16 साल से नीतीश मुख्यमंत्री लेकिन स्वास्थ्य में बिहार सबसे फिसड्डी! 

12:34 pm Apr 03, 2022 | वंदिता मिश्रा

भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग (CAG) की रिपोर्ट बिहार विधानसभा में मार्च, 2022 को रखी गयी। यह रिपोर्ट स्वास्थ्य क्षेत्र में बिहार की बदहाली की कहानी बताती है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के 'जंगलराज' से लोगों को बचाने का सपना दिखाकर सत्ता में आये नीतीश कुमार पाँचवीं बार 2020 में मुख्यमंत्री बने थे। 16 सालों तक लगातार मुख्यमंत्री रहने के बावजूद प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था को वो अब भी पुराने ‘जंगलराज’ से नहीं उबार पाए हैं। या यह कहना उचित होगा कि वास्तविक 'जंगलराज' उनकी और उनके नेतृत्व वाली सरकारों की व्यक्तिगत अक्षमता का प्रतीक बन गया है।

कैग रिपोर्ट, वित्तीय वर्ष 2019-20 के अनुसार बिहार के पास आये कुल राजस्व का मात्र 27.25% ही राज्य के प्रयासों से आया है जबकि बाक़ी 72.75% राजस्व केंद्र के खाते से राज्य के पास पहुंचा है। बेहद लचर स्वास्थ्य व्यवस्था ही थी जिसके कारण बिहार में 3 लाख 88 हजार नागरिक कोविड-19 की वजह से मर गए (लांसेट रिपोर्ट)। परंतु सरकारी आंकड़ों में मौत की यह संख्या मात्र 12 हजार ही है। यदि किसी को समझने में संदेह हो रहा हो कि सरकारी आंकड़ा सही है या लांसेट की रिपोर्ट का, तो यह संदेह दूर करने में कैग की रिपोर्ट मदद कर सकती है। 2019-20 की कैग की यह रिपोर्ट कोरोना काल शुरू होने से पहले ही राज्य के स्वास्थ्य ढांचे में विद्यमान कमियों को उजागर करती है।

बिहार मेडिकल सर्विसेज एंड इंफ्रास्ट्रक्चर कोऑपरेशन लिमिटेड (BMSICL) के पास राज्य के 38 ज़िलों में अनवरत दवाओं और मेडिकल इक्विपमेंट्स की आपूर्ति की ज़िम्मेदारी है। लेकिन यह संस्था अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने में पूरी तरह अक्षम साबित हुई है। बिहार की राजधानी पटना में ही यह संस्था, ज़रूरी दवाओं की सूची में स्थित 42% दवाओं की आपूर्ति नहीं कर सकी (2017-18)। कोरोना की आपदा आने से पहले ही राज्य के विभिन्न ज़िलों में हॉस्पिटल बेड की संख्या में 52%-92% तक की कमी थी। मतलब प्रदेश में ऐसे भी ज़िले हैं जहाँ, इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स (IPHS) के मानकों के विपरीत मात्र 8% ही बिस्तर उपलब्ध हैं। कैग ने अपने ऑडिट के लिए जिन अस्पतालों को लिया उनमें से किसी में भी दुर्घटना/ट्रामा वार्ड नहीं मिला।

ये आँकड़े नीतीश सरकार की असफलता से ज़्यादा अक्षमता को प्रदर्शित करते हैं। क्योंकि स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत काम करने वाली संस्था BMSICL के पास उपलब्ध लगभग 10 हजार करोड़ के फण्ड में से वो मात्र 3 हजार करोड़ ही खर्च कर सकी। यह असंवेदनशील अक्षमता है। इस अक्षमता पर बिहार का एकाधिकार नहीं है क्योंकि उत्तर प्रदेश इस अक्षमता पर भरपूर साथ दे रहा है। जब प्रदेश के मुख्यमंत्री इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज कर रहे थे और अख़बार एनकाउंटर की ख़बरों से भरे थे तब दुर्भाग्य से अस्पताल डॉक्टरों से खाली थे।

उत्तर प्रदेश में ‘अस्पतालों के प्रबंधन पर कैग रिपोर्ट, 2019’ विधानसभा के पटल पर रखी गई। इसके अनुसार 2018 में स्थिति यह थी कि उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में स्वीकृत लगभग 16 हजार डॉक्टरों के पदों में से 6 हजार से भी अधिक पद रिक्त थे। किन्तु रोगियों की संख्या में वृद्धि जारी रहने के कारण OPD में डॉक्टरों पर दबाव बढ़ गया। इसकी वजह से प्रत्येक रोगी को डॉक्टर द्वारा मिलने वाला समय 5 मिनट से भी कम हो गया है, कहीं कहीं तो यह समय 2 मिनट से भी कम है।

नीति आयोग की रिपोर्ट, 2021 के अनुसार उत्तर प्रदेश के 150 ज़िला अस्पतालों में से मात्र 10 अस्पतालों (6.67%) में ही IPHS मानकों के अनुसार स्टाफ़ नर्सें हैं, जबकि मात्र 24 अस्पतालों (16%) में ही डॉक्टरों की संख्या मानकों के अनुरूप है।

यह स्थिति भयावह है। इससे भी ज़्यादा भयावह यह है कि प्रदेश के 41% सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में क्रियाशील प्रसूति गृह ही नहीं है और 75% उप-स्वास्थ्य केंद्रों में बिजली ही नहीं है। कोरोना काल में जब लोग अस्पतालों में लाइन लगाकर बेड पाने की प्रतीक्षा कर रहे थे तब ऐसा लगा मानो इस आपदा की वजह से अस्पतालों में बेड की कमी पड़ गई है। लेकिन सत्यता तो यह है कि प्रति एक लाख जनसंख्या पर उपलब्ध बेड के मामले में उत्तर प्रदेश देश में सबसे बुरी स्थिति वाले राज्यों में शामिल है। प्रदेश के ज़िला अस्पतालों में प्रति एक लाख जनसंख्या के लिए उपलब्ध बेड की संख्या मात्र 13 है। कोरोना की पहली और दूसरी लहर में हुई मौतें आपदा नहीं थी, वह मौतें राजनैतिक दिवालिएपन की वजह से हुई थी; जो स्वास्थ्य ढाँचे को लेकर हमेशा उदासीन ही रहा।

कोविड महामारी के दौरान यूपी में एक अस्पताल का हाल।फाइल फोटो

उदासीनता भी दो क़िस्म की होती है, पहली विवेकहीन उदासीनता और दूसरी असंवेदनशील उदासीनता। आज की सरकार असंवेदनशील उदासीनता से ग्रसित है। जिसका सबसे नज़दीकी उदाहरण है राष्ट्रीय फार्मास्यूटिकल्स मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (NPPA) द्वारा 800 ज़रूरी दवाओं के दामों में लगभग 11% की वृद्धि करना। यह वृद्धि पैरासीटामोल, एजीथ्रोमाइसिन, डॉक्सीसाइक्लिन जैसी कोरोना में काम आने वाली दवाओं पर भी बढ़ाया गया है। इसके अतिरिक्त डायबिटीज़ और हाइपरटेंशन की दवाओं में भी वृद्धि की गई है। अपनी नीतियों में नाकाम सरकार पेट्रोल, डीजल और वनस्पति तेल ही नहीं दवाओं के माध्यम से भी देश के नागरिकों की उन जेबों पर नज़र डाल रही है जो पहले से ही खाली हो चुकी हैं। एक मध्यमवर्गीय जोड़ा जो रिटायर हो चुका है और डायबिटीज या हाइपरटेंशन से पीड़ित है, उसको अभी लगभग 5 हजार प्रति माह अपनी दवाओं पर ख़र्च करना पड़ता है। अब जब दाम और 11% बढ़ गए हैं तो यह व्यय और भी ज़्यादा हो जाएगा।

भारत की आबादी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है जो डायबिटीज से पीड़ित है और लगभग प्रत्येक 3 व्यक्तियों में से एक वयस्क हाइपरटेंशन से पीड़ित है (Indian Heart Journal, Vol 71, Issue 4)। पर सरकार में बैठे नीति निर्धारक लोगों को यह सामान्य सी बात क्यों समझ नहीं आती कि इतनी बड़ी आबादी इस बेरोजगारी और महंगाई के दौर में कैसे अपनी दवाओं का ख़र्च निकालेगी?

‘नकारने’ (डिनायल) के राजनीतिशास्त्र में भारत का वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व दुनिया में सबसे आगे है। जैसे- कोरोना में कोई भी ऑक्सीजन की कमी से नहीं मरा, असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC एक्सरसाइज) बनाने की प्रक्रिया के दौरान हुई हिंसा में कोई नहीं मरा, लॉकडाउन के दौरान कोई सड़कों में न पैदल चला और न ही कोई मरा, बेरोजगारी नहीं है, महंगाई नहीं है- ऐसे तमाम झूठे दावे विभिन्न राज्य सरकारों व केंद्र सरकार द्वारा जारी होते रहे। ऐसे में यह भी कोई बड़ी बात नहीं होगी कि सरकार इस बात को भी नकार दे कि ‘वैश्विक खाद्य सुरक्षा सूचकांक-2021’ में भारत समग्र रूप से 71वें स्थान पर है। एक कृषि प्रधान देश का 113 देशों में 71वाँ स्थान एक सोचनीय पहलू है।

भीषण महँगाई में ग़रीब और बेरोजगारों को राशन पर निर्भर रहना पड़ रहा है। राशन, नागरिकों के लिए कोई सुविधा नहीं है बल्कि एक मजबूरी है। परंतु जो सरकारी राशन देश के 80 करोड़ लोगों के शरीर में जा रहा है उसकी गुणवत्ता बेहद अहम मामला है।

यह ‘खाद्य सुरक्षा सूचकांक’ भारत और भारतीयों के प्रति सरकारी ज़िम्मेदारी की पोल खोल कर रख देता है। ईकानमिस्ट इम्पैक्ट यूनिट द्वारा जारी किए जाने वाले इस सूचकांक के 4 प्रमुख स्तम्भ हैं- खाद्य सामर्थ्य, खाद्य उपलब्धता, गुणवत्ता एवं सुरक्षा तथा प्राकृतिक संसाधन एवं लचीलापन। जहां एक तरफ ‘खाद्य उपलब्धता’ के मामले में भारत की रैंकिंग बेहतर प्रदर्शन करते हुए 29वें स्थान पर आ जाती है तो वहीं असली परीक्षा तब होती है जब मामला ‘खाद्य गुणवत्ता और सुरक्षा’ का होता है। इस मामले में भारत की रैंक समग्र रैंक से भी नीचे चली जाती है और भारत 74वें स्थान पर खिसक जाता है। जीवन और खाद्य की गुणवत्ता में नाकाम सरकारें मात्र महंगाई और बेरोजगारी बढ़ाने में सफल हो रही हैं। 80 करोड़ आबादी राशन में सिमट गई है, स्वास्थ्य और शिक्षा के बारे में तो गरीब भारतीय नागरिक सोच भी नहीं सकते।

आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों की फीस में हो रही वृद्धि गरीबों को दौड़ से बाहर करने का एक नजरिया है। कुछ लोग हर दिन एक हजार करोड़ रुपये अपनी आमदनी में जोड़ रहे हैं तो कुछ को 100 रुपया भी नसीब नहीं हो रहा है। बढ़ती असमानता ने भारतीय गरीबों को ‘धर्म’ और भगवान के सहारे छोड़ दिया है। भीषण लाचारी में उनका आत्मविश्वास इस स्तर पर है कि खाने को खाना मिल जा रहा है तो बेचारे ‘नमक का कर्ज’ अदा करने के बारे में सोचने लग रहे हैं। ऐसे में सरकारों से सवाल उठाने का साहस जुटाने से पहले गरीब भारतीय अपने राशन के थैले की ओर ही नजर डालता है और चुप हो जाता है। भारतीयों की ‘नागरिक चेतना’ इतनी नीचे कभी नहीं गई। जब पेट ही अच्छे से नहीं भर पा रहा है तो वो कैसे पूछे कि शपथग्रहण और हेलिकॉप्टरों में करोड़ों खर्च करने वाली उसकी सरकार (यूपी) के मात्र 1.7% प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ही क्यों 24 घंटे खुले रहते हैं? क्यों सिर्फ 4% सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में ही चार प्रमुख विशेषज्ञ डॉक्टर हैं? 

क्यों देश की सबसे बड़ी आबादी (24 करोड़) वाले उत्तर प्रदेश के ‘सिर्फ एक अस्पताल’ में सभी 14 स्पेशलिस्ट विभाग हैं? भारतीय नागरिकों के लिए पेगासस और राफेल जैसे मुद्दे तो एलियन हैं? उनके लिए पेट की लड़ाई ही अंतिम सत्य है। जब तक वो इस लड़ाई में उलझे रहेंगे ‘राजनीति’ को फायदा मिलता रहेगा।

कोरोना जैसी आपदा झेल चुके भारत के नागरिकों को ‘राशन’ के नीचे दबाने की भरपूर कोशिश की गई। उच्च राजनैतिक नेतृत्व से लेकर गाँव और कस्बों में तैनात ‘स्वयंसेवकों’ ने सरकारी अक्षमता से उत्पन्न हुए मौत के बहाव को राशन और तेल से दबाने के लिए ‘अथक परिश्रम’ किया। और चुनावी परिणाम यह बता रहे हैं कि यह परिश्रम काफी हद तक सफल रहा। वास्तव में यह सफलता नहीं है, बल्कि एक ‘त्रासदी’ है, जिसमें पेट की भूख अपनों की मौत पर हावी हो जाती है।