6 दिसंबर: बाबरी मस्जिद के ध्वंस पर आत्मचिंतन करेगा समाज?

11:05 am Dec 05, 2022 | अपूर्वानंद

ये पंक्तियाँ 5 दिसंबर को पढ़ी जाएँगी। आज से ठीक 30 साल पहले, 5 अगस्त, 1992 को लखनऊ में अटल बिहारी वाजपेयी ने एक भाषण दिया। श्रोता वे ‘कार सेवक’ थे जिन्हें अगले दिन, यानी 6 दिसंबर को अयोध्या में होना था। वे सब बाबरी मस्जिद की जगह राम जन्म भूमि मंदिर के निर्माण के लिए कोई आधे दशक से चल रहे अभियान के तहत इकट्ठा किए गए थे। तब तक मालूम हो चुका था कि अयोध्या या फ़ैज़ाबाद में लाखों कार सेवक जमा हो चुके हैं।’ 

‘मंदिर वहीं बनाएँगे’ का नारा 80 के दशक में इतनी बार लगाया गया था कि भारत के हर हिंदू और मुसलमान को उसका अर्थ मालूम हो गया था। वहीं का मतलब था बाबरी मस्जिद। ‘वहीं’ मंदिर बन नहीं सकता था अगर मस्जिद वहाँ बनी रहे। यह कहना अधिक मुनासिब है कि यह मंदिर बनाने से पहले मस्जिद को ध्वस्त करने का अभियान था।

मामूली समझ के आदमी के लिए भी इसे ताड़ना कोई मुश्किल न था। लेकिन बुद्धिमान धर्मनिरपेक्ष नेताओं, कांग्रेस सरकार, सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ ऐसा दिखलाया कि जो सतह पर दीख रहा है, वही पूरा सच है। 

उदार छवि के मालिक, कवि माने जानेवाले लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिबद्ध स्वयंसेवक और भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने 5 दिसंबर की शाम को जो भाषण दिया उससे भी सरकार को चेत जाना चाहिए था। वाजपेयी का अंदाज़ चुहलबाज़ी का था।

लखनऊ के अमीनाबाद के झंडेवालान पार्क में इस भाषण में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, “वहाँ नुकीले पत्थर हैं। उनपर कोई बैठ नहीं सकता। ज़मीन को समतल करना पड़ेगा। उसे बैठने लायक़ बनाना पड़ेगा। कुछ निर्माण कार्य होगा क्योंकि वहाँ यज्ञ का प्रबंध करना है।” उपस्थित कार सेवकों को इस कूट भाषा का संदेश समझने में कोई दिक़्क़त न थी। इन वाक्यों पर तालियाँ बजती रहीं और नारे लगते रहे। 

अटल ने कहा कि उन्हें नहीं मालूम कि अगले दिन यानी 6 दिसंबर को अयोध्या में क्या होने वाला है। उन्हें किसी ज़रूरी काम से दिल्ली जाना पड़ रहा है। ‘अमर उजाला’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, जब अटल बोलने के लिए खड़े हुए तो उनके हाथ में एक पर्ची दी गई जिसे पढ़कर उनके चेहरे का भाव बदल गया। क्यों अटल को नहीं मालूम था कि क्या होगा जबकि उनकी पार्टी के नेताओं ने सबसे बड़ी अदालत में हलफ़नामा दिया था कि अयोध्या में सांकेतिक कार सेवा होगी। अटल की अनिश्चितता में स्पष्ट संकेत थे।

कार सेवक समझ रहे थे कि किसे समतल किया जाना है। जब अटल ने कहा कि उन्हें नहीं मालूम कि कल क्या होगा तभी साफ था कि सिर्फ वह नहीं होगा जिसका वचन सर्वोच्च न्यायालय के सामने दिया गया था। फिर तत्कालीन संघीय सरकार इसे क्यों नहीं सुनना चाहती थी?

सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह नहीं सोचा कि लाखों लोगों को इकट्ठा करके कार सेवा भर नहीं की जाएगी। इसके पहले का उदाहरण मौजूद था जिसमें मुलायम सिंह की सरकार को मस्जिद की सुरक्षा के लिए गोली चलवानी पड़ी थी। क्यों अदालत ने इसके बावजूद इसकी इजाजत दी? 

खैर! शेष सारे संकेतों की तरह ही इसे भी नज़रंदाज़ कर दिया गया। अगले दिन 6 दिसंबर को दिनदहाड़े, भारतीय जनता पार्टी और आर एस एस के बड़े नेताओं की मौजूदगी में बाहरी मस्जिद को ज़मींदोज़ कर दिया गया। 

फोटोग्राफर प्रवीण जैन को इसका आभास था क्योंकि मस्जिद को गिराए जाने के पूर्वाभ्यास की तस्वीरें उनके पास थीं। फिर भी प्रशासन जानबूझकर कर अनजान बना रहा। मस्जिद को गिराए जाते समय लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती का उल्लास देखने लायक था। 

गड़े मुर्दों को क्यों उखाड़ना?

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय को वचन दिया था कि उनकी सरकार मस्जिद को कोई नुक़सान नहीं पहुँचने देगी। बाद में शेख़ी बघारते हुए उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने सिर्फ़ वहाँ निर्माण कार्य पर रोक लगाई थी, ध्वंस पर नहीं। उन्होंने झूठा वचन देने को शान की बात ठहराया। इससे आगे बढ़कर झूठ बोलने को उचित ठहराया गया। संविधान की शपथ लेकर साफ़ झूठ बोलने और सर्वोच्च न्यायालय के सामने ग़लतबयानी के लिए कल्याण सिंह को जवाबदेह बनाने के लिए न्यायालय के सामने लगाई गई अर्ज़ी को तक़रीबन 30 साल तक टालने के बाद अदालत ने कहा, अब जाने भी दीजिए। गड़े मुर्दों को क्यों उखाड़ना? 

जुर्म और इंसाफ़ के बीच फ़र्क 

6 दिसंबर की तारीख़ भारत के इतिहास की कुछ सबसे महत्वपूर्ण तारीख़ों में से एक रहेगी। क्योंकि इस दिन बाबरी मस्जिद के गिराए जाने से जो गर्द उठी उसने इस मुल्क के फेफड़ों में घर कर लिया। जनतंत्र की साँस लेने में उसे जो तकलीफ़ होती रही है, उसकी एक वजह बाबरी मस्जिद के ध्वंस का हिसाब न होना भी है। यह देश जुर्म और इंसाफ़ के बीच का फ़र्क भूल गया है। 

असत्य की विजय! 

यह सब 30 साल पुरानी बात है। एक पीढ़ी गुजर गई, एक ढलान पर पहुँची और दो पीढ़ियाँ जवान हो गईं। अब इसे दोहराने का मतलब क्या गड़े मुर्दे उखाड़ना है? हम तो अब “वहीं” पर राम मंदिर बनाने  की तैयारी कर रहे हैं। यह पूरी अवधि एक हक़ीक़त, यानी बाबरी मस्जिद के अफ़साने बदल जाने और एक असत्य या कपोल कल्पना, यानी राम जन्म भूमि के यथार्थ में बदल दिए जाने की यात्रा की अवधि है। देश की सत्य से असत्य की  यात्रा। असत्य के विजय की यात्रा।

यह उस वक्त स्वीकार नहीं किया जा रहा था कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस एक योजनाबद्ध कार्रवाई थी, एक षड्यंत्र का परिणाम था। भाजपा के सारे नेता इसे स्वतःस्फूर्त, कार सेवकों के आवेश का परिणाम बतला कर अपनी भूमिका पर पर्दा डाल रहे थे। यह लिहाज़ धर्मनिरपेक्षता के दबाव के कारण हो सकता है। या शायद इस भय से कि अदालतें अपना काम करेंगी। अपराध को अपराध कहा जाएगा।

धीरे-धीरे यह बोध धूमिल पड़ता गया। ऐसे लोगों को जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना। उन्हें देश चलाने का जिम्मा दिया। तब अपराध को छिपाने की कोशिश की जाती थी। फिर ढिठाई आ गई: “अपराध न करते तो क़ब्ज़ा कैसे करते?”

सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा, बाबरी मस्जिद का ध्वंस एक अपराध था। जैसे 1949 के दिसंबर के महीने में एक सक्रिय मस्जिद में चोरी से मूर्ति रखना अपराध था। लेकिन यह कहकर उसने कहा कि आख़िर उन लोगों का दिल इस ज़मीन पर आ गया था। फिर क्यों उनका दिल तोड़ें?

बाबरी मस्जिद का ध्वंस भी कोई एक अचानक हुई दुर्घटना नहीं थी। वह एक दशक लंबी प्रक्रिया थी। राम जन्मभूमि का अभियान धीरे-धीरे धर्मनिरपेक्षता की ज़मीन को खोखला करने का अभियान था। हम सब इस गुमान में रहे कि यह ज़मीन पक्की है। अब हम एक खाई में हैं। रौशनी दीख तो रही है लेकिन इससे निकलने की जुगत नहीं लगा पा रहे हम। 

2002 का गुजरात दंगा 

6 दिसंबर, 1992 नहीं होता तो शायद 2002 में गुजरात में जो हुआ, वह भी न होता। कभी आनेवाली पीढ़ियाँ समझने की कोशिश करेंगी कि यह कैसे और क्योंकर हुआ होगा कि एक पूरा समाज न्याय का बोध गँवा बैठा। लेकिन हम भी यह कर सकते हैं। 6 दिसंबर इस आत्मचिंतन के लिए सबसे मुनासिब दिन है।