किसी भी चैनल के विज्ञापन की दर उसके दर्शकों की संख्या के आधार पर तय होती है। उदाहरण के लिए अगर किसी चैनल के दर्शकों की संख्या सबसे ज़्यादा है तो उस पर विज्ञापन महँगा होता है और जिस चैनल के दर्शकों की संख्या कम है उस पर विज्ञापन सस्ता होता है। हिंदी न्यूज़ में सबसे ज़्यादा दर्शक वाले चैनल को दस सेकेंड के विज्ञापन के लिए चार हज़ार रुपये तक मिल जाते हैं जबकि सबसे कम दर्शक वाले चैनल को दस सेकेंड के विज्ञापन के लिए मात्र दस रुपये मिलते हैं।
विज्ञापन की आमदनी पर निर्भर
इसके अलावा ज़्यादातर बड़े विज्ञापनदाता सबसे ज़्यादा दर्शक वाले तीन या चार चैनलों को ही विज्ञापन देते हैं। भारत में दर्शक अभी भी न्यूज़ चैनलों को देखने के लिए पैसे नहीं देते यानी न्यूज़ चैनल पे चैनल नहीं हैं इसलिए वे सिर्फ़ विज्ञापन की आमदनी पर निर्भर हैं। मनोरंजन चैनल को दर्शकों से फ़ीस तो मिलने लगी है लेकिन ख़र्च के हिसाब से ऐसे पे चैनलों की आमदनी भी बहुत कम है इसलिए वे भी विज्ञापन पर ही निर्भर हैं।
क्या है बार्क रेटिंग या टीआरपी
दर्शक की संख्या का फ़ैसला और फिर विज्ञापन की दर बार्क रेटिंग से तय होती है, इसके चलते ही रेटिंग बढ़ाने की होड़ लगी रहती है। 2013/14 से पहले यही काम टैम एजेन्सी करती थी। इसे टीआरपी (टेलिविज़न रेटिंग प्वाइंट) कहा जाता था। टीआरपी में धाँधली की ज़बरदस्त शिकायतों के बाद चैनल और विज्ञापन देने वाली कंपनियों ने अपनी कंपनी बनाने का फ़ैसला किया। इस तरह ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बीएआरसी) बनी और बार्क रेटिंग सामने आयी।
रेटिंग निकालने के लिए दर्शकों के टीवी सेट के साथ एक मीटर लगाना पड़ता है। देखने में ये मीटर, सेट टॉप बॉक्स की तरह का होता है। ये बॉक्स तीन महत्वपूर्ण सूचना देता है।
सबसे पहली सूचना है टीवी देखने वाले व्यक्ति की शिक्षा और आमदनी क्या है। ये सूचना बॉक्स लगाते समय ही इकट्ठा कर ली जाती है। जिस घर में बॉक्स लगा हो उस घर में टीवी चलते ही सबसे पहले ये बताना होता है कि टीवी कौन देख रहा है। कोई बच्चा, सिर्फ़ महिला या पुरुष या पूरा परिवार। बॉक्स में लगी चिप के ज़रिए ये सूचना बार्क के कंप्यूटर तक पहुँच जाती है। इसके साथ ही चैनल के लोगो या नाम को पहचानकर बॉक्स ये पता कर लेता है कि कौन सा चैनल देखा जा रहा है। बॉक्स से मिली सूचना के आधार पर दो महत्वपूर्ण आँकड़े निकाले जाते हैं। किसी ख़ास चैनल को कितने लोगों ने और कितनी देर तक देखा। इसी के आधार पर रेटिंग तय होती है।
कैसे होती है गड़बड़ी
रेटिंग में गड़बड़ी का सबसे बड़ा कारण बहुत कम संख्या में बॉक्स का लगाया जाना है। बार्क के अधिकारियों के मुताबिक़, देश में इस समय 44 हज़ार बॉक्स लगे हैं। जबकि टीवी सेट की संख्या 20 करोड़ है और क़रीब 80 करोड़ लोग रोज़ टीवी देखते हैं। सरकारी नियमों के मुताबिक़, बार्क को रेटिंग निकालने के लिए पहले साल यानी 2013/14 में 20 हज़ार और दूसरे साल तक 40 हज़ार बॉक्स लगाने थे और इनकी संख्या को लगातार बढ़ाना था।
देखिए, इस विषय पर चर्चा-
लेकिन सात-आठ सालों में भी बॉक्स की संख्या सिर्फ़ 44 हज़ार तक पहुँची जबकि टीवी सेट और दर्शक दोनों लगभग दो गुणे हो चुके हैं। पहले साल यानी 2013/14 में बार्क पूरे बॉक्स नहीं लगा पाया और इसकी कमी को पूरा करने के लिए पुरानी एजेन्सी टैम से समझौता करके उसके बॉक्स को भी साथ जोड़ लिया। इसके अलावा बॉक्स लगाने और उसकी देखभाल का जिम्मा भी टैम को दे दिया। इस तरह टैम की बीमारी बार्क तक पहुँच गयी।
टैम के ज़माने में टीआरपी की एक बड़ी धोखाधड़ी सामने आयी थी। बड़ी संख्या में ख़ास लोगों के घर पर मुफ़्त टीवी सेट दिए गए थे। उनमें टैम का मीटर लगाया गया था। आरोप था कि टैम के कुछ अधिकारी पैसे लेकर एक ख़ास चैनल चलवाते थे जिससे उसकी टीआरपी बढ़ जाए।
इसके बदले में चैनल से उनको मोटी रक़म मिलती थी। देश भर में इस ख़बर की चर्चा हुई। मामला संसद में भी उठा। इसके बाद ही बार्क बनाने की पहल शुरू हुई। टैम अब टीआरपी के धंधे में नहीं है लेकिन गोरखधंधा अब भी जारी है।
डिजिटल युग में नया तरीक़ा
बार्क डेटा में गड़बड़ी रोकने के लिए कई नई पहल की गई। किसी टीवी सेट पर किसी चैनल का देखना अचानक बढ़ जाए तो कम्प्यूटर उसे गड़बड़ी मानकर उसका डेटा अवैध करार देता है। गड़बड़ी करनेवालों ने अब नया तरीक़ा निकाल लिया है। अब रेटिंग धीरे-धीरे, छह महीने से लेकर एक साल में बढ़ाई जाती है। एक साथ पूरे चौबीस घंटे की रेटिंग न बढ़ाकर सुबह दोपहर और शाम को थोड़ी-थोड़ी देर की रेटिंग बढ़ाई जाती है ताकि ये लगे कि चैनल स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ रहा है। ठीक वैसे ही जैसे क्रिकेट में पहले पूरे मैच को फ़िक्स करके जीत-हार का फ़ैसला कराने का आरोप लगता था लेकिन अब स्पॉट फ़िक्सिंग के आरोप लगते हैं।
टीवी रेटिंग से जुड़े एक सूत्र के मुताबिक़ 44 हज़ार में से क़रीब दो हज़ार बार्क बॉक्स को नियंत्रित करके रेटिंग को ऊपर नीचे किया जा सकता है। महानगरों में बार्क कर्मचारियों का एक पूरा तंत्र इस काम को अंजाम देता है। नीचे ऊपर तक किसको कितना पैसा मिलेगा इसका भी हिसाब तय होता है।
हेराफेरी करके रेटिंग बढ़ाने वाले चैनल काफ़ी मोटी रक़म ख़र्च करते हैं। एक बार रेटिंग बढ़ जाने के बाद चैनल की विज्ञापन दर भी बढ़ने लगती है। चैनल की कमाई बढ़ने के बाद फ़र्ज़ी रेटिंग के लिए पैसा ख़र्च करना आसान हो जाता है।