा। यह बात भी हमें मालूम है , इसे क़बूल करने में हम भले संकोच करें कि सारी पिछड़ी और दलित जातियों की महत्वाकांक्षा हिंदू पद प्राप्त करने की थी। वह प्रामाणिक रूप से कौन दिला सकता था?
कल्याण सिंह, उमा और शिवराज
ब्राह्मणवादी भाजपा को इसमें संकोच न हुआ कि वह उत्तर प्रदेश का नेतृत्व एक पिछड़े समुदाय के कल्याण सिंह को सुपुर्द कर दे। या उसी समुदाय की उमा भारती को मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री बनाने या आगे फिर शिवराज सिंह चौहान को उस पद पर चार बार बिठाने में भाजपा को कोई उलझन हुई हो, इसका सार्वजनिक प्रमाण नहीं है।
2013 में भाजपा ने दावा किया कि वह भारत को नरेंद्र मोदी के रूप में पहला अति पिछड़ा प्रधानमंत्री दे रही है।
अगर प्रतिनिधित्व ही एक मात्र आधार है, तो भाजपा और इन सामाजिक न्यायवादी दलों में अंतर ही क्या है? भाजपा और उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इसमें उज्र नहीं कि पिछड़े, अति पिछड़े, आदिवासी समुदाय के राजनीतिक नेतृत्व में उनके हिंदू राष्ट्र की परियोजना पूर्ण हो।
रामनाथ कोविंद का चयन
द्रौपदी मुर्मू के पहले एक दलित रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति के पद पर भाजपा ने ही बिठाया था। अब एक आदिवासी और महिला को राष्ट्रपति बनाकर भाजपा ने सामाजिक न्याय की राजनीति की सारी सीमाएँ उजागर कर दी हैं। द्रौपदी मुर्मू के चुनाव के बाद जिस प्रकार ब्राह्मणों के द्वारा उनका अभिषेक किया जा रहा था, उससे भी यह साफ़ है कि “उच्च” जातियों को इस राजनीतिक तिकड़म का आशय मालूम है। और उन्हें भी इस खेल में शामिल होने में मज़ा आ रहा है।
इन सारी बातों से अलग यह साफ़ है कि बाक़ी राजनीतिक दलों का जो हो, इस स्थिति के बने रहने से देश में मुसलमानों के लिए वजूद का ख़तरा पैदा हो गया है। जिस तरह हमारा राजनीतिक समुदाय बर्ताव कर रहा है उससे यही मालूम होता है कि उन्हें इसे लेकर कोई फ़िक्र नहीं है। और यही सबसे फ़िक्र की बात है।