आसमान गंभीर हो उठा है। मेघाच्छादित आकाश जैसे थम-थम कर रहा हो अपने अंदर कुछ गहरी बात छिपाए हुए। और उमस बढ़ती जा रही है। देह जैसे खुद से आजिज़ आ गई हो। सब कुछ स्थिर है। सामने बेल का वृक्ष। और उसकी बिलकुल शिखर की फुनगियों तक चढ़ आई उसकी टहनियों से लिपटी हुई मालती की बेल। उसके उजले-गुलाबी रंगत लिए हुए फूलों के बुंदे। एक-एक पत्ता, पत्ती जैसे किसी की प्रतीक्षा में दम साधे हुए। हवा भी जैसे सगुन कर रही हो।
और वृष्टि। वह भी स्थिरभाव से। मानो जाने के लिए वह नहीं आई। कोई हड़बड़ी नहीं। एक-एक पत्ती भीग रही है। कोई चंचलता नहीं। किसी की एक दूसरे से प्रतियोगिता नहीं। हरेक को आश्वासन है कि बारिश उसे छुएगी ही नहीं, उसे पूरी तरह भिगोएगी। पोर-पोर हर पौधे का, हर वृक्ष का तृप्त होगा।
मुझे प्रकृति की यह स्थिरता विचलित करती है। मैं जैसे इस बारिश को, पेड़-पौधों को कहना चाहता हूँ "मैं नहीं भीग पा रहा। मेरे भीतर उमस बढ़ती रही है।" यह बरसात जिसे एक खबर की तरह मुझे हिलाना चाहिए था, एक कविता की तरह खिलाना चाहिए था, मुझे जैसे छू ही नहीं पाती। मेरी उद्विग्नता के शमन का वह उपाय नहीं। यह भी सच है कि उसे इसकी परवाह नहीं।
हिन्दुस्तान की रूह में घाव
मैं इस समय रस के इस धारासार को जैसे देख भी नहीं रहा। इसलिए कि एक और बारिश है।और वह मौसमी नहीं। वह लगातार, अनवरत, भारत के गाँवों, कस्बों, शहरों पर गिर रही है। घृणा की, मुसलमान विरोधी घृणा की बारिश। जैसे तेज़ाब बरस रहा है नफ़रत का और उसने मेरे, मेरे हिन्दुस्तान को छेद दिया है। उसकी रूह में घाव ही घाव बन गए हैं और अब उनसे पीव बह रहा है।
मुसलिम विरोधी नारेबाज़ी
मेरे कानों में वे नारे गूँज रहे हैं, जो मॉरिस नगर की इस कॉलोनी से कोई 10 किलोमीटर दूर लगाए जा रहे हैं। यह घिनौनी नफ़रत बरसात से प्रतियोगिता कर रही है। और जीत रही है।
हिंदुओं को एतराज नहीं?
मुसलमानों पर गोली चलाने वाला अपना नाम "रामभक्त गोपाल' रख लेता है।
घृणा से विकृत आनंद का परनाला जंतर-मंतर पर बह रहा है। उसकी दुर्गंध मेरे नथुनों में जैसे बस गई है। दस, बारह साल के बच्चे मुसलमानों की हत्या के, उनके संहार के इस खुले प्रशिक्षण-शिविर में दीक्षित हो रहे हैं। उनके बाप, चाचा, भाई इस यज्ञ में शामिल होने उनको साथ लाए हैं। यह भारत का वर्तमान और भविष्य है। यहाँ भी बारिश हो रही है।
उस बारिश से अछूते, अपनी मुसलमान विरोधी नफ़रत में ऊपर से नीचे तक सने हुए, एक विकृत हिंसक आनंद में उछल-उछलकर नारे लगाते हुए इन सबको देखता हूँ और अपने हिन्दुस्तान की शक्ल तलाशता हूँ।
दिल्ली पुलिस पर सवाल
पुलिस भी भीग रही है। वह निर्विकार भाव से इन नारों को सुन रही है। नारों को लगाते हुए इन मुसलमान विरोधी गुंडों को जमा होने दे रही है। दिल्ली की चुस्त पुलिस के बेचारे अधिकारी को खबर ही न थी कि इतने इकठ्ठा हो जाएँगे। वही पुलिस जो अभी कुछ दिन पहले अलका लांबा के घर पहुँचकर बैठ गई थी कि उसे खुफिया खबर मिल गई थी कि वे किसानों का साथ देने जंतर-मंतर जाने का इरादा रखती हैं। उससे दिल्ली का, देश का अमन टूट सकता था।
वही पुलिस जिसने दस से भी कम सांसदों को जंतर-मंतर पर किसानों तक पहुँचने से रोक दिया था। वही दिल्ली पुलिस जो बेंगलुरू जाकर दिशा रवि को गिरफ़्तार कर लाई थी क्योंकि उसके मुताबिक़ वह किसानों के लिए समर्थन जुटाने के नाम पर देश को बदनाम कर रही थी।
एलानिया प्रदर्शन
वही पुलिस कहती है कि हमें तो पता न था! हाँ! कुछ लोग बिना इजाजत के इकट्ठा हो गए थे। लेकिन इसका अंदाज न था कि तादाद इतनी हो जाएगी! अंदाज! अनुमान! खबर! अभी दो दिन पहले ही इस मुसलमान-विरोधी जमावड़े की घोषणा की गई थी। यह कोई चोरी-चोरी, लुक-छिप कर किया गया छापामार प्रदर्शन न था। बाकायदा, एलानिया!!
दिल्ली के द्वारका में हज हाउस के विरोध के नाम पर मुसलमान विरोधी अभियान कुछ दिनों से चल रहा था। वही मुसलमान विरोधी नफरत! उस घृणा के भाषण, दिन दहाड़े, किसी गुप्त मीटिंग में नहीं। पुलिस की कानों की पहुँच में।
पुलिस ही नहीं, राजनीतिक दलों की कानों की जद में भी। वे जिनके मतदाता मुसलमान हैं, उन्होंने भी ये नारे सुने। और दिल्ली पुलिस की तरह खामोश रहे।
एक समझ है जिसके ये साझीदार हैं, कि यह पवित्र घृणा है, राष्ट्रवादी घृणा है, स्वाभाविक घृणा है। हिंदुओं के मन में अपने 'अपमान' के खिलाफ सैकड़ों सालों से जमा होते गए क्रोध की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इसे हो जाने देना चाहिए। मुसलमानों को भी इसे समझना चाहिए। और विचलित नहीं होना चाहिए।
आखिर अब उन्हें मौक़ा मिला है। वे बेहिचक,खुले गले से अपनी शिकायत रख रहे हैं। समझदार लोग पूछते हैं कि क्या औरंगजेब ने मंदिर नहीं तुड़वाए? क्या बाबर ने भारत पर हमला नहीं किया?
वोटों की राजनीति
मुसलमान जिनके मतदाता हैं, वे राजनीतिक दल कहते हैं कि आखिर आपकी संख्या तो इतनी नहीं है न कि हम आपके बल पर जीत जाएँ! ये जो नारे लगा रहे हैं, जो आपको गाली दे रहे हैं, जो आप पर गोलियाँ चलाते हैं, जो आपकी दाढ़ी काट लेते हैं, ये भी तो हमारे मतदाता हैं! वास्तविक और संभावित! क्या हम इन्हें खुद से दूर धकेल दें?
क्या आप हमें इतना ही अहमक समझते हैं? वे भी मुसलमानों को समझने की सलाह देते हैं और खामोश रहने की। क्योंकि वे उनके हितू ठहरे! मुसलमानों को उत्तेजित न हो जाना चाहिए। यह एक उबाल है। ठंडा पड़ ही जाएगा। मुसलमानों को इंतजार करना चाहिए।
इंतजार ही कर रहे मुसलमान
मुसलमान इंतजार ही कर रहे हैं। सड़क पर, राह-बाट पर घेर कर मार दिए जाने के बाद, इंटरनेट पर शिक्षित, मुखर मुसलमान औरतों की नीलामी के घिनौनेपन की सार्वजनिकता के बाद, नौजवानों को दहशतगर्द ठहराकर बरसों-बरस जेल में सड़ा देने के सिलसिले के बाद, अपनी हत्या की तैयारी अपने सामने देखते रहने के बाद और उसके बीच वे इंतज़ार कर रहे हैं।
इसलाम में सब्र का सबक सिखलाया गया है। बुजुर्गवार उन्हें कह रहे हैं कि अल्लाह उनके सब्र का इम्तेहान ले रहा है। क्या उन्हें अधीर होकर इस इम्तेहान में फेल हो जाना चाहिए?
मुसलमान सब्र की मश्क कर रहे हैं। सदियों के सब्र का बाँध इस नफ़रत और हिंसा की बाढ़ ने तोड़ डाला है। और इस गटर का पानी, उसकी कीच हमारे घरों में घुस गई है। और हम आनंद में नृत्य कर रहे हैं।
मैं प्रकृति से क्षमा माँगता हूँ। मैं बारिश से क्षमा माँगता हूँ। मैं रघुवीर सहाय से क्षमा माँगता हूँ। मेरे मन में पानी के संस्मरणों को घृणा के संस्मरण विस्थापित करते जा रहे हैं।