लैंगिक राजनीति से जुड़े सवाल

05:19 pm Nov 04, 2024 | रवीन्द्र त्रिपाठी

भारत समेत पूरी दुनिया में इन दिनों लैंगिक मसलों पर कई तरह की बहसें हो रही हैं। अंग्रेजी में तो इसे लेकर एक नाम भी है- क्वीर  सिद्धांत और राजनीति (queer theory and politics)। इसका कोई समतुल्य नाम हिंदी में अभी चलन में नहीं आया है क्योंकि अपने यहां ये सवाल उस तरह ताक़तवर ढंग से नहीं उठे हैं जिस तरह पश्चिम में। लेकिन अब, धीरे-धीरे ये मुद्दे उठ रहे हैं। राजेश तिवारी द्वारा लिखित और उनके निर्देशन में श्रीराम सेंटर में हुए नाटक `नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है’ में लैंगिक विमर्श के ऐसे कई मसले उभरते हैं।

 पर इस नाटक में क्या-क्या है, ये जानने के पहले समझ लिया जाए कि आखिर क्वीर राजनीति मोटामोटी क्या है? क्वीर सिंद्धांत लैंगिक मसले में पारंपरिक विभाजन को अस्वीकार करता है। वो ये नहीं मानता है कि पुरुषत्व या नारीत्व के बीच जैविक को छोड़कर कोई सांस्कृतिक  कोई स्थायी विभाजक रेखा है। सरलीकृत रूप में कहें तो पुरुष भी तथाकथित रूप से नारी सुलभ व्यवहार कर सकता है और नारी पुरुषोचित। कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी डीके पांडा इस कारण चर्चा में आए थे कि वे औरतों में प्रचलित कपड़े और गहने पहनते थे, लिपिस्टिक- सिंदूर लगाते थे और अपने आप को दूसरी राधा बताते थे। तब वे मीडिया में छाए हुए थे। क्वीर सिद्धांत के तहत इसकी भी व्याख्या हुई थी। पर क्वीर सिद्धांत यहीं तक नहीं है। समलैंगिकता भी इसी क्वीर सिद्धांत या राजनीति का हिस्सा है।

`नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है’ ऐसे ही मसलों को सामने लाता है। इसमें कोई कहानी नहीं। बस, कुछ चरित्र हैं जो अलग-अलग  संदर्भों में अपने  किरदार निभाते हैं। लेकिन कई तरह के संदर्भ हैं जो मिथकीय भी हैं और वास्तविक घटनाओं से भी उठाए गए हैं। जैसै इसमें कामदेव के मिथक का इस्तेमाल हुआ है। नाटक की शुरुआत में कुछ चरित्र हैं जो हाथों में धनुष- बाण लिए हुए आते हैं। लेकिन ये सामान्य धनुष- बाण नहीं हैं। दोनों पर फूल लगे हैं। धनुषों पर भी और बाणों पर भी। 

जो भारतीय मिथकों से परिचित हैं वे जानते हैं कि कामदेव के बाण फूलों के होते हैं। कामदेव काम का देवता है। शिव के तीसरे नेत्र से कामदेव भस्म हो गया था लेकिन सिर्फ उसका शरीर नष्ट हुआ था। पर अशरीरी तौर पर वो सभी स्त्री- पुरुषों में है। जीव जंतुओं में भी। इसी को आज की भाषा में सेक्स कहा जाता है। हिंदी में यौनिकता। यौनिकता के कारण प्रेम भी होता है और यौन अपराध भी। ये भी देखने को आता है कि विभिन्न धर्मों के कुछ धर्मगुरु पाखंड की आड़ में यौन अपराध करते हैं और अपनी धार्मिक परंपराओं की आड़ में इन अपराधों से बरी भी हो जाते हैं। `नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है’ ऐसे कुछ प्रसंगों का उल्लेख भी करता है।

पर ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ धार्मिक या मजहबी आड़ में ही महिलाओं के खिलाफ अपराध होते हैं और आखिरकार अपराधी छूट जाते हैं। कई बार आधुनिक न्याय तंत्र भी महिलाओं पर हुए यौन अपराधों पर या तो मौन रह जाता है या फिर पुरुष सत्ता के पक्ष में झुक जाता है। सिर्फ भारत में ही नहीं। बाकी दुनिया में या दूसरे देशों में भी ऐसा हो रहा है। और फिर याद दिला दिया जाए कि ये नाटक सिर्फ महिलाओं पर हो रहे यौन अपराधों की शिनाख्त नहीं करता बल्कि समलैंगिकों या उभयलिंगियों को लेकर फैले और व्याप्त पूर्वग्रहों की भी पड़ताल करता है। और इसी कड़ी में प्रेम की धारणा की ओर भी जाता है कि वहां क्या हो रहा है? 

प्रेम को लेकर कई तरह के सिद्धांत और विचार रहे हैं। कवियों और शायरों से लेकर दूसरे साहित्यकारों ने प्रेम की बारीकियां खोली हैं। पर समानांतर रूप से दूसरा सच ये भी है कि अभी भी समाज में कई स्तरों पर प्रेम निषिद्ध है। प्रेमियों को दंडित भी किया जाता है और न्यायपालिका जैसी संस्थाएं भी या तो चुप लगा देती हैं।

दूसरे लफ्जों में कहें तो कानून इस बारे में `अंधा’ हो जाता है। ऐसे ही कुछ प्रसंगों की ओर संकेत करते हुए ये नाटक स्त्री-पुरुष संबंध, यौनिकता, प्रेम, न्याय, धार्मिक व मजहबी पांखडों और निजी जीवन में भी व्याप्त असंगतियों - दुराग्रहों  को अपने दायरे में लाता है और कई वाजिब प्रश्न पूछता है। जैसे ये कि क्या स्त्री-पुरुष के बीच उम्र के फासले अधिक हों तो क्या उसे निश्छल प्रेम कहेंगे या सिर्फ वासना?

नाटक का संगीत कथ्य को सघन बनाता है और मंचसज्जा तो न्यूनतम है। इसमें कुल पांच अभिनेता हैं। दो महिला अभिनेत्रियां - शुचि और सालू तथा तीन पुरुष अभिनेता कबीर खान, मनीष शर्मा व अशीष लाल भिन्न भिन्न स्थलों पर आते हैं और प्रसंगों के मुताबिक इनकी भूमिकाएँ भी बदलती रहती हैं। ज्यादातर दृश्यों में एक पुरुष अभिनेता आधुनिक वेशभूषा – शर्ट, पैंट और जैकेट – में होते हुए हाथ में बांसुरी लिए रहता है। क्या ये मिथकीय कृष्ण को आधुनिक प्रसंग में प्रस्तुत करने की कोशिश है। निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता पर  संकेत उसी दिशा में हैं।