बीजेपी के मिशन 2022 के साथ ही यूपी में विधानसभा चुनाव के लिए बिगुल लगभग बज चुका है। कोरोना महाआपदा में सरकारी बदइंतजामी और मौतों की भयावहता के कारण बीजेपी सरकार की तीखी आलोचना हो रही है। लेकिन इससे बेपरवाह बीजेपी और संघ चुनाव के लिए रणनीति तैयार कर रहे हैं।
यूपी में प्रशासनिक असफलता और सरकारी बदइंतजामी का कारण योगी आदित्यनाथ का तानाशाहीपूर्ण रवैया है। गोरखपुर मठ के महंत यूपी के प्रशासन को भी मठाधीशी अंदाज में चलाते हैं। उन्होंने 4 साल में ना तो अपनी पार्टी के नेताओं और विधायकों को खास तवज्जो दी और ना ही जनता के सरोकारों को।
योगी पहले मुख्यमंत्री हैं जिनके खिलाफ सत्तादल के 100 से अधिक विधायक विधानसभा में धरना-प्रदर्शन कर चुके हैं।
योगी अपनी आलोचना और सरकार की सच्चाई को बेपर्दा करने वालों को कतई नहीं बख्शते। उन्होंने आलोचना करने वाले मंत्रियों और विधायकों को दरकिनार कर दिया।
गोरखपुर चिकित्सा केंद्र में ऑक्सीजन की कमी से बच्चों के मरने की बात बेपर्दा करने वाले डॉ. कफील पर राजद्रोह का मुकदमा लाद दिया गया। विदित है कि यूपी हाई कोर्ट ने कफील पर लगे राजद्रोह के मुकदमे को खारिज करते हुए इसे बदले की कार्रवाई बताया था। इसी प्रकार पिछले दो सालों में प्रशांत कनौजिया सहित दर्जनों पत्रकारों को जेल भेजा गया। इन पत्रकारों ने मिड डे मील में गड़बड़ी और घास खाते गरीबों जैसे जन सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्टिंग की थी।
योगी के इस रवैये और आपदा में बदइंतजामी से हुए डैमेज को कंट्रोल करने के लिए बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व यूपी सरकार में फेरबदल करने जा रहा है। इस बीच यूपी में विपक्ष की भूमिका को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं।
एसपी, कांग्रेस और बीएसपी जैसी दिग्गज पार्टियों और दस छोटे छोटे दलों के गठबंधन वाले भागीदारी संकल्प मोर्चा की उपस्थिति के बावजूद यूपी में विपक्ष को कमजोर बताया जा रहा है।
विपक्ष के ख़िलाफ़ प्रोपेगेंडा
दरअसल, यह एक प्रोपेगेंडा है जो पिछले एक दशक से लगातार मीडिया और बीजेपी द्वारा फैलाया जा रहा है। “विपक्ष कमजोर है। इसलिए उसकी कोई भूमिका नहीं हो सकती।” - यह प्रोपेगेंडा संसदीय राजनीति में विपक्ष की भूमिका के प्रति असम्मान को ही नहीं दर्शाता बल्कि एक चालबाजी को भी स्पष्ट करता है।
इस प्रोपेगेंडा के मार्फत जनमानस को समझाया जाता है कि उसके पास बीजेपी को चुनने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है; भले ही वह सरकार या पार्टी से कितना भी नाखुश हो। इन दिनों फिर से विपक्ष की निष्क्रियता की चर्चा जोरों पर है।
आख़िर, विपक्ष सक्रिय क्यों नहीं है? क्या विपक्ष में चुनाव जीतने की बेसब्री चुक गई है? क्या विपक्ष बिल्ली के भाग से छींका टूटने का इंतजार कर रहा है? यूपी में सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में समाजवादी पार्टी है। सपा मुखिया अखिलेश यादव नौजवान हैं। लेकिन उन पर आरोप लगाया जाता है कि वे अपने हमउम्र नेताओं की चालबाजियों में फंसे रहते हैं।
एसपी ने किया संघर्ष
क्या वास्तव में यह मीडिया द्वारा प्रायोजित एक प्रोपेगेंडा है? एसपी नौजवानों की पार्टी है। नागरिकता विरोधी कानून और कानून व्यवस्था जैसे मुद्दों पर एसपी के नौजवान कार्यकर्ता आंदोलन करते रहे हैं। किसान आंदोलन के समर्थन में गाँव -कस्बों में होने वाले एसपी के अभियान में इन नौजवानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। उन्होंने लाठियां खाईं और जेल गए। लेकिन कहीं अखबारों और चैनलों में सुर्खियाँ बनाने में वे कामयाब नहीं रहे।
कुछ हद तक ये आरोप सही भी हैं। पार्टी को जिस तरह से सरकार पर हमला बोलना चाहिये, उसमें वो विफल दिखती है। कोरोना के पहले फेज के सुस्त होते ही अखिलेश यादव जनवरी में सक्रिय हो गए थे। उन्होंने कई जिलों में जनसंपर्क किया, प्रशिक्षण शिविर लगाए। लेकिन अपने पिता मुलायम सिंह यादव की तरह अखिलेश यादव सड़क पर संघर्ष करते हुए नहीं दिखाई दिए।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि आज यूपी में बीजेपी से लड़ने के लिए बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरह मेहनती और संघर्षशील नेता की जरूरत है।
मायावती की रणनीति
मायावती ने लंबे समय से आंदोलन करना छोड़ दिया है। वे चुनाव से पहले कुछ बड़ी रैलियों के जरिए अपनी ताकत का प्रदर्शन करती हैं। उनके पास करीब 20 फ़ीसदी दलित वोट माना जाता है। इस मजबूत आधार के बूते, वे टिकट बांटने की रणनीति के जरिए चुनाव फतह करना चाहती हैं।
इस बार मायावती बीजेपी से ब्राह्मणों की नाराजगी को भुनाना चाहती हैं। वे ब्राह्मणों को आगे करके 2007 वाली रणनीति तैयार कर रही हैं। चर्चा है कि मायावती सौ से अधिक ब्राह्मणों को टिकट देने जा रही हैं। मायावती की खामोशी में चुनाव बाद की भी रणनीति हो सकती है। किसी दल को पूर्ण बहुमत ना मिलने की स्थिति में वे मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद तलाशती रहती हैं।
प्रियंका गांधी की सक्रियता
हाल के दिनों में विपक्ष में कांग्रेस ने एक मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है। लेकिन अभी कांग्रेस के पास कोई ठोस जनाधार नहीं है। सभी जिलों में उसका संगठन भी दुरुस्त नहीं हैं। प्रियंका गांधी ट्वीट के जरिए तमाम बुनियादी मसलों पर लगातार योगी आदित्यनाथ को घेरती रही हैं। कोरोना आपदा में वे योगी की नाकामियों को बेपर्दा कर रही हैं।
कभी-कभी तो प्रियंका गाँधी ने उनके लिए बहुत मुश्किलें खड़ी की हैं। मसलन, मार्च 2020 के लॉकडाउन के बाद पैदल ही हजारों किलोमीटर का सफर तय करने वालों के लिए जब प्रियंका गांधी ने 1000 बसों का इंतजाम किया तो योगी सरकार ने बड़ा अविवेकपूर्ण कदम उठाते हुए बसों को फर्जी बताकर लौटा दिया।
कई बार प्रियंका गांधी आदिवासियों, दलितों और औरतों के उत्पीड़न पर सरकार को घेरने के लिए कभी स्कूटी पर तो कभी पैदल ही निकल पड़ीं। हाथरस की दलित बेटी के बलात्कार के मामले को भी उन्होंने जोर-शोर से उठाया था।
उसी तरह प्रियंका गाँधी इस समय भी ट्वीट करके गंगा-यमुना के किनारे दफनाई गईं लाशों के मामले को बेपर्दा कर रही हैं। कोरोना काल की सरकारी बदइंतजामी पर प्रियंका गाँधी लगातार मोदी और योगी को निशाना बना रही हैं।
सीबीआई और ईडी का डर
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि मायावती और अखिलेश यादव की खामोशी का एक कारण सीबीआई और ईडी का डर भी है। यह कितना सच है, ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह जरूर है कि अगर विपक्ष इस समय सक्रिय होता है तो आपदा कानून के नाम पर विरोधियों का दमन करने में कोई कोताही नहीं होगी। इन विपरीत हालातों में विपक्ष ट्वीट और सवालों के जरिए अपनी भूमिका अदा कर रहा है। इसलिए विपक्ष को खामोश और निष्क्रिय कहना बेमानी ही नहीं चालबाजी भी है।