क्या मोदी और योगी में ठन गयी है?
क्या उत्तर प्रदेश में बीजेपी का संकट बढ़ता जा रहा है? क्या यह साल 2018 में राजस्थान बीजेपी के राजनीतिक संकट की याद दिला रहा है? क्या केन्द्रीय नेतृत्व और यूपी के मुख्यमंत्री के बीच दरार इतनी बढ़ गई है कि अब उसे पाटना मुश्किल होता जा रहा है? क्या साल 2022 के चुनाव में बीजेपी अब भी योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही मैदान में उतरेगी? क्या योगी ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है?
ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिन्होंने बीजेपी और आरएसएस के नेताओं की नीद उड़ा दी है। संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले और फिर बीजेपी के राष्ट्रीय संगठन मंत्री बी.एल. संतोष की कोशिशें रंग ला पाएंगी। प्रदेश में बीजेपी नेता भी परेशान हैं कि वो किस खेमे का साथ दें?
लेकिन इतना तय है कि पार्टी के लिए प्रधानमंत्री मोदी से बड़ा नेता और चुनाव के लिए बड़ा चेहरा कोई नहीं है। फिलहाल हर कोई इस संकट को ख़त्म करने में लगा है।
बीजेपी के उत्तर प्रदेश के प्रभारी राधा मोहन सिंह की रविवार को दिल्ली से लखनऊ पहुंच कर राज्यपाल आनंदीबेन पटेल और फिर विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित से मुलाकात ने अटकलों को हवा दी है।
राजस्थान का घटनाक्रम
बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने याद दिलाया कि ऐसा ही विवाद साल 2018 के विधानसभा चुनावों से पहले राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और केन्द्रीय नेतृत्व के बीच दिखाई दिया था। साल 2018 के चुनावों में राज्य में तब बीजेपी का सफाया हो गया था। यूपी में पन्द्रह साल बाद 2017 में बीजेपी सत्ता में लौटी थी, 325 सीटों की मजबूत ताकत के साथ और योगी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी गई, भले ही उनके नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ा गया था।
हिन्दुत्व की राजनीति का एजेंडा
बीजेपी में इस बात को लेकर जब चर्चा होने लगी है कि योगी आदित्यनाथ किस हद तक जा सकते हैं तो इसे समझने के लिए योगी के राजनीतिक जीवन को समझना ज़रूरी है। यूँ तो योगी आदित्यनाथ 1998 से सांसद रहे, लेकिन जिस दिन उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली उसी दिन से इस बात पर बहस छिड़ गई कि क्या किसी मंदिर का एक महंत देश के सबसे बड़े प्रदेश की सरकार को चला सकता है?
एक ऐसा संन्यासी-नेता, जिसे शासन चलाने का बिलकुल अनुभव नहीं, और जो कट्टर हिन्दुत्व की राजनीति करता है, किस प्रकार इतने बड़े राज्य की बागडोर संभालेगा? क्या उनकी सरकार में अल्पसंख्यकों का जीवन सुरक्षित रह पाएगा? कहा जाने लगा था कि अब बीजेपी का हिन्दुत्व की राजनीति का एजेंडा खुल कर सामने आ गया है और बीजेपी आलाकमान ने आरएसएस के साथ मिलकर सिर्फ़ इसी एजेंडे को पूरा करने के लिए योगी को चुना है।
योगी आदित्यनाथ 1998 से गोरखपुर से सांसद रहे हैं। उन्होंने कभी बीजेपी के भरोसे चुनाव नहीं लड़ा, और न बीजेपी के नाम पर अपनी जीत दर्ज करते रहे। बल्कि सच तो ये है कि बीजेपी गोरखपुर सीट जीतने के लिए अनचाहे ही सही, उन्हें टिकट देती रही। योगी आदित्यनाथ लगातार पाँच बार जीते और लोकसभा में पहुँचे।
साल 2017 में यूपी के विधानसभा चुनावों के दौरान भी पहले चरण के चुनाव प्रचार में योगी का नाम बीजेपी के चालीस स्टार प्रचारकों की लिस्ट में भी शामिल नहीं था। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनाव सभाओं के लिए उनकी माँग बनी हुई थी और वे गोरखपुर से लखनऊ होते हुए हर दिन सुबह से शाम प्रचार के काम में लगे रहे।
देखिए, इस विषय पर चर्चा-
हालाँकि चुनाव प्रचार में लगे योगी आदित्यनाथ बीच-बीच में पार्टी से नाराज़ भी रहे। सभी चरणों के चुनाव हो जाने के बाद भी जब पीएमओ ने उनके विदेश दौरे को रद्द कर दिया तो उन्हें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ हुई।
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उनसे फ़ोन पर कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय से आदेश मिला है - चुनाव नतीजों के बाद वे दिल्ली में ही रुकें। शायद आदित्यनाथ को इस बात का अहसास नहीं होगा कि किस्मत में विदेश यात्रा से कहीं बड़ा कुछ लिखा है उनके लिए।
संघ योगी के साथ
संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने मुझे बताया कि आरएसएस के वरिष्ठ नेता कृष्ण गोपाल शुरू से ही योगी आदित्यनाथ के पक्ष में थे। उनका मानना था कि हिन्दुत्व की बात को आगे बढ़ाने और संघ के एजेंडे के लिए योगी जैसा व्यक्तित्व ज़रूरी है। उन्होंने यह संदेश संघ के दूसरे वरिष्ठ नेता भैया जी जोशी तक पहुँचाया, उनसे बात की। फिर सरसंघचालक मोहन भागवत जी से सलाह-मशविरा हुआ। इसके बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को यह संदेश भिजवाया गया कि संघ को लगता है कि योगी बेहतर उम्मीदवार हो सकते हैं, फ़ैसला आपको करना है।
पार्टी के ख़िलाफ़ लाइन
योगी आदित्यनाथ हमेशा अपने विचारों और विश्वास के साथ चलते हैं और कई बार इसके लिए पार्टी के बने रास्ते को छोड़ने में भी नहीं हिचकिचाते। मार्च 2010 में जब संसद में महिला आरक्षण बिल पर बीजेपी ने सदन में हाज़िर रहने के लिए व्हिप जारी किया था तो उन्होंने उसको नहीं माना। योगी का कहना था कि वे किसी भी तरह के आरक्षण के ख़िलाफ़ हैं।
संसद और विधानसभाओं में पहुँचने के लिए सबको अपनी योग्यता के आधार पर जगह मिलनी चाहिए, न कि आरक्षण के रास्ते। योगी का मानना था कि बीजेपी नेतृत्व कांग्रेस और यूपीए सरकार के दबाव में आ गया। व्हिप नहीं मानने के बाद भी बीजेपी योगी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं दिखा पाई।
विराट हिन्दू सम्मेलन का आयोजन
योगी बीजेपी को अपनी ताक़त दिखाने के लिए अक्सर कुछ न कुछ करते रहते हैं ताकि पार्टी को उनकी ज़रूरत और ताक़त समझ में आती रहे। साल 2006 में 22 से 24 दिसम्बर तक लखनऊ में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक चल रही थी। उसी दौरान योगी ने गोरखपुर में तीन दिन के विराट हिन्दू सम्मेलन का आयोजन किया और संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कई बड़े नेताओं ने इस हिन्दू सम्मेलन में हिस्सा लिया, लेकिन पार्टी कुछ नहीं कर पाई।
साल 1998 में गोरखपुर से पहली बार सांसद चुने जाने के बाद आदित्यनाथ लगातार पाँच बार यह सीट जीत चुके हैं। उस वक्त वे सबसे कम उम्र के सांसद भी रहे। लेकिन 1999 में ही एक घटना ने योगी को यूपी की राजनीति के केन्द्र में ला दिया। तब उत्तर प्रदेश में बीजेपी के कल्याण सिंह की सरकार थी और 10 फरवरी 1999 को महाराजगंज के एक गांव पंचरुखिया में दो सम्प्रदायों के बीच तनाव हो गया।
प्रशासन ने इसमें कोई दखल नहीं दिया तो योगी ने पुलिस अधीक्षक से बात की। मामला कुछ दिनों के लिए शांत हुआ, लेकिन फिर विवाद बढ़ गया। इस पर योगी भी वहाँ पहुँच गए। पुलिस प्रशासन ने योगी आदित्यनाथ की गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए। गोरक्षपीठ को पुलिस ने घेर लिया। तब महंत अवैद्यनाथ ने दिल्ली में गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी और बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे से फोन पर बात की। उसके बाद पुलिस का घेराव खत्म हुआ। महंत अवैद्यनाथ के दबाव के बाद डीआईजी का तबादला कर मामले को संभालने की कोशिश की गई।
टिकट वितरण में योगी का दख़ल
योगी की लोकप्रियता की एक बड़ी वजह चुनावों में उम्मीदवारों के सलेक्शन में उनकी अहम हिस्सेदारी का होना है। योगी की पसंद के उम्मीदवारों को बीजेपी के टिकट बँटवारे में हमेशा जगह मिलती रही है जिससे उनका दबदबा बरकरार रहता है, और यदि कभी पार्टी ने उनकी बात नहीं मानी तो वे अपना उम्मीदवार मैदान में उतारने और उसे जिताने की ताक़त भी रखते रहे हैं।
मिसाल के तौर पर जब यूपी में 2002 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने उनकी पसंद के उम्मीदवार की बजाय अपने कैबिनेट मंत्री शिव प्रताप शुक्ल को टिकट दे दिया तब योगी ने बीजेपी के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार राधा मोहन दास अग्रवाल को हिन्दू महासभा के टिकट से उतार दिया और जीत दिलवाई। साल 2007 और 2012 के चुनावों में भी उन्होंने अपने बहुत सारे उम्मीदवारों को टिकट दिलाने में कामयाबी हासिल की।
2017 के चुनावों की शुरुआत में योगी और बीजेपी के नेताओं के बीच तनातनी-सी महसूस हो रही थी। योगी ने हिन्दू युवा वाहिनी के टिकट पर कई उम्मीदवार उतारे जाने का इशारा भी कर दिया था, लेकिन बाद में काफी हद तक उनकी बात मान ली गई।
अपने ‘हठयोग’ की वजह से 2007 में योगी आदित्यनाथ को जेल भी जाना पड़ा। 30 दिसम्बर 2006 को इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फाँसी की सजा दी गई थी। इसके विरोध में भारत में कुछ कट्टरपंथियों ने विरोध जताया और हिंसक प्रदर्शन भी हुए। यूपी में मुलायम सिंह यादव की सरकार की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं की गई। गोरखपुर में भी ऐसे प्रदर्शन होते रहे। तब योगी की अगुवाई में मुलायम सिंह सरकार को बर्खास्त करने की माँग की गई और गोरखपुर बंद का आयोजन किया गया। इस दौरान कई हिंसक घटनाएँ हुईं और प्रदर्शन हुए।
प्रशासन ने योगी की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए। जब जिलाधीश ने योगी से कहा कि उन्हें गिरफ्तार करके जेल नहीं ले जाया जाएगा, सिर्फ़ मंदिर में नज़रबंद रखेंगे। योगी ज़िद पर अड़ गए कि अगर उन्हें गिरफ्तार करना है तो फिर जेल ले जाया जाए।
योगी समर्थकों का प्रदर्शन
ज़िद के बाद जब प्रशासन योगी को जेल ले जाने लगा तो पूरी सड़क योगी समर्थकों से पटी हुई थी और जेल तक के दो किलोमीटर के रास्ते को तय करने में आठ घंटे लग गए। दूसरी तरफ आदित्यनाथ की गिरफ्तारी के विरोध में उनके समर्थकों ने पूर्वांचल में चक्का जाम कर दिया और कई जगह प्रदर्शन और हिंसक घटनाएं भी हुई। इसके बाद हिन्दू युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं और योगी के बहुत से समर्थकों को गिरफ्तार किया गया, मुकदमे दर्ज किए गए। इस सबके ख़िलाफ़ योगी का गुस्सा संसद में फूट पड़ा।
भावुक हुए थे योगी
दिन था 12 मार्च का और साल था 2007। वामपंथी नेता सोमनाथ चटर्जी लोकसभा के अध्यक्ष थे। केन्द्र में यूपीए की सरकार थी। सांसद योगी आदित्यनाथ ने बोलने की इजाज़त माँगी। उनकी आवाज़ में कंपन था, आँखों में आँसू। संसद में हर कोई उनकी तरफ देख रहा था।
योगी ने कहा, “अध्यक्ष जी, पिछले कुछ समय से जिस तरह से मुझे राजनीतिक विद्वेष के साथ राजनीतिक पूर्वाग्रह का शिकार बनाया जा रहा है, मैं आपसे अनुरोध करने आया हूँ कि मैं इस सदन का सदस्य हूँ या नहीं? अगर यह सदन मुझे संरक्षण नहीं दे सकता है तो मैं आज ही इस सदन को छोड़कर वापस जाना चाहता हूँ। मेरे लिए यह कोई महत्व नहीं रखता है।"
सदन में सन्नाटा पसर गया। योगी ने कहा, “महोदय, मैंने अपने जीवन से संन्यास लिया है। समाज के लिए मैंने अपने परिवार को छोड़ा है। मुझे अपराधी बनाया जा रहा है, केवल राजनीतिक पूर्वाग्रह के साथ, क्योंकि मैंने वहाँ भ्रष्टाचार के मामले उजागर किए थे, क्योंकि मैंने भारत-नेपाल सीमा पर आईएसआई और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी और उसके ख़िलाफ सदन का ध्यान भी आकर्षित करता रहा हूँ। इसलिए मेरे ख़िलाफ सारे मामले बनाए जा रहे हैं।" योगी ने लोकसभा से इस्तीफ़ा देने की धमकी दे डाली, और योगी संसद से निकल कर यूपी की मुलायम सिंह सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन के लिए सड़क पर उतर गये।
कहां तक जाएंगे योगी?
योगी आदित्यनाथ कहां तक जाएंगे यह तो किसी को नहीं पता, लेकिन उन्हें पार्टी का पिछला इतिहास भी याद रख लेना चाहिए, जहां बलराज मधोक से लेकर कल्याण सिंह, गोविन्दाचार्य, उमा भारती, येदियुरप्पा जैसे दिग्गज नेताओं का पार्टी का साथ छोड़ने के बाद क्या हुआ? और जिन्ना प्रकरण पर जिद करने का नुकसान एक ज़माने के ‘हिंदू हृदय सम्राट’ रहे लालकृष्ण आडवाणी को कितना उठाना पड़ा? लेकिन अक्सर सत्ता के आसमान से हकीकत की ज़मीन साफ दिखाई नहीं देती।