इस्लामोफोबिया से मुकाबिल संयुक्त राष्ट्र संघः एक प्रशंसनीय पहल
कुछ सालों पहले संयुक्त राष्ट्र संघ में एक प्रस्ताव प्रस्तुत कर पाकिस्तान ने यह मांग की थी कि वर्ष के किसी एक दिन को ‘‘इस्लामोफोबिया के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय दिवस’’ घोषित किया जाए। उस समय कई देशों, जिनमें भारत भी शमिल था, ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि फोबिया अर्थात उनके प्रति डर के भाव से कई अन्य धर्म भी पीड़ित हैं। प्रस्ताव का विरोध करने वाले देशों की संख्या कम थी और संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंततः 15 मार्च को "इस्लामोफोबिया के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय दिवस" घोषित कर दिया। दुर्भाग्यवश, पिछले महीने इस दिवस पर कोई चर्चा नहीं हुई।
इस साल संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक कदम और आगे बढ़ाते हुए इस मांग को स्वीकार कर लिया है कि इस्लामोफोबिया से मुकाबला करने के लिए विशिष्ट कार्यवाहियाँ करने हेतु 'विशेष दूत' की नियुक्ति की जाए। यह मांग भी पाकिस्तान की ओर से आई थी और इसका भी भारत सहित कई देशों ने विरोध किया था। प्रस्ताव पर बोलते हुए संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत टी.एस. तिरूमूर्ति ने कहा कि "पूरी दुनिया में धर्मों और पंथों पर लक्षित हिंसा में बढ़ोत्तरी हो रही है। कुछ लोग यहूदियों के विरूद्ध हैं, कुछ ईसाईयों के और कुछ हिन्दुओं के। बौद्धों और सिक्खों के विरूद्ध हिंसा की घटनाएँ भी होती रहती हैं"। उनके अनुसार दुनिया में बहुत से फोबिया हैं। उन्होंने यह भी कहा कि "हम सब जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने 16 नवम्बर को सहिष्णुता दिवस घोषित किया है"। उन्होंने यह भी कहा कि "बहुवाद इन सभी फोबिया से निपटने के लिए पर्याप्त है और इस्लामोफोबिया के लिए अलग से कुछ किये जाने की जरूरत नहीं है"।
सच क्या है? क्या अन्य धर्मों के खिलाफ फोबिया और इस्लामोफोबिया में कोई फर्क है? यह सही है कि दुनिया में अलग-अलग धर्मों के लोगों को दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फोबिया का सामना पड़ा है। अगर हम दक्षिण एशिया की बात करें तो श्रीलंका में तमिल हिन्दुओं और पाकिस्तान में सभी हिन्दुओं को प्रताड़ित किया गया। इसी तरह श्रीलंका, पाकिस्तान और भारत में भी ईसाई प्रताड़ित किये गये हैं। वर्तमान में तालिबान-शासित अफगानिस्तान में रह रहे सिख हर तरह से परेशान हैं।
तो फिर इस्लामोफोबिया अन्य धर्मों के प्रति फोबिया से इतना अलग क्यों है कि संयुक्त राष्ट्र संघ को उससे मुकाबला करने के लिए एक विशेष दिवस की घोषणा करनी पड़ी और एक विशेष दूत नियुक्त करना पड़ा? यह हमारा दुर्भाग्य है कि वर्तमान में वैश्विक राजनीति पर पहचान से जुड़े मुद्दों का वर्चस्व है। श्रीलंका में लिट्टे के सदस्यों के दमन के पीछे नस्लीय मुद्दे थे। वैश्विक स्तर पर इस्लामोफोबिया की आमद से बहुत पहले से भारत में मुसलमान अलग-अलग तरह से डराये-धमकाये जाते थे और उनके प्रति नफरत का भाव भी था। इसके कारण उनके खिलाफ हिंसा भी होती थी। तो ऐसे में इस्लामोफोबिया अलग क्यों है और वह अन्य धार्मिक फोबिया से अधिक डरावना क्यों है?
केवल धर्म के आधार पर किसी को प्रताड़ित करने या किसी से नफरत करने का पागलपन बहुत पुराना है। इस मामले में इस्लामोफोबिया एक नई परिघटना है। इस्लामोफोबिया का उदय सन 1970 के दशक में हुआ जब अमरीका के पिट्ठू रज़ा शाह पहलवी को अपदस्थ कर अयातुल्ला खुमैनी ने ईरान में सत्ता संभाली। उस समय अमरीका ने यह कहा कि इस्लाम दुनिया के लिए नया खतरा है। 'टाइम' पत्रिका की कवर स्टोरी का शीर्षक था "इस्लाम एज़ द न्यू थ्रेट"। नया खतरा क्यों? वह इसलिए क्योंकि उस समय तक अमरीकी मीडिया कम्युनिज्म को स्वतंत्र दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बताता था। स्वतंत्र दुनिया से आशय था "अमरीका के वर्चस्व वाली दुनिया"। उस समय अमरीका की राजनैतिक और आर्थिक दादागिरी को रूस (सोवियत संघ) के नेतृत्व वाला समाजवादी गुट ही चुनौती दे रहा था। उस समय अमरीका ने दुनिया को यह समझाया कि कम्युनिज्म उसके लिए सबसे बड़ा खतरा है। इस विचार, जिसे दुनिया का सबसे ताकतवर देश फैला रहा था, को पूरी दुनिया ने स्वीकार कर लिया। इससे कार्ल मार्क्स का वह कथन एक बार फिर सही साबित हुआ कि "शासक वर्ग के विचार ही शासन करते हैं"।
शनैः शनैः समाजवादी रूस कमजोर होता गया और फिर 1990 के दशक में वह पूरी तरह बिखर गया। अब दुनिया के सबसे ताकतवर देश को लड़ने के लिए कोई और दानव चाहिए था। यह वह समय था जब अमरीका अपने पिट्ठू पाकिस्तान में मदरसों की स्थापना कर रहा था। महमूद ममदानी ने अपनी पुस्तक "गुड मुस्लिम, बैड मुस्लिम" में सीआईए के दस्तावेजों के हवाले से लिखा है कि अमरीका ने ही इन मदरसों का पाठ्यक्रम तैयार किया। यह पाठ्यक्रम इस्लाम के एक संकीर्ण (वहाबी) संस्करण पर आधारित था। अमरीका ने करीब 800 करोड़ डालर और स्ट्रिंगर मिसाईलों सहित 7,000 टन गोला-बारूद इन मदरसों में से पढ़कर निकले युवकों पर खर्च किए। ये युवक मुजाहिदीन कहलाते थे और बाद में इन्हीं से तालिबान और अलकायदा उपजे। हिलेरी क्लिंटन ने खुल्लम-खुल्ला कहा था कि अमरीका को अफगानिस्तान में रूसी कम्युनिस्टों ने लड़ने के लिए जुनूनी युवक चाहिए थे इसलिए उसने तालिबान को खड़ा किया और रूस की अफगानिस्तान से वापसी के बाद तालिबान को भी मदद देना बंद कर दिया।
अमरीका का उद्देश्य था पश्चिम एशिया में तेल के कुंओं पर कब्जा करना। उसकी सभी नीतियाँ इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर बनाई गई थीं। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11, 2001 को हुए हमले में करीब 3,000 निर्दोष लोग मारे गये। मरने वालों में सभी धर्मों और सभी देशों के लोग थे। इसे बहाना बनाकर अमरीका ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया जिसमें 60,000 से ज्यादा जानें गईं। उसके बाद इस आधार पर इराक पर हमला किया गया कि इराक के पास महासंहारक हथियारों का जखीरा है। मगर इराक पर कब्जा करने के बाद अमरीका वहां एक भी ऐसा हथियार नहीं ढूंढ सका।
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला, जिसे ओसामा-बिन-लादेन की कारगुजारी बताया जाता है, के बाद अमरीकी मीडिया ने "इस्लामिक आतंकवाद" शब्द गढ़ा। अमरीका राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य दृष्टि से दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है। जाहिर है कि उसका मीडिया भी दुनिया में सबसे शक्तिशाली है। और इसी के चलते दुनियाभर के मीडिया ने "इस्लामिक आतंकवाद" शब्द का प्रयोग करना शुरू कर दिया और इसी से इस्लामोफोबिया जन्मा। एक समय सैम्युअल हंटिंगटन का एक सिद्धांत बहुत प्रसिद्ध था। इसे "क्लैश ऑफ़ सिविलाईजेशन्स (सभ्यताओं का टकराव)" कहा जाता था। उस समय ऐसी मान्यता थी कि पिछड़ी हुई इस्लामिक सभ्यता और विकसित पश्चिमी सभ्यता में वैश्विक स्तर पर टकराव होगा।
इस्लामोफोबिया के कारण ही अमरीका में मुसलमान समझकर एक सिख की हत्या कर दी गई। इस्लामोफोबिया के कारण ही अमरीका में एक पादरी ने कुरान की एक प्रति जलाई। फिर एक अमरीकी ईसाई ने एक फिल्म बनाई जिसका शीर्षक था "इनोसेन्स आफ मुस्लिम्स"। इस फिल्म की एक क्लिप जो वायरल हुई थी में लंबी दाढ़ी वाले मुसलमानों को ईसाईयों पर हमले करते दिखाया गया था। हम सब को डेनमार्क की एक पत्रिका में प्रकाशित वह कार्टून याद है जिसमें पैगम्बर मोहम्मद को अपनी पगड़ी में एक बम छिपाए हुए दिखाया गया था। जाहिर है कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि पूरी दुनिया में इस्लाम के प्रति एक डर का भाव पैदा कर दिया गया। सबको लगने लगा कि इस्लाम और मुसलमान दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।
सभ्यताओं के टकराव के सिद्धांत को गलत सिद्ध करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने हर संभव प्रयास किए। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान ने इस सिद्धांत की पड़ताल करने के लिए एक उच्च स्तर समिति की नियुक्ति की। इस समिति, जिसमें एक भारतीय सदस्य भी था, ने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की उसका शीर्षक था "एलायन्स आफ सिविलाईजेशन्स" अर्थात सभ्यातओं का गठबंधन। इस रिपोर्ट में यह कहा गया था कि मानव जाति ने जो भी उन्नति की है उसमें सभी सभ्यताओं, धर्मों और संस्कृतियों का योगदान रहा है। अब चूंकि दुनिया भर में अमरीका का बोलबाला है इसलिए इस रिपोर्ट को मीडिया ने नजरअंदाज कर दिया और इस्लामोफोबिया बना रहा।
भारत में समस्या और गंभीर इसलिए है क्योंकि यहां पहले से ही साम्प्रदायिक राजनीति के कारण विभिन्न समुदायों के बीच शत्रुता का भाव था। वैश्विक इस्लामोफोबिया ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत में और इज़ाफा किया। स्वाधीनता संग्राम के दौरान मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतें हिन्दुओं के खिलाफ नफरत फैलाती थीं और हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतें (हिन्दू महासभा और आरएसएस) मुसलमानों के खिलाफ। स्वतंत्रता के बाद मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतें कमजोर पड़ गई जबकि हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतें और शक्तिशाली होती गईं और इस कारण ही देश में इस्लामोफोबिया व्याप्त है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस्लामोफोबिया से मुकाबला करने के लिए जो कदम उठाए हैं वे सराहनीय और उम्मीद जगाने वाले हैं।
(नवजीवन से साभार)