शायद सवाल करना इस समाज का ही नहीं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सबसे मौलिक आयाम है। विकास की क्रमबद्ध श्रृंखला की शुरुआत सिर्फ सवालों से होती है। वैज्ञानिक प्रगति का आधार सवाल हैं, सामाजिक और आर्थिक प्रगति का आधार भी सवाल ही हैं। जहां सवाल करना किसी भी मुल्क की आजादी की गुणवत्ता का पैमाना है, वहीं आजादी तक पहुँचना भी इन्ही सवालों के माध्यम से ही संभव हो पाता है। एक दिन बाद भारत की आजादी के 75 वर्ष होने वाले हैं, और इस आजादी को पाने की लड़ाई भी सवालों से ही शुरू हुई।
अंग्रेजों ने भारत में यह भ्रम फैलाया कि वो यहाँ राज करने नहीं आए बल्कि भारत को ‘सभ्य’ बनाने आए हैं। शुरुआती कुछ वर्षों में अंग्रेजों को इस बात के लिए समर्थन भी मिला लेकिन जल्द ही उनका फैलाया हुआ यह भ्रम समाप्त होने लगा। भारत के स्वतंत्रता सेनानियों ने औपनिवेशिक सत्ता की कार्यप्रणालियों पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। पढे लिखे शिक्षित जागरूक भारतीयों ने धीरे धीरे यह समझना शुरू कर दिया कि वास्तव में अंग्रेज भारत का आर्थिक शोषण करने के उद्देश्य से ही भारत में आए थे और उन्हे भारत और भारतीयों की समस्याओं से कोई मतलब नहीं है।
भारतीय यह भी समझ गए कि शोषण के लिए ‘नियंत्रण’ जरूरी था और नियंत्रण के लिए आवश्यक था अवसंरचनात्मक विकास। सड़कें, पोस्ट ऑफिस, टेलीग्राम, रेल आदि सुविधाओं का विकास भारतीयों को सभ्य बनाने के लिए नहीं था बल्कि औपनिवेशिक सत्ता की आयु बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया था।
जागरूक भारतीयों के प्रश्नों ने जहां औपनिवेशिक सत्ता को झुँझलाने पर मजबूर किया वहीं इन सवालों ने भारतीयों को भी परतंत्रता और उसके घातक परिणामों का बोध करवाया।
स्वतंत्रता से पहले, सवाल सिर्फ अंग्रेजों से नहीं पूछे जा रहे थे बल्कि सवालों की शुरुआत सामाजिक ढांचे को लेकर भी हो चुकी थी। जहां गाँधी जी ने दलितों के शोषण और छुआछूत पर प्रश्न उठाया वहीं आंबेडकर ने ब्राह्मणवाद जैसी कुरीतियों को लेकर लगातार सवाल उठाए। भगत सिंह ने ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ के माध्यम से भगवान पर ही सवाल उठा दिया।
भारतीयों ने सांप्रदायिकता और धर्मांधता पर सवाल उठाए, अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को दोनों विश्व युद्धों में जबरदस्ती धकेलने को लेकर सवाल उठाए गए। यहाँ तक कि जब संविधान सभा द्वारा संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी तब लगभग 3 सालों के समय में ‘सवाल’ और विमर्श ही वह ताकत थी जिसने आधुनिक भारत के चहुँमुखी विकास के लिए एक सर्वमान्य दस्तावेज प्रदान किया।
आजादी के बाद भी सवालों का सिलसिला नहीं बंद हुआ। महान स्वतंत्रता सेनानी और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से न सिर्फ अनगिनत सवाल पूछे गए बल्कि उन पर सवाल उठाए भी गए। नेहरू पर उनके आर्थिक मॉडल को लेकर सवाल उठाए गए, उनकी चीन नीति और कश्मीर नीति पर भी सवाल उठाए गए। ये वही नेहरू थे जिन्होंने आजादी के संघर्ष के दौरान कुल मिलाकर लगभग 10 साल अंग्रेजों की कैद में बिताए। इसके बावजूद जब जब उन पर सवाल उठाए गए उन्होंने उसका जवाब या तो संसद में दिया या फिर प्रेस के सामने। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा खोखले किए गए इस देश को पुनः निर्मित करने का कार्य किया।
सेना, पैरमिलिटरी पुलिस, तकनीकी संस्थान, प्रबंधन संस्थान, नृत्य संस्थान, परमाणु संस्थान, अंतरिक्ष संस्थान, फिल्म संस्थान, सांख्यिकीय संस्थान, स्वास्थ्य संस्थान और पंचायतीराज संस्थान आदि जैसे अनगिनत संस्थानों को एक अनिवार्य स्वरूप प्रदान किया। आधुनिक भारत के रीढ़ की हर ईंट भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की दूरदृष्टि द्वारा स्थापित की गई है। इसके बावजूद वे न आलोचना से परे हैं और न ही सवालों से। यही असली भारत है जिसकी कल्पना इसे आजाद करने वालों ने की थी।
इन सब सवालों के बीच आजादी का पहला वर्ष भी गुजरा होगा, 10वां, 25वां और 50वां भी। अब भारत अपनी आजादी का 75वां वर्ष मना रहा है जिसकी शुरुआत लगभग 75 सप्ताह पहले हुई थी और तबसे आज तक यह उत्सव लगातार जारी है। भारत ने पहले भी उत्सव मनाए हैं और अगले दिन से भारत और उसका नेतृत्व नागरिकों की मदद से देश की समस्याओं से जूझने लगता था। साल भर उत्सव मनाने की परंपरा भारत में नहीं रही है। वर्ष भर उत्सव तो वह राजा मनाता है जिसे नागरिकों से ज्यादा अपने उत्सव के ‘डिजाइन’ की फिक्र रहती है। भारत जैसे लोकतंत्र में जो उत्सव सालों भर रह सकता है वह है निरंतर संघर्ष का उत्सव।
भारत का वर्तमान नेतृत्व चाहता है कि लोग आज़ादी के उत्सव को मनाएं, देश की सभी संस्थाएं मनाएं। यह मनाया भी जा रहा है, और मेरे विचार से इसे मनाया भी जाना चाहिए। आखिर जो आज़ादी इतनी मुश्किल से मिली उसका उत्सव कौन नहीं मनाना चाहेगा। इसी उत्सव का एक और उप-उत्सव है- ‘हर घर तिरंगा’ अभियान। इस उप-उत्सव को मनाने के लिए भारत सरकार ने झंडा कोड में बदलाव कर दिया है ताकि अब झंडा दिन और रात दोनों में फहराया जा सके और अब यह सिर्फ खादी का न रहकर अन्य कपड़ों का भी बन सकता है। हर घर तिरंगा के लिए बहुत सारे झंडे चाहिए होंगे। जिसकी आपूर्ति के लिए कुछ लोगों को चुना गया है साथ ही भाजपा कार्यालय से भी यह झंडा 20 रुपये में खरीदा जा सकता है। मुझे व्यक्तिगत रूप से कोई आपत्ति नहीं कि कौन इतने झंडे की आपूर्ति कर रहा है? यह ठेका कुछ खास लोगों को क्यों दिया गया? या यह कि इस झंडे की बिक्री से कोई पार्टी कितना धन इकट्ठा कर लेगी?
मेरा प्रश्न सिर्फ इतना है कि क्या आजादी का 75वां वर्ष मनाता हुआ भारत अपनी देश की सरकार से प्रश्न पूछ पा रहा है? और अगर पूछ पा रहा है तो क्या उसे जवाब मिल पा रहा है?
भारत की लगभग 70% जनसंख्या $2 प्रतिदिन अर्थात 160 रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजर बसर कर रही है। इस आँकड़े में 30% संख्या ऐसे भारतीयों की भी है जो 100 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर जीने की कोशिश कर रही है। सरकार स्वयं जानती है कि वो लगभग 80 करोड़ लोगों को मासिक राशन उपलब्ध करवा रही है।
सवाल यह है कि, इतने कम पैसे पर जीवन जीने वाले भारतीय कैसे 20 रुपए का तिरंगा खरीद कर लगा पाएंगे? तमाम मीडिया प्लेटफॉर्म पर वह वीडियो देखा जा सकता है जिसमें मासिक राशन की लाइन में लगे लोगों ने यह शिकायत की कि दुकानदार जबरदस्ती तिरंगा खरीदने को कह रहा है। यदि सरकार सच में हर घर में तिरंगा लगवाना चाहती थी, यदि वह सच में इस अभियान को सफल बनाना चाहती थी, तो एक बार फ्री में भारत की आजादी के इस प्रतीक तिरंगे को राशन के साथ बाँट देती! आखिर 75 वर्षों वाली यह हीरक जयंती रोज रोज तो नहीं आएगी। एक गरीब जो अपनी अत्यंत सीमित आय के चलते तिरंगा नहीं खरीद पाएगा, उसका अफसोस उसे जिंदगी भर रह सकता है।
सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए अंतिम आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग 18 लाख लोगों के पास घर नहीं है। इन 18 लाख लोगों के पास न कोई कागज है और न ही कोई सरकारी सहूलियत। दिल्ली, केरल जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर किसी भी राज्य में इन भारतीयों के स्वास्थ्य के देखभाल तक की व्यवस्था नहीं है।
सवाल यह है कि, ये 18 लाख लोग, जिनके पास घर ही नहीं है, कैसे ‘हर घर तिरंगा’ कार्यक्रम में भागीदार बनेंगे? क्या इनकी गरीबी और बेबसी इनके लिए अफसोस का कारण नहीं बनेगी? क्या 2011 से अब तक इन्हें घर और कागज की सुविधाएं उपलब्ध नहीं कारवाई जा सकती थीं? क्या प्रधानमंत्री पिछले 75 सप्ताह में, जब से उन्होंने आजादी का अमृत महोत्सव शुरू किया था, इन 18 लाख लोगों के लिए घर की व्यवस्था नहीं कर सकते थे?
न्यूज लान्ड्री की एक रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश के छतरपुर में डीजे और ढोल नगाड़ों के साथ कुछ घरों पर बुलडोजर चलाए गए और यह कहा गया कि जिन घरों पर बुलडोजर चलाए गए हैं वो अपराधी हैं।
कितना इत्तेफाक है कि जिन घरों पर बुलडोजर चलाए गए उनमें से ज्यादातर मुस्लिम हैं। वैसे तो अपराधी होना और घर गिराया जाना दोनों का एक ही कानूनी कारण नहीं है। पहले भी इलाहाबाद मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय यूपी सरकार को फटकार लगा चुका है। यदि कोई व्यक्ति अपराधी साबित हो चुका है, तो उसका घर न गिराया जाना, कानून का उल्लंघन नहीं है। यदि 75 सालों की खुशी मनानी ही थी, और हर घर तिरंगा सच में दिल से निकला और देशभक्ति से ओत-प्रोत कार्यक्रम था तो क्या कुछ समय के लिए इन घरों को तोड़ने से बचा नहीं जा सकता था, ताकि इन घरों पर भी तिरंगा लहराया जा सकता? एक तरफ हर घर तिरंगा अभियान तो दूसरी तरफ घरों को ही गिराए जाने का अभियान, क्या यह उचित है?
आखिर आजादी के 75 वर्ष तो सभी के लिए महत्वपूर्ण हैं, फिर चाहे वो हिन्दू हो या मुस्लिम, अमीर हो या गरीब!
नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार देश की जेलों में बंद 76% लोग साबित अपराधी नहीं बल्कि विचाराधीन कैदी हैं। यह आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। 2016 की NCRB की रिपोर्ट के अनुसार विचाराधीन कैदियों की संख्या 68% थी। विचाराधीन कैदी वो लोग हैं जो अपने खिलाफ़ लगे आरोपों के ट्रायल का इंतजार कर रहे हैं। इस समय ऐसे कैदियों की संख्या लगभग 3 लाख 72 हजार है। लगभग हर चार में से 3 कैदी विचाराधीन है। इन पर कोई अपराध साबित नहीं हुआ है फिर भी ये सालों से जेल में बंद हैं।
सवाल यह है कि, क्या इनके घर वालों को इस बात के लिए राजी किया जा सकता है कि वो हर घर तिरंगा कार्यक्रम में हिस्सा लें? भारत के चीफ जस्टिस इस मुद्दे को प्रमुखता से उठा चुके हैं और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी यह आह्वान किया कि इन कैदियों की रिहाई में शीघ्रता की जाए। लेकिन प्रधानमंत्री ने यह कोशिश 75 सप्ताह पहले क्यों नहीं शुरू की? क्या उन्हे नहीं मालूम था कि देश कितने बड़े उत्सव को मनाने जा रहा है? जिन परिवारों के लोग बिना किसी साबित अपराध के जेलों में बंद हैं उन्हे देश, तिरंगा और देशभक्ति में कितनी श्रद्धा होगी? शायद उन्हे आजादी और उसके अमृत महोत्सव में कोई दिलचस्पी ही न रहे!
जो बात सरकारें (केंद्र और राज्य) भूल जाती हैं वह यह है कि जब देश में कोई महोत्सव मनाना हो तो देश को उसके लिए तैयार करना होता है। ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ जब सच में धरातल पर उतरता है तब आजादी का महोत्सव अपने रंग में आता है। ‘चुनिंदा लोगों का साथ, उन्ही का विकास और उन्हीं का विश्वास’ पैसे और ताकत और दबाव के बल पर मीडिया द्वारा कठपुतली की तरह नचाया जा सकता है लेकिन लोग स्वतः स्फूर्त तरीके से आजादी को महसूस कर सकें और हर घर तिरंगा की जगह हर हाथ में तिरंगा जैसा माहौल देखने को मिले, यह सिर्फ तब संभव हो सकता है जब लोगों को महसूस हो कि यह मात्र मेजॉरिटी की सरकार नहीं है सब की सरकार है। व्यक्ति खत्म हो जाता है लेकिन व्यक्तित्व रह जाता है।
सरकार और उसके प्रतिनिधियों को विचारपूर्वक सोचना चाहिए कि आजादी के अमृत महोत्सव में सिद्दिक कप्पन, उमर खालिद और भीमा कोरेगाँव मामले में जेल में बंद लोगों और ऐसे ही तमाम अन्य लोगों को अपने अपने घरों पर तिरंगा फहराने के लिए अपने अपने घरों पर नहीं होना चाहिए? जिस आरोप को लगाने में सालों लग जाएँ उसे साबित करने में कितने वर्ष लगेंगे, और अंततः व्यक्ति के निरपराध साबित हो जाने पर जेल से बाहर निकलने पर वह किस सीमा तक ‘लोकप्रिय देशभक्त’ की श्रेणी में रह जाएगा इस पर विचार करना चाहिए।