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आख़िर कब रुकेगा सिर क़लम करने की धमकी का सिलसिला?

आख़िर कब रुकेगा सिर क़लम करने की धमकी का सिलसिला?

नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद के बाद अमरावती और उदयपुर में हत्याएं हो चुकी हैं। आखिर इन हत्याओं को करने के लिए मुसलिम समुदाय के लोगों को कौन उकसा रहा है। 

क़रीब महीने भर पहले बीजेपी की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने कई टीवी चैनलों पर बहस के दौरान पैगंबर मोहम्मद साहब पर विवादित टिप्पणी की थी। उसके बाद उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई को लेकर देशभर में प्रदर्शन हुए। तब सोशल मीडिया में एक नारा ख़ूब वायरल हुआ था, 'गुस्ताख़-ए-रसूल की एक सज़ा, सर तन से जुदा, सर तन से जुदा।' तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि कुछ सिरफिरे लोग इसे हकीकत में बदल देंगे। लेकिन राजस्थान के उदयपुर और महाराष्ट्र के अमरावती में ऐसा देखने को मिला। 

इन दो घटनाओं के बाद राजस्थान के अजमेर शरीफ दरगाह के एक ख़ादिम सलमान चिश्ती ने नूपुर शर्मा की गर्दन काटने वाले को अपना मकान इनाम में देने का एलान कर दिया। सलमान चिश्ती अजमेर का हिस्ट्रीशीटर रहा है। सोशल मीडिया पर उसका वीडियो वायरल होने के बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया है।

हो सकता है इस तरह के और भी वीडियो सोशल मीडिया पर मौजूद हों। देर सवेर वो भी वायरल हो सकते हैं। इनसे कई अहम सवाल खड़े हो रहे हैं। इस तरह की उकसावे वाली अपील पर कोई सिरफिरा उदयपुर अमरावती जैसी घटना को कहीं भी अंजाम दे सकता है?

सूफियों के केंद्र में कैसे घुसी कट्टरता?

ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस सूफीवाद को इस्लाम का उदार रूप माना जाता है उसी के एक महत्वपूर्ण केंद्र से सिर क़लम करने पर इनाम का एलान सामने आया है। अजमेर में हज़रत मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह देश और दुनिया की सबसे बड़े सूफी दरगाहों में शुमार की जाती है। उदयपुर की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद इसी दरगाह के सज्जादा नशीं सैयद ज़ैनुल अली आबिदीन चिश्ती ने इसकी कड़ी निंदा की थी। उन्होंने कहा था कि भारतीय मुसलमान कभी भी तालिबानी सोच को स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने यह भी कहा था कि नूपुर शर्मा का बयान ग़लत था। उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए। लेकिन इसके लिए आप एक के बाद एक लोगों की गर्दन काटने लगें तो ये पूरी तरह इंसानियत और देश के संविधान के ख़िलाफ़ और कानूनन अपराध है।

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अफ़सोस की बात यह है कि उन्हीं की दरगाह के ख़ादिम ने उन्हीं के दावे को ग़लत साबित कर दिया। सवाल उठ रहा है कि आखिर सूफी इस्लाम के इस बड़े केंद्र में इतनी कट्टरता कैसे आ गई?

मुसलिम समाज में क्यों बढ़ी धार्मिक कट्टरता?

यह सही है कि मुसलिम समाज पैग़ंबर मोहम्मद साहब और क़ुरआन को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील है। इनके ख़िलाफ़ की गई टिप्पणियों पर समाज की तरफ से अपमान करने वालों का सिर क़लम करने के फ़तवे जारी होते रहे हैं। इसके बदले में बड़े-बड़े इनाम की भी घोषणा होती रहीं हैं। लोगों को किसी की हत्या करने के लिए उकसाना भारतीय दंड संहिता में अपराध है। ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ मुक़दमें तो दर्ज होते रहे, लेकिन उन पर ठोस कार्यवाही नहीं हुई। सज़ा तो बहुत दूर की बात है। शायद यही वजह है कि इस तरह का ग़ैर संवैधानिक और ग़ैर इस्लामी एलान करने वालों के हौसले बढ़ते रहे। 

अब नौबत यहां तक आ गई है पहले जो एलान बड़े धर्मगुरु करते थे, उस तरह के एलान छोटे-मोटे ख़ादिम भी करने लगे हैं। ये हालात बताते हैं कि मुसलिम समाज में धार्मिक कट्टरता कम होने के बजाय बढ़ी है।

पाकिस्तान में हुई थी सलमान तासीर की हत्या

इस मामले में पाकिस्तान के सलमान तासीर का उदाहरण उल्लेखनीय है। सलमान तासीर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बड़े नेता थे। पंजाब राज्य के वह गवर्नर भी रहे। उन्होंने साल 2010 में पाकिस्तान के ईशनिंदा क़ानून के तहत एक ईसाई औरत को हुई सज़ा का कड़ा विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि जनरल ज़िया-उल-हक़ के दौर में किए गए संशोधनों के बाद ये पूरी तरह काला क़ानून बन गया है। इस पर पाकिस्तान के कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों ने उनके ख़िलाफ़ मौत का फ़तवा जारी कर दिया था। 

4 जनवरी 2011 को उन्हीं के एक सुरक्षाकर्मी मुमताज़ क़ादरी ने अपनी सर्विस गन से उन्हें सरेआम 28 गोलियां मारकर मौत के घाट उतार दिया था। 

इस हत्याकांड के बाद मुमताज क़ादरी पाकिस्तान के कट्टरपंथी संगठनों के लिए एक बड़ा हीरो बन गया था।

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सलमान तासीर।

हालांकि क़ादरी को उसके इस अपराध के लिए फांसी दी गई। लेकिन उसे फांसी से बचाने के लिए कट्टरपंथी संगठनों ने सलमान तासीर के परिवार को 'ब्लड मनी' देने की पेशकश की थी। उनके परिवार ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया था। उसके जनाज़े में 50 हज़ार से ज्यादा लोगों ने शिरकत की थी। रास्ते में जनाज़े पर फूल भी बरसाए गए थे।

सलमान रुश्दी, तस्लीमा नसरीन के ख़िलाफ़ फतवा

1990 के दशक में भारतीय मूल के लेखक सलमान रशदी के खिलाफ ईरान के सबसे बड़े धार्मिक नेता अयातुल्ला ख़ुमैनी ने मौत का फ़तवा जारी किया था। यह फतवा उनकी किताब 'द सैटेनिक वर्सेज़' (यानी शैतानी आयतें) को लेकर जारी किया गया था। भारत में भी उनकी इस किताब पर पाबंदी लगाई गई थी। 

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इसी दशक में बांग्लादेश की मशहूर लेखिका तस्लीमा नसरीन ने जब 'लज्जा' नामक उपन्यास लिखा तो उनके ख़िलाफ़ भी बांग्लादेश के कट्टरपंथी मौलानाओं की तरफ़ मौत का फ़तवा जारी किया गया। इसके नतीजे में उन्हें बांग्लादेश छोड़कर यूरोपीय देशों में शरण लेनी पड़ी। तस्लीमा नसरीन के ख़िलाफ़ कोलकाता के एक मौलाना ने भी मौत का फ़तवा जारी किया था।

शार्ली एब्दो के ख़िलाफ़ फ़तवा

साल 2006 में फ्रांस की मशहूर पत्रिका 'शार्ली एब्दो' ने पैगंबर मोहम्मद साहब पर एक विवादित कार्टून छापा था। इस पर दुनिया भर में प्रतिक्रिया हुई थी। तब भारत में उत्तर प्रदेश के मेरठ से विधायक और मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली तात्कालीन समाजवादी पार्टी सरकार में मंत्री रहे हाजी याक़ूब क़ुरैशी ने कार्टून छापने वाले का सिर क़लम करने वाले को 51करोड़ रुपए का इनाम देने का एलान किया था। 

2015 में कार्टून छापने वाली पत्रिका के दफ्तर पर हमला हुआ। इसमें 12 लोग मारे गए थे। 2020 में पत्रिका ने फिर कार्टून छापा। फ्रांस में ही एक छात्र ने अपने टीचर की असली हत्या कर दी थी कि पढ़ाई के दौरान उन्होंने मोहम्मद साहब का कार्टून दिखाया था।

बुश की गर्दन पर एलान

साल 2006 में ही भारत में बरेली मसलक के मुसलमानों के बड़े नेता मौलाना तौक़ीर रज़ा ने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की गर्दन काट कर लाने वाले को 25 करोड़ रुपए के इनाम का एलान किया था। मौलाना तौक़ीर रजा ने जब ये फ़तवा दिया था तब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश अपनी पहली आधिकारिक यात्रा पर भारत आए हुए थे। 2009 के लोकसभा चुनाव और हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान अपने इसी एलान के चलते मौलाना तौक़ीर रज़ा को कांग्रेस के साथ गठबंधन से हाथ धोना पड़ा था।

'सिर तन से जुदा' के बाद ही क्यों जागे धर्मगुरु

पैग़ंबर मोहम्मद साहब और इस्लाम पर की गई टिप्पणियों को लेकर कई और लोगों के ख़िलाफ़ भी मौत के फ़तवे जारी हुए हैं। अब नूपुर शर्मा के खिलाफ भी यही सिलसिला एक बार फिर जारी है। ऐसे फ़तवों पर भारत में किसी को मौत के घाट उतारने की घटना अब तक सामने नहीं आई थी। उदयपुर की दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने यह बता दिया है कि भारत में भी ऐसा हो सकता है। 

इससे सकते में आए दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुख़ारी से लेकर जमीअत उलमा-ए-हिंद के मौलाना अरशद मदनी तक तमाम मुसलिम धर्मगुरुओं और मुसलिम संगठनों ने इसकी कड़ी निंदा की है। लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि जब सोशल मीडिया 'सर तन से जुदा' का नारा वायरल हो रहा था तब इन सब धर्म गुरुओं के मुंह में दही क्यों जमी हुई थी। तब ये तमाम मुसलिम धर्मगुरु यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए कि यह नारा कुरान और इस्लाम के बुनियादी उसूलों के खिलाफ है. इस्लाम इस तरह की हिमाकत करने की क़तई इजाज़त नहीं देता। कन्हैयालाल का 'सिर तन से जुदा' के बाद ही आख़िर इन्हें क्यों सद्बुद्धि आई है?

तौहीन-ए-रिसालत की सज़ा मौत नहीं माफ़ी है 

दरअसल तौहीन-ए-रिसालत की सज़ा सिर क़लम या मौत नहीं बल्कि माफ़ी है। जिस शरीयत के मुताबिक तौहीन-ए-रिसालत की सज़ा मौत बताई जाती है उसी शरीयत का पहला स्रोत क़ुरआन है। क़ुरआन की कई आयतों में पैगंबर मोहम्मद से कहा गया है कि तुम अपनी शान में गुस्ताखी करने वालों को माफ़ करने की नीति अपनाओ और भलाई के कामों के लिए लोगों को प्रेरित करते रहो। मोहम्मद साहब ने भी अपनी पूरी ज़िंदगी इन निर्देशों का पालन किया। ख़ुद पर ज़ुल्म करने वालों और तरह- तरह के इल्ज़ाम लगाने वालों को हमेशा माफ किया। 

मोहम्मद साहब के बाद आए चार खुलफ़ा-ए-राशिदीन के ज़माने में भी पैग़ंबर की तौहीन के नाम पर किसी के सिर क़लम करने का कोई उदाहरण नहीं मिलता। माना जाता है कि करीब 1000 साल पहले पैग़ंबर की तौहीन करने वाले के लिए मौत की सज़ा को शरीयत का हिस्सा बनाया गया।

ये बात समझ से परे है कि क़ुरआन में दिए गए निर्देश और मोहम्मद साहब की जीवनी सामने होने के बावजूद इस्लाम में पैगंबर की तौहीन के नाम पर सिर क़लम करने की सज़ा कैसे क़ायम कर दी गई? 

अगर इतिहास में किसी बादशाह ने ऐसा कर भी दिया था तो मुसलिम धर्मगुरुओं की यह ज़िम्मेदारी इसमें सुधार की बनती थी। वक्त रहते इसे सुधारा नहीं गया. इसलिए आज हालात यहां तक पहुंच गए हैं। 

शरीयत के नाम पर फैलाई गई यह जहालत न सिर्फ देश बल्कि मुसलिम समाज के लिए भी हानिकारक है। मुसलिम धर्मगुरुओं और संगठनों को वक्त रहते इसके ख़िलाफ़ खुलकर सामने आना चाहिए। मुसलिम समाज में हज़ार साल से फैलाई गई इस ग़लतफ़हमी को दूर करने और इस्लामी शिक्षाओं की सही जानकारी के लिए मुसलिम समाज में बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चला जाने की ज़रूरत है।

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