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जानिए, किस वजह से यूपी में चुनावी आकलन ग़लत साबित हुए

जानिए, किस वजह से यूपी में चुनावी आकलन ग़लत साबित हुए

यूपी चुनाव के आकल ग़लत साबित क्यों हुए? क्या इसलिए कि काँटे की टक्कर थी और जीत का अंतर कम था? क्या इसमें जातिगत समीकरणों का बड़ा हाथ था?

आज रविवार है तो सोचा 6 महीने यूपी चुनाव कवरेज के बारे में और परिणामों पर चर्चा की जाए। तो सबसे पहले तो ये कि नतीजों को लेकर ख़ास तौर पर सीटों को लेकर मेरा आकलन पूरी तरह ग़लत निकला। लेकिन कई लोग ऐसे हैं जो पिछले चार-छह महीने से घर, ऑफ़िस या अपने गाँव, मोहल्ले या ज़िले से बाहर नहीं गए और सीटों पर उनका आकलन बिल्कुल सटीक रहा। मैं नवंबर के पहले तक ये मानता था कि यूपी में अखिलेश यादव लड़ाई में कहीं नहीं थे और बीजेपी 300 या आगे जितना भी जा सकती थी। लेकिन कृषि क़ानूनों के वापस लेने और चुनावों की घोषणा के बाद पिछड़े नेताओं की लामबंदी और मुसलिम वोटों का सपा की तरफ़ एकतरफ़ा झुकाव ने चुनाव को रोचक बना दिया। 

मैंने ‘माहौल क्या है’ के क़रीब 200 एपिसोड किए। चुनाव की घोषणा के बाद लोगों की लामबंदी साफ़ दिखने लगी थी। 

मैं पश्चिम में बागपत, शामली, मेरठ, मुज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर जाऊँ तो जाट, मुसलिम साथ आते आश्चर्यजनक रूप से दिखे (जो नतीजों में कमोबेश दिखा)। मैं रामपुर, अमरोहा, मुरादाबाद, संभल जैसे मुसलिम बेल्ट जाऊँ तो एकतरफ़ा झुकाव, वैसे ही ग़ाज़ीपुर, आज़मगढ़, बलिया, मऊ, जौनपुर, आंबेडकरनगर, अयोध्या, संतकबीरनगर, बस्ती, सु्लतानपुर, अमेठी, रायबरेली, प्रतापगढ़, प्रयागराज जैसे ज़िलों में जाऊँ तो यादव छोड़कर दूसरे ओबीसी भी बीजेपी के साथ उतने नहीं दिखे जितने पहले के तीन चुनावों में थे। 

मुझे ये तो पता था कि तक़रीबन शहरी सौ सीटों पर सपा की बोहनी मुश्किल है। कुल मिलाकर लड़ाई दो तरफ़ा दिख रही थी जिसमें बीजेपी को बढ़त दिख रही थी पर जितनी सीटें आईं उतनी तो मुझे नहीं दिखीं या मैं देख न सका और मुझे लगता है कि कहीं भी ऐसी लड़ाई फिर हुई तो मेरा आकलन फिर ग़लत होगा। 

इसकी कुछ वजहें हैं- शायद आप सहमत हों या न भी हों। 

  • नंबर एक, जब 250 सीटों पर एक उम्मीदवार एक लाख के आसपास और दूसरा 80 हज़ार के आसपास पा रहा हो तो आप क़तई अंदाज़ा नहीं लगा सकते। 
  • नंबर दो, नतीजों के आँकड़े बता रहे कि 49 सीटों पर जीत हार का अंतर 5 हज़ार से कम रहा तो आस्था, निष्ठा वाला तो दावा कर सकता है लेकिन मेरे जैसा आदमी फिफ्टी-फिफ्टी ही कैलकुलेट करेगा। 
  • नंबर तीन, जातिवाद इतना भयंकर चल रहा था और चला भी कि अन्य ओबीसी अपने जाति के कैंडिडेट के साथ बड़ी मात्रा में गए और पूर्वांचल में सपा के साथ, नहीं तो केशव मौर्य चुनाव नहीं हारते।

बीएसपी के वोटर कहाँ गए?

बीजेपी की लहर चल रही होती तो ग्यारह मंत्री चुनाव न हारते और नाहिद हसन, दारा चौहान, ओम प्रकाश राजभर, ओम प्रकाश सिंह (ग़ाज़ीपुर), राम अचल राजभर, लालजी वर्मा संदीप पटेल (मेजा) जैसे बहुत लोग चुनाव न जीतते जहाँ अन्य ओबीसी के मतों से जीते। फिर कह रहा हूँ कि बीएसपी के वोटर को जहाँ लगा कि बीएसपी जीत रही है वहाँ वो बीएसपी पर रहा और जहां लगा कि लड़ाई में नहीं है तो ज़्यादातर बीएसपी वोटर ने मोदी, योगी की तरफ़ रूख किया। राशन और क़ानून व्यवस्था केवल दो मुद्दे बीजेपी के लिए काम करते रहे। मुझे लगता है कि आज़ादी के बाद पहली बार यूपी चुनाव में मुसलमानों ने सपा गठबंधन को और सवर्णों ने बीजेपी को एकमुश्त वोट दिया। 

समाजवादी पार्टी इससे अच्छा चुनाव लड़ने की ताक़त नहीं रखती थी लेकिन बीजेपी को हराने के लिए इतना बहुत कम है। बीजेपी ने दलित वोटों में सेंधमारी जारी रखी तो अमित शाह ठीक कहते हैं पचास साल हराना मुश्किल होगा। और अंत में, देश में चुनाव तो पूरे साल होते हैं, अगले चुनाव में भी आप माहौल क्या है, देखेंगे। मेरा वादा है कि उसमें भी विरोध और विपक्ष की आवाज़ होगी। और हाँ, लड़ाई यूपी जैसी होगी तो फिर मेरा आकलन भी ग़लत होगा।

(राजीव रंजन सिंह की फ़ेसबुक वाल से)

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