मैंने पहले भी यह बात आग्रहपूर्वक कही है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां का प्रधानमंत्री भारत के नागरिकों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा तय होता है। वह सत्ताधारी दल का नेता हो सकता है, सरकार का मुख्य प्रवक्ता हो सकता है, राष्ट्रीय एकता परिषद, राष्ट्रीय विकास परिषद और योजना आयोग आदि का मुखिया हो सकता है और इस अर्थ में प्रधानमंत्री भारत का राजनैतिक प्रधान होता है न कि भारत का धार्मिक प्रधान! भारत के प्रधानमंत्री की चिंताएं अपनी प्रकृति में धार्मिक नहीं हो सकती हैं, उसकी राजनैतिक आँखों में धर्म का चश्मा नहीं हो सकता।
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भारत का प्रधानमंत्री स्वयं को किसी एक धर्म का रक्षक या खुद को एक धर्म के प्रचारक के रूप में नहीं पेश कर सकता है। किसी धर्म के उत्थान और पतन से भारत के प्रधानमंत्री का कोई वास्ता नहीं हो सकता है।
एक बार पदमुक्त हो जाने पर उसकी चिंताएं जो स्वरूप लेना चाहें ले सकती हैं लेकिन भारत के संविधान की शपथ लेकर भारत का प्रधानमंत्री बना कोई भी व्यक्ति भारत के संविधान के अनुसार ही चले तो इस देश के माहौल के लिए उत्साहवर्द्धक है अन्यथा यहाँ का अल्पसंख्यक बहुत हतोत्साहित और अकेला महसूस करता है। सर्वोच्च न्यायालय केशवानंद मामले में स्पष्ट कर चुका है कि संविधान की सर्वोच्चता(न कि संसद या प्रधानमंत्री की), धर्मनिरपेक्षता और प्रस्तावना के सम्पूर्ण आदर्श संविधान की आधारिक संरचना का हिस्सा हैं जिनसे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।
यह जानते हुए भी, इसके उलट भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिंताएँ किसी और ही स्वरूप को धारण करती जा रही हैं।प्रधानमंत्री मध्यप्रदेश के बीना में एक पेट्रोकेमिकल कॉम्प्लेक्स और रिफाइनरी एक्सपेंशन प्रोजेक्ट के उद्घाटन अवसर पर बोल रहे थे। वहाँ पर उन्हे अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनानी थीं, स्वयं और अपनी सरकार की काबिलियत और कार्यक्षमता के बारे में बताना था ताकि जनता उन्हे फिर से चुनकर भेज दे।
लेकिन, शायद प्रधानमंत्री कुछ और ही सोच रहे थे। मंच पर वह थके और परेशान लग रहे थे, उनमें उस ऊर्जा की कमी साफ देखी जा सकती थी जिससे वह अक्सर लोगों को संबोधित करते थे। प्रोजेक्ट के बारे में बोलते बोलते अचानक ही उनके दिमाग में विपक्षी गठबंधन आ गया। अब भाषण में उनका आगे का काफी समय जो प्रोजेक्ट के विषय पर होना चाहिए था उससे भटककर विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ पर जा टिका। विपक्षी दलों द्वारा अपने गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ रख लेने के कारण उनमें काफी तनाव है, उनका तनाव साफ देखा जा सकता था, उनसे कोई अच्छा शब्द नहीं बन पा रहा था, न ही वह कोई नया नैरेटिव बना पा रहे थे। विषय से भटककर पीएम मोदी विपक्षी गठबंधन को ‘घमंडिया’ और ‘इंडी-अलायंस’ जैसे शब्दों से पुकारने लगे। शायद इसके बाद भी उन्हे लगा कि काम नहीं चल पाएगा तो उनका अगला पड़ाव ‘सनातन धर्म’ के रूप में आया।
उन्हे लगा होगा कि सनातन की बात करते ही हिंदुओं का हुजूम उनके साथ आ खड़ा होगा, इसीलिए उन्होंने सनातन पर बोलना शुरू कर दिया। पिछली कैबिनेट बैठक में भी उन्होंने अपने मंत्रियों से इस बात पर जोर डाला था कि ‘सनातन के मुद्दे’ पर ‘आक्रामक’ रुख अपनाना होगा। और अब भारत का ‘धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री पद’ पीएम मोदी के माध्यम से सनातन धर्म की चिंता में डूबने को तैयार था। उनकी शब्दावली गौर करने लायक है, वो कहते हैं कि “आज इन लोगों ने खुलकर बोलना शुरू किया है। खुलकर हमला करना शुरू किया है। कल ये लोग हम पर होने वाले हमले और बढ़ाने वाले हैं। देश के कोने-कोने में हर सनातनी को, इस देश को प्यार करने वाले को,हर किसी को, सतर्क रहने की जरूरत है। सनातन को मिटाकर ये देश को फिर एक हजार साल की गुलामी में धकेलना चाहते हैं। लेकिन हमें मिलकर ऐसी ताकतों को रोकना है। हमारी संगठन की शक्ति से, हमारी एकजुटता से उनके मंसूबों को नाकाम करना है।”
दुर्भाग्य से वो हाल में हुए अनंतनाग हमले की बात नहीं कर रहे थे (जोकि उन्हे करनी चाहिए थी) इसके उलट देश के प्रधानमंत्री अचानक से सनातन के सबसे बड़े प्रहरी बनकर उभरना चाहते हैं। संविधान ने उनसे जिस बात की आशा ही नहीं की है वे, वह कर्त्तव्य निभाना चाहते हैं, वे सनातन धर्म के लोगों को डराने का काम कर रहे हैं। देश की प्रमुख और कई विकराल होती समस्याओं से मुँह मोड़कर सनातन धर्म के रक्षक की छवि हासिल करने की तमन्ना 2024 के लोकसभा चुनावों से जुड़ी हुई प्रतीत होती है। क्योंकि पीएम मोदी मुझे इतने अंधकार में तो नहीं लगते कि उन्हे यह भी न पता हो कि हजारों साल का इतिहास समेटे सनातन धर्म कभी भी सिमटता नजर नहीं आया, बल्कि नवजागरण काल में इसने अपने आपको विस्तृत ही किया है। सैकड़ों हजारों वर्षों से लगातार विदेशी आक्रमणकारियों को देखता और सुनता और सहन करता आया सनातन कभी नहीं सिमटा। एक लगभग शाश्वत मुद्दे को बचाने के लिए गैर जरूरी रक्षक के रूप में बिना बुलाए आना संभवतया असुरक्षा के भाव से प्रेरित है।
मेरे लिए ताज्जुब की बात तो यह है कि 140 करोड़ देशवासियों के साथ, विकास, विश्वास और प्रयास की बात करने वाले, चुनाव के पहले ‘सनातानियों’ पर क्यों आ टिके? इतना ही नहीं उन्होंने महात्मा गाँधी को भी अपने इस संकीर्ण वार्तालाप में भागीदार बनाने की कोशिश की। इसी भाषण में वो कहते हैं कि “जिस सनातन को गांधी जी ने जीवन भर माना, जिन भगवान श्रीराम ने उनको जीवन भर प्रेरणा दी, उनके आखिरी शब्द बने हे राम, जिस सनातन ने उन्हें अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलन चलाने के लिए प्रेरित किया, ये इंडी गठबंधन के लोग, ये घमंडिया गठबंधन के लोग, उस सनातन परंपरा को समाप्त करना चाहते हैं।”
मेरी बिन मांगी सलाह यह है कि प्रधानमंत्री जी को महात्मा गाँधी के विषय को नहीं उठाना चाहिए अन्यथा उनके अपने ही दल के न सिर्फ आम कार्यकर्ता बल्कि सांसद और मंत्री तक को बहुत बुरा लगेगा। महात्मा गाँधी के खिलाफ खुलकर अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करने वाली उनके अपने दल की सांसद प्रज्ञा ठाकुर के विषय में भी उन्हे बताते चलना चाहिए था। 2022 के स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पहले महात्मा गाँधी को भारत के विभाजन का जिम्मेदार ठहराने वाले आरएसएस के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार के विषय में भी कुछ कहते चलना था।
महात्मा गाँधी के विषय में तत्कालीन आरएसएस प्रमुख एम एस गोलवरकर की टिप्पणी पर भी पीएम मोदी कुछ बोलते तो पता चलता कि उनके क्या विचार हैं। 1947 में एक सभा को संबोधित करते हुए गोलवालकर ने कहा कि “दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें हिंदुस्तान में नहीं रख सकती। मुसलमानों को देश छोड़ना होगा। महात्मा गांधी मुसलमानों को भारत में ही रखना चाहते थे ताकि चुनाव के समय कांग्रेस को उनके वोटों से लाभ हो सके। लेकिन, उस समय तक भारत में एक भी मुसलमान नहीं बचेगा। ...महात्मा गांधी अब उन्हें गुमराह नहीं कर सके….” (करतार सिंह, इंस्पेक्टर, सी.आई.डी. की रिपोर्ट, दिनांक 7 और 9 दिसंबर, 1947,)।
ध्यान रखने वाली बात है कि महात्मा गाँधी किसी धर्म विशेष का बिछौना नहीं है कि जब चाहा अपनी खुशी से अपने फायदे के लिए बिछाकर लेट गए। महात्मा गाँधी की स्वीकृति संपूर्णता में करनी होगी, लेकिन जब तक ‘कपड़ों से पहचान’ लेने का हुनर मन को विकृत करता रहेगा गाँधी नहीं सध सकेंगे। गाँधी जितने सनातनी थे उतने ही मुस्लिम और उतने ही क्रिश्चियन भी, वो हर धर्म में थे और हर धर्म उनके अंदर। यह गाँधी की विराटता ही है कि दुनिया के 19 आर्थिक रूप से सशक्त और ताकतवर देशों के प्रमुख उनकी हत्या के 75 सालों बाद भी, हाथों से बुनी एक कॉटन की धोती पहनने वाले व्यक्ति के सामने शीश झुकाने को बाध्य हुए और सम्मान महसूस किया। धर्म गाँधी की पहचान नहीं थी, सत्यता, मानवता, असीम प्रेम, बंधुता और अहिंसा गाँधी की पहचान थी, यदि यह पहचान पचाई जा सके तो उन्हे उद्धृत किया जाए अन्यथा कोई अन्य ‘महापुरुष’ को खोज लें।
अच्छा होता कि पीएम मोदी अपनी असुरक्षा को जनता के सामने रखते। भारत की आजादी सनातनी होने की मोहताज नहीं रही, जिन क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों ने देश को आजादी दिलाई उनमें से भगत सिंह जैसे ढेरों महान लोगों को तो ईश्वरीय सत्ता तक में भरोसा नहीं था। जब तक संविधान अपनी आधारिक संरचना के साथ खड़ा रहेगा भारत न ग़ुलाम बनेगा और न ही किसी को अपना ग़ुलाम बनाएगा। आज के भारत की वैश्विक पहचान भारतीय होने में है न कि सनातनी या अन्य कोई धर्मसूचक शब्द से! सबसे अहम बात तो यह है कि धर्म की ढाल लोकतान्त्रिक गणराज्य के प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देती।
सनातन के इतर भारत के प्रधानमंत्री को चिंता इस बात की होनी चाहिए कि आखिर कैसे जम्मू एवं कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में भारत के 3 जवान फिर से आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गए? आखिर ऐसा क्या हो गया है कि बीते दिनों पूरे पीरपंजाल रेंज (राजौरी, अनंतनाग, पुंछ आदि) में आतंकी गतिविधियां बढ़ गई हैं। आधिकारिक आंकड़ा यह है कि सिर्फ 2022 में ही 125 आतंकी वारदात हो चुकी हैं। क्या पीएम मोदी के लिए यह चिंता का विषय नहीं है? क्या उन्हे इस पर कुछ नहीं कहना है? कुछ लोग तो इस बात पर प्रश्न भी उठा रहे हैं कि जब पूरा देश सेना के जवानों की शहादत के शोक में डूबा था तब पीएम मोदी और उनके मंत्री भाजपा कार्यालय में G-20 की ‘सफलता’ का ‘जश्न’ मना रहे थे। वास्तव में इसे प्रधानमंत्री के स्तर पर नैतिकता से विचलन माना जाना चाहिए, शायद पीएम कुछ बोलना चाहें! पर मुझे इस विषय पर कुछ नहीं कहना है, यह देश के नागरिकों को तय करना होगा कि उन्हे कितना गंभीर प्रधानमंत्री चाहिए!लेकिन जब तक वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने पद पर हैं उन्हे इस बात की चिंता जरूर होनी चाहिए कि भारत न सिर्फ सुरक्षित रहे बल्कि इसके संचालन का आधार भारत का संविधान होना चाहिए।
10 अगस्त, 2023 को हाल ही में केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग को लेकर ‘मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) विधेयक, 2023’ राज्यसभा में पेश किया था। 18 सितंबर से शुरू हो रहे संसद के विशेष सत्र में इस विधेयक पर चर्चा होनी है। इस विधेयक का उद्देश्य ‘चुनाव आयोग (चुनाव आयुक्तों की सेवा की शर्तें और कार्य संचालन की शर्तें) अधिनियम, 1991’ को निरस्त करना है।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों की राय में 1991 के अधिनियम के मुकाबले 2023 का विधेयक चुनाव आयोग की स्थिति को निम्न बनाता है। लाए गए विधेयक में मुख्य चुनाव आयुक्त(CEC) व चुनाव आयुक्तों(ECs) का कद कैबिनेट सचिव के समकक्ष रखा गया है जबकि वर्तमान व्यवस्था में यह कद सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश के समकक्ष है। कैबिनेट सचिव के स्तर का अर्थ है राज्य मंत्री(MoS) से भी कमतर स्तर। इससे पूर्व CEC को चुनने वाली समिति के लिए सुप्रीम कोर्ट ने भारत के मुख्य न्यायधीश को भी शामिल किया था जबकि अब केंद्र सरकार ने इस समिति में से CJI को हटा दिया है।
सेवा शर्तों और कद से इतर इस बात को समझने की जरूरत है कि चुनाव आयोग मात्र एक और संवैधानिक पद नहीं है। बल्कि यह पद भारत के लोकतंत्र का सबसे मजबूत हिस्सा है। यदि इस पद की शक्ति और गरिमा को निम्न किया जाता है, इसे केंद्र सरकार का मातहत बनाने की कोशिश की जाती है तो यह संविधान के साथ बहुत बड़ा धोखा होगा। केंद्र सरकार के बहुमत वाली चयन समिति से जिस अधिकारी को चुना जाएगा उसकी निष्पक्षता सदैव संदिग्ध रहेगी। एक संदिग्ध चुनाव आयोग के कार्यकलाप से पूरे देश के विपक्षी दलों में अविश्वास पैदा होगा। राजनैतिक अविश्वास देश को ऐसी स्थिति में डाल सकता है जिससे भारत की एकता और अखंडता पर खतरा हो सकता है। इससे बचना चाहिए।
संविधान सभा में भारत के संविधान निर्माताओं ने इस विषय पर बहुत गहन चिंतन किया था कि भारत में चुनाव और चुनाव आयोग कैसा होना चाहिए। यहाँ तक कि संविधान सभा की मौलिक अधिकार उपसमिति ने चुनाव आयोग को मूल अधिकारों के अंतर्गत लाने की सिफारिश तक कर डाली थी। इससे समझा जा सकता है कि देश को आजादी दिलाने वालों के दिमाग में चुनाव आयोग की महत्ता क्या रही होगी।
संविधान सभा में चुनाव आयोग की निष्पक्षता के विषय पर बोलते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा कि “सदन ने बिना किसी असहमति के पुष्टि की है कि विधायिका के चुनावों की निष्पक्षता और स्वतंत्रता के हित में, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि चुनाव आयोग को कार्यपालिका(सरकार) से किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप से मुक्त किया जाना चाहिए।”
चुनाव आयोग के मुद्दे पर बहस के दौरान संविधान सभा में सभी चिंतित थे क्योंकि भारत का लोकतान्त्रिक भविष्य बिना स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनावों के बहुत दिनों तक संभव नही था। इसी संदर्भ में आगामी सरकारों की नीति और नीयत पर शक जताते हुए संविधान सभा के यूनाइटेड प्रॉविन्स(वर्तमान यूपी) से सदस्य शिबुलाल सक्सेना ने कहा कि “हम भाग्यशाली हैं कि हमारे प्रधानमंत्री (जवाहरलाल नेहरू) के रूप में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष व्यक्ति है और वह देखेंगे कि एक उचित व्यक्ति की नियुक्ति हो। लेकिन हम इस बात पर यकीन नहीं कर सकते कि प्रधानमंत्री हमेशा ऐसे ही व्यक्तित्व वाले होंगे। मैं चाहता हूं कि भविष्य में कोई भी प्रधानमंत्री इस अधिकार का दुरुपयोग न कर सके और इसके लिए मैं यह प्रावधान करना चाहता हूं कि दो-तिहाई बहुमत होना चाहिए जो राष्ट्रपति द्वारा नामांकन को मंजूरी दे।”
लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार, उनके मुखिया नरेंद्र मोदी और 2023 के चुनाव आयोग संबंधी विधेयक को देखकर यही लगता है कि इस स्वतंत्रता सेनानी का डर सच साबित होने वाला है। सिर्फ नरेंद्र मोदी सरकार ही नहीं किसी भी आगामी सरकार पर इस बात का भरोसा नहीं किया जा सकता है कि वह अपने अधिकार क्षेत्र से इतना अधिक ईमानदार और निष्पक्ष चुनाव आयोग बनने देगी जो उसके सामने कानून कायदों और संविधान की किताब लेकर खड़ा हो और आचार संहिता पर उनके खिलाफ कार्यवाही करे। केंद्र सरकार से यह जानना जरूरी है कि आखिर चुनाव आयोग की स्थिति को निम्न बनाने के पीछे कानून का कौन सा मौलिक प्रश्न आ खड़ा हुआ है, कौन सा संवैधानिक संकट आ गया है कि उसके निवारण के लिए न सिर्फ चुनाव आयोग की निष्पक्षता से खिलवाड़ किया जा रहा है बल्कि देश की स्थिरता और एकता के साथ भी खेलने की तैयारी की जा रही है।
एक निष्पक्ष चुनाव आयोग की अनुपस्थिति में चुनाव परिणामों को मिलने वाली स्वीकृति मिलना असंभव हो जाएगा। संविधान को इसी खतरे से टालने के लिए निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव को केशवानन्द भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय की अबतक की सबसे बड़ी पीठ ने आधारिक संरचना का हिस्सा माना है। एक अन्य मामले में टी.एन. शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त...बनाम भारत संघ(1995) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से अपनी और संविधान की मंशा जाहिर करते हुए कहा कि “हमारे संविधान की प्रस्तावना घोषणा करती है कि हम एक लोकतांत्रिक गणराज्य हैं। लोकतंत्र हमारी संवैधानिक व्यवस्था की मूल विशेषता है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि हमारे विधायी निकायों के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव ही देश में स्वस्थ लोकतंत्र के विकास की गारंटी देंगे।”
यदि केंद्र सरकार और पीएम मोदी सनातन की चिंता में ही मग्न होना चाहते हैं तो नागरिकों और सर्वोच्च न्यायालय जैसी भारत की सर्वोत्कृष्ट संस्थाओं को लगातार जागना होगा ताकि 75 सालों से संवारा गया यह लोकतंत्र किसी एक कुर्सी के लिए दांव पर न लगा दिया जाए।