सुप्रीम कोर्ट ने 5 नवंबर मंगलवार को यूपी मदरसा एक्ट को सही ठहराया। भारत के चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट के तीन-जजों की बेंच ने मंगलवार को 2004 के उत्तर प्रदेश बोर्ड ऑफ मदरसा शिक्षा अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। इस एक्ट को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया था। जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।
मार्च में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। लेकिन अप्रैल में, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला होने तक इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद यूपी सरकार ने मदरसों के खिलाफ तमाम फरमान जारी कर दिए थे। तमाम मदरसों की मनमानी जांच शुरू कर दी गई। हालांकि इन सभी मदरसों में आधुनिक शिक्षा दी जा रही थी लेकिन सरकार ने अपना आदेश जारी कर यह भी प्रचारित किया कि मदरसों में आधुनिक शिक्षा नहीं दी जा रही। हालांकि मदरसों के छात्र इतिहास, भूगोल, साइंस, मैथ्स आदि उर्दू या अरबी के जरिए पढ़ते हैं और यहां दीनी शिक्षा भी बच्चों को उसके साथ मिलती रही है।
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मदरसा अधिनियम मदरसा शिक्षा के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता है, जहां राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के पाठ्यक्रम के अलावा, धार्मिक शिक्षा भी प्रदान की जाती है। पूरे देश के राज्यों ने लगभग यूपी मदरसा एक्ट को लागू कर रखा है।
इसी कानून के तहत उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड बना है, जिसमें मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय के सदस्य शामिल हैं। बोर्ड के कार्य अधिनियम की धारा 9 के तहत विस्तारित हैं, और इसमें 'मौलवी' (कक्षा 10 के बराबर) से 'फ़ाज़िल' (मास्टर के बराबर) तक सभी पाठ्यक्रमों के लिए पाठ्यक्रम सामग्री तैयार करना और निर्धारित करना और परीक्षा आयोजित करना शामिल है। यानी फाजिल की डिग्री मास्टर्स कहलाती है। जबकि मौलवी का प्रमाणपत्र दसवीं क्लास के बराबर है।
सुप्रीम कोर्ट में मामला आने के बाद यूपी सरकार ने अपना स्टैंड भी बदला। अपना रुख स्पष्ट करते हुए, उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट बेंच को बताया था कि उसका मानना है कि कानून संवैधानिक है। अधिनियम को पूरी तरह से रद्द करने की आवश्यकता नहीं है और केवल आपत्तिजनक प्रावधानों की जांच की जानी चाहिए। हालांकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जब एक्ट को रद्द किया था तो भाजपा के नेताओं ने जोरशोर से उसका स्वागत किया था।
फैसला सुनाते हुए सीजेआई ने यह भी कहा, “धार्मिक शिक्षा के स्थानों में मानकों को सुनिश्चित करने में भी राज्य की महत्वपूर्ण रुचि है। आप इसकी ऐसी व्याख्या करें। लेकिन अधिनियम को बाहर फेंकना बच्चे को नहाने के पानी के साथ बाहर फेंकना है।''
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि 2004 अधिनियम के कुछ प्रावधान, जो बोर्ड को कामिल, फाजिल आदि जैसी डिग्री देने का अधिकार देते हैं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम, 1956 के प्रावधानों के साथ नहीं टकराते हैं। जहां सिर्फ विश्वविद्यालयों के भीतर ही यूजीसी के नियम-कानून चलते हैं। मदरसे में नहीं। दोनों अलग संस्थाएं हैं।