हैप्पीनेस इंडेक्स में आधी आबादी के अलग आयाम होते तो भारत ज़ीरो पर होता!

01:15 pm Mar 23, 2025 | वंदिता मिश्रा

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वेलबीइंग रिसर्च सेंटर द्वारा ‘वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट-2025’ जारी कर दी गई है। जीवन की गुणवत्ता को आंकड़ों के माध्यम से परखने के लिए तैयार की जाने वाली इस रिपोर्ट को बनाने में यूनाइटेड नेशंस सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशंस नेटवर्क (UNSDSN) भी मदद करता है।जीवन की गुणवत्ता जिसे ख़ुशहाली का आधार माना जाता है, इसे मापने के लिए 6 महत्वपूर्ण संकेतकों का इस्तेमाल किया जाता है।इसमें पहला, देश में प्रति व्यक्ति जीडीपी; दूसरा, स्वस्थ जीवन प्रत्याशा; तीसरा, सामाजिक समर्थन; चौथा, जीवन में विकल्प चुनने की स्वतंत्रता; पाँचवाँ, दूसरों की मदद करने की इच्छा और छठा महत्वपूर्ण संकेतक है भ्रष्टाचार।

इन सभी संकेतकों के आधार पर, देशों के आंकड़े जुटाए जाते हैं और फिर तय किया जाता है कि किस देश में कितनी हैप्पीनेस अर्थात् खुशहाली है। 2025 की रिपोर्ट तैयार करने के लिए 2022 से 2024 के सर्वे इस्तेमाल किए गए हैं। इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए 147 देशों का मूल्यांकन किया गया जिसमें से भारत को 118वाँ स्थान प्राप्त हुआ है। हालांकि यह स्थान पिछली बार की तुलना में बेहतर है लेकिन इसके बाद भी भारत इस सूचकांक में नेपाल, पाकिस्तान, यूक्रेन और फ़िलिस्तीन से भी बुरी स्थिति में है। यह बहुत चिंतित होने और सोचने की बात है कि सालों से युद्ध ग्रस्त देश यूक्रेन और नरसंहार की मार झेल रहे फिलिस्तीन के दुख से बड़ा है भारत का दुख। आखिर क्या कारण है? 

ऐसे में हमेशा की तरह यह रिपोर्ट मोदी सरकार को पसंद नहीं आएगी। उन्हें यह बर्दाश्त नहीं होगा कि कैसे उनका पड़ोसी पाकिस्तान बेहतर कर गया, कैसे युद्ध में डूबा यूक्रेन और हिंसक हमलों को झेल रहा फ़िलिस्तीन भी भारत से आगे पहुँच गया है। यह लेख मोदी सरकार की आंकड़े पचाने की शक्ति तो नहीं बढ़ा सकता है लेकिन यह तो साफ़ किया ही जा सकता है कि जिन 6 संकेतकों पर देशों का आंकलन किया गया है उनमें भारत की वर्तमान स्थिति क्या है।

बढ़ी हुई प्रति व्यक्ति जीडीपी किसी भी देश की समृद्धि का प्रतीक मानी जाती है। यदि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा दिए गए आंकड़ों की मानें तो वर्ष 2025 के लिए भारत की प्रतिव्यक्ति जीडीपी के लिए 2937 डॉलर(नॉमिनल) और 11938 डॉलर(पीपीपी) का अनुमान लगाया गया है। यह आंकड़ें निश्चित ही पाकिस्तान से बेहतर हैं लेकिन यदि भारत को इस मामले में वैश्विक पायदान पर आंका जाय तो असलियत सामने आती है। IMF के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत 194 देशों में 143वें(नॉमिनल) और 125वें(पीपीपी) स्थान पर है। लेकिन कहानी यहीं आकर खत्म नहीं होती। भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जहाँ आर्थिक असमानता अपने उच्चतम स्तरों पर है।

विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 ने पाया कि भारत के शीर्ष 1% के पास 2021 में राष्ट्रीय आय का 21.7% हिस्सा था, जबकि निचले 50% के पास केवल 13.1% हिस्सा था।वर्ल्ड इनइक्वलिटी डेटाबेस (WID) में थॉमस पिकेटी जैसे अर्थशास्त्रियों के अनुमानों के अनुसार, भारत के शीर्ष 10% ने 2021 में भारत की राष्ट्रीय आय का 57.7% हिस्सा हासिल किया था, जबकि यह आंकड़ा 2025 तक 60% तक बढ़ने की संभावना है।एक अन्य रिपोर्ट यह बताती है कि भारत के 85% खरबपति उच्च वर्णों से संबंधित हैं साथ ही यह भी कि देश में अनुसूचित जनजाति का कोई भी खरबपति नहीं है। 

तथ्यों से पता चलता है कि भारत में असमानता इतनी अधिक हो चुकी है कि यह ब्रिटिश काल की शोषणकारी व्यवस्था को भी पार कर चुकी है। असल में यह आंकड़े बताते हैं कि असमानता से भारत की जड़ों को सींचा जा रहा है, ऐसे में निचले तबके में सिर्फ़ असंतोष और ग़रीबी ही पनपेगी, जबकि समृद्धि सिर्फ़ एक जुमले के रूप में साथ साथ चल सकती है।

स्वस्थ जीवन प्रत्याशा अर्थात् HALE इस बात की जांच परख करती है कि देश के नागरिक औसतन ऐसे कितने साल बिताते हैं जिसमें उन्होंने बिना किसी बीमारी के जीवन गुजारा है। बेहतर HALE इस बात का प्रमाण है कि देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर सुधर रहा है।लोगों को समय पर वैक्सीन लगाई जा रही है, समय पर उन्हें डॉक्टर उपलब्ध हो जाते हैं, उनके मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल रखा जाता है और ये भी कि लोग बेहतरीन और संतुलित भोजन के साथ साथ व्यायाम आदि कर पा रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत का HALE 61.5 वर्ष है जबकि जापान (74.1 वर्ष), स्विटजरलैंड (73.0 वर्ष) और अमेरिका (66.1 वर्ष) आदि का HALE कहीं अधिक बेहतर है। बेहतर तो बांग्लादेश (63.0 वर्ष) का भी है और यदि पिछले 70 सालों के प्रयास न होते तो शायद यह पाकिस्तान (59.0 वर्ष) से भी नीचे चला जाता।

सोचने वाली बात है कि जब महंगाई अपने चरम स्तर पर हो, दालें, तेल और अन्य आवश्यक खाद्य सामग्री जेब पर भारी पड़ने लगे, फल और हरी सब्जियों के पैसे खर्च करने से पहले सौ बार सोचना पड़े तो यह मान लेना चाहिए कि भारत का बड़ा हिस्सा बेहतर स्वास्थ्य से वंचित हो रहा है। यह वही हिस्सा है जो भारत की आय और समृद्धि में अपने हिस्से को लगातार खोता जा रहा है।

महंगाई और बेरोजगारी के दौर में ‘सामाजिक समर्थन’ एक लग्ज़री है।परिवार या दोस्त संपन्न होने की स्थिति में तो मदद कर सकते हैं लेकिन यदि जेब ही जवाब दे दे तो सामाजिक समर्थन बहुत मुश्किल है। परंतु भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और मूल्य मदद को नैतिकता से जोड़ते हैं।

2019 के एक आंकड़े के अनुसार, 68% ग्रामीण और 62% शहरी परिवारों ने संस्थागत सहायता के बजाय बीमारी के दौरान देखभाल के लिए परिवार या पड़ोसियों पर निर्भर रहने की सूचना दी। बुजुर्गों की देखभाल के आंकड़ों से पता चलता है कि 60 वर्ष से अधिक आयु के 85% लोग परिवार के साथ रहते हैं (NSSO 2019), जो पश्चिमी देशों (जैसे USA - 27%) की तुलना में कहीं अधिक है। लेकिन यह सांस्कृतिक-नैतिक चेतना सभी के लिए नहीं है। महिलाओं ने बताया कि पितृसत्तात्मक मानदंडों के कारण उन्हें कम समर्थन मिलता है - 2023 के UNFPA सर्वेक्षण में केवल 55% महिलाएं ही परिवार के बाहर मदद लेने में स्वतंत्रता महसूस करती हैं, जबकि पुरुषों में यह आंकड़ा 72% है।

यदि हैप्पीनेस इंडेक्स में महिलाओं को लेकर एक अलग आयाम बनाया जाता, आधी आबादी के लिए अलग से व्यवस्था की जाती और संबंधित आंकड़े एकत्रित किए जाते तब पता चलता कि देश की आधी आबादी स्वतंत्रता और सुख दोनों के मायने भूलती जा रही है।

संविधान से बनी अदालतों में खुलेआम जज महिलाओं की इज्जत उतारने में शर्म नहीं महसूस कर रहे हैं। संवैधानिक न्यायालयों में बैठे पुरुष जज बीमार सोच से ग्रसित हैं। जिन्हें अस्पतालों में होना चाहिए वो जज की कुर्सी पर बैठ गए हैं।बलात्कार के बाद बलात्कारी से शादी का प्रस्ताव जज दे रहे हैं, जज यह तय कर रहे हैं कि यदि किसी ने बदनीयती से भी स्तनों को छुआ है तब भी उसे अपराध नहीं माना जाएगा, विवाह संस्था के अंदर पति द्वारा की गई जबरदस्ती पर अदालतों की ख़ामोशी और पहनावे से लेकर बाहर निकलने, घूमने तक के लिए पुरुषवादी टाइमलाइन यह बता रही है कि देशों में खुलेआम संविधान और कानून की नाक के नीचे, या ये कहूँ कि इन्ही की मदद से महिलाओं को ग़ुलामी की और धकेला जा रहा है। उन्हें यह बताया जा रहा है कि क्या सही है और क्या ग़लत। यह सब आधी आबादी की हैप्पीनेस/खुशहाली के लिहाज से नकारात्मक व्यवस्था है। 

वास्तविकता तो यह है कि बीते वर्षों में जिस तरह धर्मों और जातियों के बीच वैमनस्यता बढ़ी है, समूहों का अतिवादी राजनीतिकरण हुआ है, यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि आने वाला भारत अपने पड़ोसियों और मित्रों को आवश्यकता पड़ने पर मदद करेगा। 

युवाओं को जिस किस्म की राजनैतिक ट्रेनिंग दी जा रही है उससे यह सुनिश्चित होता जा रहा है कि लोग मदद करने से पहले जाति और धर्म जरूर जानना चाहेंगे।यह एक भयावह स्थिति है। क्योंकि इसका प्रसार सरकारी कार्यालयों, अधिकारियों, थानों और अस्पतालों में भी हो रहा है।

खुशहाली एक ऐसी स्वतंत्रता की माँग करती है जिसमें जीवन विकल्पों से भरा हो, बाध्यता जीवन की पहचान ना बनने पाये। इसके लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे अधिकारों को मजबूती से बने रहना होगा। कैटो इंस्टीट्यूट और फ्रेजर इंस्टीट्यूट द्वारा मानव स्वतंत्रता सूचकांक (FHI) जारी किया जाता है। यह 86 संकेतकों का उपयोग करके व्यक्तिगत, नागरिक और आर्थिक स्वतंत्रता को मापता है। 2023-24 की रिपोर्ट में, भारत 6.77 (10 में से) के स्कोर के साथ 165 देशों में से 109वें स्थान पर है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता, जिसमें अभिव्यक्ति और पहचान की स्वतंत्रता शामिल है, का स्कोर 6.41 है - जो मध्यम बाधाओं को दर्शाता है। इसके अलावा प्रेस की घटती स्वतंत्रता (2024 विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 159वां) अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के विकल्पों को सीमित करता है। 

सूचकांक का यह पैरामीटर संसद की कार्यप्रणाली, चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली आदि तक भी जाएगा। अगर प्रतिनिधियों को संसद में बोलने नहीं दिया जाय, चुनाव निष्पक्ष न हो तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ साथ देश की सामूहिक स्वतंत्रता भी प्रभावित होगी। जो अंततः पूरे देश की खुशहाली को सीमित कर देगा।

यदि 35% वोट पाने वाली सत्ताधारी पार्टी 65% वोट पाने वाले विपक्ष के नेताओं को डराएगी, धमकाएगी, जेल में डालेगी, तो इसका सीधा मतलब है कि विपक्ष को वोट देने वाले नागरिकों की स्वतंत्रता को सीमित किया जा रहा है।यह किसी भी हालत में एक ख़ुशहाल देश को जन्म नहीं दे सकता। क्योंकि मेरा मानना है कि विपक्षी नेताओं को जेल में ठूँस देने की धमकी देना, उनपर UAPA और राजद्रोह जैसे कानूनों का इस्तेमाल करना, असल में उन्हें वोट देने वालों को डराने से ही संबंधित है। यह भय ही तो ख़ुशहाली को कम/ख़त्म करता है। 

जिस तरह एक राज्य का मुख्यमंत्री 300 साल पुरानी एक कब्र को खोदने की बात कर रहा हो, एक ‘महामंडलेश्वर’ गांधी को गालियाँ दे रहा हो, केंद्र सरकार जिस पर भारत की एकता की जिम्मेदारी है, चुप बनी रहे तो यह कहने में गुरेज़ नहीं करूँगी कि भारत में उदारता अब कट्टर हो गई है और लगभग हर मंत्रालय/विभाग में खुलता/चलता भ्रष्टाचार (भ्रष्टाचार बोध सूचकांक, 96वें स्थान पर, 2024) लोगों को ख़ुशहाल बनने से रोक रहा है। यही कारण है कि भारत से खुशहाली दूर भाग रही है।