'राम, राम!' सुबह की सैर में यूनिवर्सिटी रोड पर विश्वविद्यालय के मुख्य दफ़्तर के द्वार के पास एक कसरती बदन नौजवान के बगल से गुजरा तो उसने लगभग होठों में ही यह अभिवादन किया। अस्फुट लेकिन मेरे कानों ने उसे पकड़ लिया। 'राम, राम', मैंने उत्तर दिया। आगे रामजस कॉलेज के पास पहुँचा तो एक सफाईकर्मी महिला सामने से आती दीखी। चेहरे पर अकारण लेकिन कितनी स्वाभाविक मुस्कुराहट।
करीब आने पर उसने अपरिचय की परवाह किए बिना कहा, 'राम, राम!' 'राम, राम!' मैंने अपरिचय की दूरी को पाटने का प्रयास करते हुए जवाब दिया। बिना रफ़्तार कम किए।
सोचता हुआ आगे बढ़ा कि क्यों मुझे उन दोनों को धन्यवाद कहने का जी चाहा। क्यों यह अभिवादन मुझे कुछ अस्वाभाविक लगा? क्यों यह लगा कि यह किसी गुजरे ज़माने से होता हुआ मेरे कानों तक पहुँच रहा है? वह बीत गया वक़्त कौन सा था?
यह 3 दिसंबर की तारीख थी। 6 दिसंबर से कुछ दूर। क्यों मुझे 'राम, राम' सुनकर 6 दिसंबर की याद आई? 6 दिसंबर,1992 की? क्यों 6 दिसंबर,1992 के बाद की पीढ़ी के मुँह से यह अभिवादन आश्चर्यजनक लगा? इसका जवाब कुछ घंटों बाद गुड़गाँव से मिला।
गुड़गाँव में नमाज़
जुमे की नमाज़ के लिए आगे बढ़ते हुए इमाम साहब के सामने तेजी से दौड़ता एक नौजवान जा खड़ा हुआ। 'यहाँ नमाज़ नहीं होगी!' तमतमाते चेहरे से उसने इमाम साहब को धमकी दी। 'जय श्री राम!',उसके चारों तरफ इकठ्ठा हुए हिंदुओं ने जैसे उसकी धमकी का समर्थन किया। इमाम साहब ने नमाज़ पढ़ाई। नमाज़ियों के चारों तरफ 'जय श्री राम' की चिल्लाहट जारी रही।
शुक्रवार की यूनिवर्सिटी रोड की वह सुबह जैसे 6 दिसंबर, 1992 के पहले की कोई सुबह थी और उसकी दोपहर 6 दिसंबर, 1992 की कोई दोपहर।
अहम तारीख़ है 6 दिसंबर
6 दिसंबर भारत के इतिहास में 15 अगस्त जितनी महत्वपूर्ण तारीख है। 15 अगस्त, 1947 को अगर भारत के इतिहास का एक नया दौर शुरू हुआ जिसके चलते हम स्वतंत्रता पूर्व भारत और स्वातंत्र्योत्तर भारत जैसे पदों का का उपयोग करते हैं, भारतीय इतिहास की दो अवस्थाओं को एक दूसरे से अलग करने के लिए। वैसे ही यह कहा जा सकता है कि एक भारत 6 दिसंबर, 1992 के पहले का है और एक 6 दिसंबर,1992 के बाद का।
6 दिसंबर, 1992 अगर नहीं होता तो 2014 का होना संभव न था। लेकिन दोनों तारीखों का भारतवासियों के लिए क्या अर्थ है या वे उनके लिए किसकी प्रतीक हैं इससे मालूम होगा कि 6 दिसंबर के महत्व का स्वरूप क्या है। यह भी कि क्यों 6 दिसंबर हर उस भावना या विचार के नकार का प्रतीक है जिसका संबंध 15 अगस्त से है। 15 अगस्त को हम स्वतंत्रता, साहस, त्याग, पारदर्शिता, नई सहकारिता, उत्साह, अहिंसा जैसे भावों से जोड़ते हैं, वहीं 6 दिसंबर हिंसा, षड्यंत्र, चालाकी, कायरता, विभाजकारिता और घृणा जैसे भावों का प्रतीक है।
15 अगस्त हमारे भीतर की मानवीयता का एक प्रकाश था तो 6 दिसंबर उस सबका जो इस समाज के भीतर अशुभ है। 15 अगस्त की कल्पना का ध्वंस 6 दिसंबर को किया गया, यह कहा जा सकता है।
बाबरी मसजिद का ध्वंस
6 दिसंबर, 1992 को फैज़ाबाद या अयोध्या में 500 साल से खड़ी बाबरी मसजिद का दिन दहाड़े, खुलेआम ध्वंस किया गया। भारत की ताकतवर राज्य व्यवस्था जो किसी भी चुनौती का शमन करने के लिए पर्याप्त सक्षम है, हाथ पर हाथ धरे मसजिद को तोड़े, ढहाए जाते देखती रही। फैज़ाबाद का प्रशासन और पुलिस तंत्र, उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार, दिल्ली की संघीय सरकार, भारत का सर्वोच्च न्यायालय, सबके सब खामोशी से मसजिद की एक-एक ईंट गिराए जाते देखते रहे। लेकिन यह कहना भी गलत होगा।
कहना यह होगा कि उन सबने भले हाथ न लगाया हो मसजिद को गिराने में, लेकिन अपनी स्थिति, उस स्थिति की ताकत से उन हाथों को पूरा सहयोग और बल दिया जो मसजिद तोड़ रहे थे। इस सूची में हम हिंदी अख़बारों को क्यों न जोड़ें? और राजनीतिक दलों को भी?
6 दिसंबर पहाड़ से भूस्खलन की तरह अचानक भारत के सिर पर आ गिरी चट्टान न थी। उसे लुढ़कते हुए हम देख रहे थे। देख रहे थे कि कौन उसे लुढ़का रहा था। हमने उसे भारत पर आ गिरने दिया। यह सुनने में भले बुरा लगे, क्या हम सब यह सोच रहे थे कि यह पत्थर सिर्फ मुसलमानों को कुचलेगा, इसलिए हम किनारे खड़े देखते रहे? उससे बहुत उज्र न हुआ हमें?
भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तंत्र के संगठनों ने बाबरी मसजिद को गिराने का अभियान 90 के दशक में किया। इसका नेतृत्व लाल कृष्ण आडवाणी ने किया। यह भी याद कर लेना ठीक होगा कि बाबरी मसजिद को दशकों पहले इसी संघ के जुड़े लोगों ने विवादित बना देने में सफलता प्राप्त की थी। उसमें राम और अन्य देवी देवताओं की मूर्तियाँ चोरी-चोरी घुसाकर।
इस तरह वहाँ 'राम लला' प्रकट हुए जिनके अस्तित्व को अदालतों ने वैधानिक बना दिया। बाबरी मसजिद को विवादित बनाने में भी तत्कालीन प्रशासन और राजनीतिक तंत्र का समर्थन और सहयोग और समर्थन। यह अपराध था, मसजिद का अतिक्रमण था, यह बात भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 70 साल बाद कबूल की।
बंद होगी नमाज़?
किसी चीज़ को, व्यक्ति, समुदाय, वस्तु को विवादित बना देने के बाद उसपर हमला आसान हो जाता है। यह सालों बाद गुड़गाँव में होते हम देख रहे हैं। पहले जुमे की नमाज़ पर हमला करो, उसे विवादित बना दो, फिर और हमले करते रहो। जैसे बाबरी मसजिद गिरा दी गई, नमाज़ भी बंद करा दी जाएगी।
समाज के भले लोग विवाद से बचना चाहते हैं, इसलिए विवाद की जड़ ही न रहे तो रोज़-रोज़ की झिकझिक से आज़ादी मिले। बाबरी मसजिद के विवाद को सुलझाने का इससे अच्छा तरीका क्या था कि वही न रहे?
अभिवादन नहीं, धमकी
बाबरी मसजिद ध्वंस अभियान को रामजन्म भूमि अभियान का नाम दिया गया। यह छल, धोखा, चालाकी थी। करनेवाले जानते थे और उनका साथ देनेवाले भी। 'मंदिर वहीं बनाएँगे' की धमकी में भी यह साफ था। फिर भी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने आडवाणी को अपनी ध्वंस यात्रा निकालने दी। उस यात्रा में और उसके पहले शिला पूजन जैसे अभियान में जय श्री राम का जन्म हुआ। यह अभिवादन न था, धमकी थी।
'राम, राम' की सहजता को 'जय श्रीराम' की आक्रामकता ने कहीं ढक दिया। राम-राम जहाँ रिश्ता बनाने का बेतकल्लुफ न्योता था तो 'जय श्री राम' उस रिश्ते को चूर-चूर कर देनेवाला हथौड़ा।
'जय श्री राम' का क्या अर्थ है यह बाबरी मसजिद तोड़े जाते वक्त इस नारे की चिल्लाहट से आप समझ सकते हैं। बाबरी मसजिद जो 'जय श्री राम' के हमले में गिराई गई, उसके मलबे में कहीं 'राम-राम' दफन हो गया।
3 दिसंबर की उस सुबह जो राम-राम सुना, वह उसी मलबे से निकलकर जैसे मुझ तक पहुँचा। 6 दिसंबर, 1992 के पहले भी एक वक्त था, यह बतलाने को।