सुप्रीम कोर्ट के 20 फ़रवरी के आदेश से देश की सबसे ग़रीब, सबसे उपेक्षित और सबसे अविकसित आदिवासी आबादी के क़रीब 11 लाख परिवार एक ऐसे भँवर में फँस गए हैं जिसका किसी के पास कोई हल नहीं दिखता! मामले की अगली सुनवाई 27 जुलाई को है और उससे पहले इस आदेश का पालन होना है।
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सुप्रीम कोर्ट ने वन एवं वन्य जीव संरक्षण में लगी स्वयंसेवी संस्था वाइल्ड लाइफ़ फ़र्स्ट की ओर से 2008 में दायर की गई याचिका पर यह फ़ैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि संबंधित राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों से इन 11 लाख परिवारों को जंगलों से निकाल बाहर करें।
कोर्ट ने देहरादून स्थित फ़ॉरेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया को भी आदेश दिया कि वह आधुनिक तकनीक से सेटेलाइट द्वारा प्राप्त किए गए इन जंगलों के ताज़ा चित्रों के जरिये राज्य सरकारों की कार्रवाई की पड़ताल कर कोर्ट में रिपोर्ट प्रस्तुत करे। इस रिपोर्ट से यह पता किया जा सकेगा कि किस-किस राज्य सरकार ने आदेश का पालन किया और किसने नहीं।
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- 17 राज्यों में फैले, जंगलों में बसे और उन्हीं पर जीवित 11,72,931 आदिवासी परिवारों के दावों को फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट की पड़ताल के दौरान अवैध पाया गया था। पड़ताल के दौरान जाँच इस बात की होनी थी कि 31 दिसंबर 2005 से पहले कम से कम तीन पीढ़ियों से यह लोग अपने को उस स्थान का निवासी साबित करें जहाँ रहने का वे दावा करते हैं। अशिक्षित, अविकसित, असामान्य जीवन जी रहे आदिवासियों से सरकारी काग़ज़ों पर यह दावा पूरा कराना टेढ़ी खीर साबित हुआ।
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कमजोरों पर पड़ी फ़ैसले की मार
कोर्ट के इस फ़ैसले के आलोचकों का दावा है कि भ्रष्टाचार और सामंतवाद में आकंठ डूबी सरकारी मशीनरी द्वारा इस प्रक्रिया के पालन में वे लोग ही बाहर छूट गए जो सबसे कमजोर और सबसे असुरक्षित थे। बिलासपुर हाईकोर्ट में अधिवक्ता महेंद्र दुबे ने राज्य सरकारों को आदिवासियों के जायज हक़ के निष्पादन में फ़ेल रहने का दोषी माना है।
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क़ानून से मिला था मालिकाना हक़
दिसंबर 2006 में बने अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी क़ानून के जरिये आदिवासियों और जंगल में रहने वालों को उन ज़मीनों का मालिकाना हक़ दिया गया था, जिस पर वे पीढ़ियों से खेती-किसानी व पशुपालन करते आ रहे हैं। इसकी सीमा प्रति परिवार अधिकतम 4 हेक्टेयर ज़मीन की रखी गई थी। साथ ही जंगली उत्पादों से जीवन यापन, पशुओं को चराना आदि भी इसमें शामिल है।
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- अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी क़ानून के अनुसार संबंधित ग्रामसभाओं को ऐसे परिवारों की लिस्ट बनानी थी और इन लिस्ट को तहसील स्तर पर जाँचे जाने के बाद जिले को भेजा जाना था। तहसील के स्तर पर बनी जाँच समितियों में वन विभाग, कर विभाग और आदिवासी वेलफ़ेयर विभाग के सदस्यों को शामिल किया जाना था।
सामाजिक कार्यकर्ता अनिल गर्ग के अनुसार ज़्यादातर राज्यों में यह काम उसी तरह होता रहा जैसे हर काम होता है। रिश्वत में मुर्ग़ा/शहद आदि न दे पाने वाले और सरकारी कर्मियों द्वारा उनके बच्चों को घरेलू नौकर के रूप में माँग लेने से डरकर सरकारी तंत्र से दूर रहने वाले लोग ग्राम सभा के सेक्रेटरी और जाँच समितियों के सदस्यों की उपेक्षा का शिकार हो गए और लिस्ट में शामिल होने से छूट गए।
केंद्र की ओर से नहीं था वकील
आदिवासियों और ग़रीबों के मामले में अनदेखी और उपेक्षा का हमारा रिकॉर्ड इतना शानदार है कि क़रीब 11 लाख परिवारों के जीवन-मरण पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान न केंद्र सरकार का कोई वकील मौजूद था और न राज्यों का! जबकि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में औद्योगिक घरानों को वनभूमि आवंटित करते समय राज्य सरकारों ने इस क़ानून की कई बार अनदेखी की।
- एक्ट के अनुसार वनभूमि की कोई भी ज़मीन किसी और मद में तभी अधिग्रहीत की जा सकेगी जब वहाँ रहने वालों में से आधे से अधिक इसके लिए तैयार हों। लेकिन ऐसा कहीं देखने में नहीं आया कि किसी राज्य सरकार ने एक भी मामले में इसका पालन किया हो।
राहुल गाँधी ने उठाया क़दम
फ़ैसले के आने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने पहल करते हुए छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी मुख्यमंत्री को पत्र लिखा और अपेक्षा की कि राज्य सरकार इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ रिव्यू पिटीशन दाखिल करेगी।
राहुल गाँधी ने लिखा छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल को पत्र।
मुख्यमंत्री बघेल ने ट्वीट पर जवाब देते हुए लिखा, ‘ जल-जंगल और ज़मीन की लड़ाई में हम कंधे से कंधा मिलाकर आदिवासी भाई-बहनों के साथ खड़े हैं। अगली सुनवाई में वकील खड़ा करेंगे और ज़रूरत पड़ी तो पुनर्विचार याचिका भी दायर करेंगे।'
वामपंथी बोले, फ़ैसला अमानवीय
सभी वामपंथी दलों ने इस फ़ैसले को अमानवीय बताया है और लगता है कि सामाजिक न्याय वालों की नज़र इधर नहीं गई और बीजेपी न जाने इस पर क्यों चुप है। बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की ओर से वकील तक उस दिन कोर्ट में नहीं था। हालाँकि यह बात अलग है कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने उड़ीसा की एक आदिवासी बहुल जनसभा में बीजेपी सरकार द्वारा आदिवासियों के हक़ में किए गए कामों पर समर्थन माँगा।
फ़ैसले के विरोध की तैयारी
आदिवासियों के बीच काम कर रहे संगठन इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सड़क पर उतरने जा रहे हैं। कई जगह स्वत: स्फूर्त प्रदर्शन हो चुके हैं। जयस (जय आदिवासी युवाशक्ति) के प्रमुख डॉ. हीरालाल ने बताया कि वे लोग आंदोलन की तैयारी में लग गए हैं। हिमांशु कुमार ने फ़ेसबुक पर लिखा, ‘एक-एक पेड़ और एक-एक इंच भूमि के लिए लड़ाई होगी।’ स्वाभाविक तौर पर नक्सलवादियों को भी इस फ़ैसले से ऑक्सीजन मिल सकती है!
- देश के कई राज्यों में वहाँ की सरकार आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों के दावों को खारिज कर चुकी है।
30 लाख से ज़्यादा लोग होंगे प्रभावित
देश में क़रीब 11 करोड़ आदिवासी हैं। इस फ़ैसले से 30 लाख से ज़्यादा लोग प्रभावित होंगे। दलित उत्पीड़न क़ानून के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ केंद्र सरकार ने क़ानून संशोधन तक का क़दम उठाया। पिछड़ी जातियों के लिए संवेदनशील तेरह सूत्रीय रोस्टर पर वह टालमटोल कर रही है और अब यह आदिवासियों का मसला। आम चुनाव के इतने क़रीब ऐसे सवालों पर बीजेपी और केंद्र सरकार को टालमटोल या चुप्पी भारी भी पड़ सकती है!