उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इस बार मायावती की अगुवाई वाली बीएसपी बुरी तरह ढेर हो गई। 2007 में अपने दम पर सरकार बनाने वाली बीएसपी को इस बार के चुनाव में सिर्फ एक सीट पर जीत मिली है और 12.9 फीसद वोट मिले हैं। पार्टी के इस प्रदर्शन से सवाल यह खड़ा होता है कि क्या बीएसपी फिर से अपने पैरों पर खड़ी हो पाएगी या नहीं?
उत्तर प्रदेश में पिछले 5 साल की राजनीति में बीएसपी प्रमुख मायावती पर योगी सरकार के खिलाफ नरम होने के तमाम आरोप लगते रहे। चुनाव आते-आते मुकाबला दो ध्रुवीय हो गया और यह नतीजों में भी दिखाई दिया।
मायावती के अलावा कांग्रेस और जनसत्ता दल लोकतांत्रिक को 2-2, सीटों पर जीत मिली है जबकि बाकी सीटें बीजेपी और समाजवादी पार्टी और उनके सहयोगी दलों ने जीत ली हैं।
सोशल इंजीनियरिंग फेल
उत्तर प्रदेश में दलित समुदाय की बड़ी नेता मानी जाने वालीं मायावती की पार्टी इस चुनाव में औंधे मुंह गिर जाएगी ऐसा शायद किसी ने नहीं सोचा था। बीएसपी ने इस बार अपने ब्राह्मण नेता सतीश चंद्र मिश्रा के जरिए पूरे प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग यानी दलित और ब्राह्मण समुदाय को साथ लाने की कोशिश की थी।
बीएसपी को चुनाव में किंग मेकर जरूर माना जा रहा था लेकिन पार्टी को जो वोट मिले हैं वह उसका 1993 के बाद का सबसे खराब प्रदर्शन है। 1993 में बीएसपी को उत्तर प्रदेश में 67 सीटों पर जीत मिली थी और तब उसे 11.2 फीसद वोट मिले थे।
उसके बाद से भी बीएसपी भले ही कई बार हारी हो लेकिन कभी भी उसे उत्तर प्रदेश में 19 फीसद से कम वोट नहीं मिले। 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता था लेकिन तब भी उसे 19.77 फीसद वोट मिले थे। इसी तरह 2017 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी को सिर्फ 19 सीटों पर जीत मिली थी लेकिन तब भी वह 22.23 फीसद वोट हासिल करने में कामयाब रही थी।
2019 के लोकसभा चुनाव में जब उसने सपा के साथ गठबंधन किया था और 10 सीटें जीती थी तब भी उसने 22 फीसद वोट हासिल किए थे।
सिर्फ़ जाटव मतदाताओं ने दिया साथ
मायावती जिस जाटव बिरादरी से आती हैं उसकी आबादी अकेले उत्तर प्रदेश की 21 फीसद दलित आबादी में 13 फीसद है। चुनाव विश्लेषक संजय कुमार द इंडियन एक्सप्रेस से कहते हैं कि इस चुनाव में सिर्फ जाटव मतदाताओं ने ही बीएसपी के हक में मतदान किया जबकि पार्टी गैर जाटव दलितों का समर्थन हासिल नहीं कर सकी। इसके अलावा बाकी जातियों का तो समर्थन उसे मिला ही नहीं।
संजय कुमार कहते हैं कि बीएसपी को हमेशा 20 से 23 फीसद मुसलिम वोट मिलता रहा है लेकिन इस चुनाव में बीएसपी को बीजेपी से भी कम मुसलिमों का वोट मिला।
संजय कुमार के मुताबिक़, बीएसपी को तीन से चार फीसद मुसलिमों का वोट मिला जबकि बीजेपी सात से आठ फीसद मुसलिमों के वोट अपनी झोली में डालने में कामयाब रही।
बेहद कम सक्रियता
चुनाव में मायावती, योगी आदित्यनाथ, अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी के मुकाबले बेहद कम सक्रिय दिखीं और उन्होंने सिर्फ 18 चुनावी रैलियां की। जबकि योगी आदित्यनाथ ने 203 रैलियां और रोड शो किए, प्रियंका गांधी ने 209 और अखिलेश यादव ने 130 से ज्यादा रैलियां और रोड शो किए।
सवाल यही है कि क्या बीएसपी की राजनीति अब खत्म हो गई है। बीएसपी का मुख्य आधार उत्तर प्रदेश ही है। इसके अलावा उत्तराखंड, पंजाब में भी उसका थोड़ा बहुत आधार है। उत्तराखंड में उसे इस बार 2 सीटों पर जीत मिली है जबकि एक वक्त में वह वहां 8 सीटें जीत चुकी है।
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने इस बार बीएसपी के साथ गठबंधन किया था लेकिन इसका अकाली दल को कोई फायदा नहीं मिला। पंजाब में बीएसपी को 1.77 फीसद वोट मिले हैं और सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल हुई है जबकि पंजाब में दलित आबादी 34 फीसद से ज्यादा है।
उत्तराखंड में बीएसपी सिर्फ 4.82 फीसद मत हासिल कर सकी है। बाकी दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी बीएसपी का संगठन है लेकिन वहां वह कोई बड़ी ताकत नहीं है। राजस्थान में पिछले विधानसभा चुनाव में बीएसपी कुछ सीटों पर जीत मिली थी लेकिन उसके सभी विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए थे।
बीएसपी वन मैन आर्मी पार्टी है यानी कि पार्टी के अंदर मायावती के फैसले ही सर्वमान्य होते हैं और कहा जाता है कि उनके फैसलों को चुनौती देने का मतलब है पार्टी से बाहर जाना। पार्टी के तमाम बड़े नेता बीएसपी का साथ छोड़ चुके हैं और अब उत्तर प्रदेश में मात्र एक विधायक वाली पार्टी का कितना वजूद रह गया है यह भी बताने की जरूरत नहीं है।
हालांकि मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार के बेटे आनंद प्रकाश को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में खड़ा करना शुरू किया है। और विधानसभा चुनाव के दौरान उन्हें कई राज्यों में बीएसपी के संगठन का काम देखने के लिए भेजा गया।
उत्तर प्रदेश में भी आकाश आनंद को कुछ चुनावी रैलियों में आगे लाया गया। मायावती ने उन्हें बीएसपी का नेशनल कोआर्डिनेटर बनाया है। लेकिन सवाल यही है कि क्या आकाश आनंद बीएसपी को उस ऊंचाई तक ले जाएंगे जहां तक इसे मायावती और कांशीराम एक वक्त में ले गए थे।
ताजा हालात में इस सवाल का जवाब सिर्फ ना में नजर आता है लेकिन सियासत में वक्त कब बदल जाए नहीं कहा जा सकता। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि लंबे वक्त तक उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर रही बीजेपी आज अपने दम पर दूसरी बार सरकार बनाने जा रही है। लेकिन बीएसपी के पास बीजेपी जैसा संगठन और नेता बिलकुल भी नहीं हैं।
ऐसे में वह क्या फिर से उत्तर प्रदेश की सियासत में खड़ी हो पाएगी, यह सवाल कांशीराम और मायावती के समर्थकों को भी लगातार परेशान कर रहा है।