बंगाली अस्मिता को राजनीति के केंद्र में लाएँगी ममता बनर्जी?

02:37 pm May 30, 2019 | प्रमोद मल्लिक - सत्य हिन्दी

लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी की ज़बरदस्त कामयाबी से परेशान तृणमूल कांग्रेस ने उसे रोकने के लिए अपनी रणनीति बदलने का फ़ैसला किया है। राज्य के सत्तारूढ़ दल ने बंगाली अस्मिता और बंगालीपन को पश्चिम बंगाल की राजनीति के केंद्र में लाने का निर्णय किया है। इसकी रणनीति यह होगी कि किसी भी सूरत में बीजेपी को ‘बाहरी लोगों की पार्टी’, बांग्ला-विरोधी पार्टी और बंगाली अस्मिता और ‘बंगाली मूल्यों के ख़िलाफ़ काम करने वाली पार्टी’ के रूप में स्थापित किया जाए। यह रणनीति कितना कारगर होगी, यह कहना अभी मुश्किल है। पर तृणमूल कांग्रेस बीजेपी को घेरने के लिए इस हथियार का इस्तेमाल करेगी, यह साफ़ है।

इसे तृणमूल कांग्रेस के सांसद और ममता बनर्जी के नज़दीक समझे जाने वाले सुदीप बंद्योपाध्याय की बातों से समझा जा सकता है।

पश्चिम बंगाल के 86 प्रतिशत लोग बांग्ला बोलते हैं, लेकिन बीजेपी के विकास के साथ ही बंगालीपन ख़तरे में है। हमारे ऊपर तुष्टिकरण का आरोप सही नहीं है। रेड रोड पहले ईद की नमाज़ के लिए जाना जाता था, अब यह दुर्गा पूजा कार्निवल के लिए जाना जाता है, जो इतना बड़ा बन रहा है कि अब उसे अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति मिल रही है।’


सुदीप बंद्योपाध्याय, सांसद, तृणमूल कांग्रेस

बीजेपी के पास पश्चिम बंगाल से कोई बहुत बड़ा राष्ट्रीय स्तर का नेता नहीं है। वहाँ चुनाव प्रचार में सबसे अधिक रैलियाँ करने वाले अमित शाह और नरेंद्र मोदी हैं, जो, ज़ाहिर है, बंगाली नहीं हैं। तृणमूल इसका फ़ायदा उठा कर यह साबित करना चाहती है कि बीजेपी बंगालियों की पार्टी नहीं है।

बंगाली प्रतीक

तृणमूल कांग्रेस का यह फ़ैसला यकायक नहीं है। चुनाव के पहले ही उसने इस पर काम शुरू कर दिया था। चुनाव प्रचार के दौरान कई बार ममता बनर्जी की रैलियों की शुरुआत शंख बजाने और उलूकध्वनि से की गई। बंगाली संस्कृति में महिलाएं जीभ को तालु से टकरा कर ख़ास किस्म की ध्वनि निकालती हैं, जिसे उलूकध्वनि कहते हैं। यह शुभ माना जाता है, शादी-ब्याह और पूजा वगैरह में यह ध्वनि निकाली जाती है। इस तरह तृणमूल कांग्रेस ने बंगालीपन को अपना आधार बनाना उसी समय शुरू कर दिया था।

तृणमूल कांग्रेस ने बंगालीपन के दूसरे प्रतीक दुर्गापूजा को भी समय रहते ही लपक लिया था। नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि जय श्रीराम कहने से पश्चिम बंगाल में जेल हो जाती है। बाँकुड़ा के रानीबाँध में चुनाव रैली में ममता बनर्जी ने मोदी पर पलटवार करते हुए कहा, 'वह झूठ बोलते हैं।' उन्होंने तंज करते हुए मोदी से पूछा, ‘आपको पता है कि दुर्गा के कितने हाथ होते हैं और उनके कितने और कौन अस्त्र-शस्त्र हैं’  

दरअसल पश्चिम बंगाल की संस्कृति के केंद्र में राम नहीं हैं। जिस तरह बिहार-उत्तर प्रदेश के कुछ इलाक़ों में ‘जय राम जी’ नमस्कार करने का तरीका है, वैसा पश्चिम बंगाल में नहीं है।

रथ यात्रा

पश्चिम बंगाल में लोगों ने ‘जय श्री राम’ का नारा पहली बार लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान ही सुना था, उसे भी लोगों ने स्वीकार नहीं किया। आज भी यह नारा वहाँ लोकप्रिय नहीं है, हो भी नहीं सकता। यह बात शाह या मोदी नहीं समझ सकते, क्योंकि वे बंगाली मानसिकता को नहीं समझ पाते। पश्चिम बंगाल के स्थानीय बीजेपी नेता ‘जय श्री राम’ का नारा भले लगाते हों, वे इसे आम जनता तक नहीं ले गए।

बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व इस मामले में बार-बार ग़लती करता रहा है। वह यह नहीं समझ पाता है कि पश्चिम बंगाल की संस्कृति में जय श्री राम नहीं है तो रथ भी नहीं है। वहाँ रथ का मतलब सिर्फ़ जगन्नाथ रथ है और वह भी शहरों तक सीमित है।

वह भी साल में एक बार निकलता है उसमें लोगों की सीमित भागेदारी ही होती है।  जब पिछले साल बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में रथ यात्रा निकालने की योजना बनाई थी और इस पर सुप्रीम कोर्ट तक चली गई थी, उस समय भी राज्य नेतृत्व ने इसे बाद में बदल कर ‘लोकतंत्र बचाओ यात्रा’ कहा था। उसे किसी रथ से नहीं जोड़ा था। वे अच्छी तरह जानते थे कि रथ नहीं चल पाएगा।

यही हाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की समझ को लेकर है। चित्तपावन ब्राह्मणों के वर्चस्व वाले आरएसएस के केंद्रीय नेतृत्व के लोग नहीं समझ पाते हैं कि पश्चिम बंगाल की शाक्त परंपरा हिन्दुत्व के उनके नज़रिए में फिट नहीं बैठती है। इसे एक उदाहरण से  समझा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में काली पूजा की पंरपरा है, जिसमें मांस खाया जाता है। आरएसएस का केंद्रीय नेतृत्व इसे मन से स्वीकार नहीं कर पाता है। इसी तरह आरएसएस की अस्त्र पूजा पश्चिम बंगाल में नहीं चल पाई, वहाँ इन हथियारों को हिंसा के प्रतीक के रूप में लिया जाता है।

ऐसी स्थिति में बीजेपी तब बुरी तरह फँस गई जब तृणमूल कांग्रेस बंगाली अस्मिता या हिन्दुत्व के बंगाली प्रतीकों को लेकर सामने आई। चुनाव प्रचार के दौरान ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने बेहद होशियारी और तय रणनीति के तहत ‘जय हिंद’ और ‘वंदे मातरम’ के नारों को उछाला और मोदी को उनकी ही बिसात पर घेरने की कोशिश की। ये दोनों नारे बंगाली अस्मिता से जुड़े हुए हैं।

बंगाली अस्मिता का सवाल

इसी तरह वंदे मातरम के मुद्दे पर बीजेपी हमेशा ही मुसलमानों की निष्ठा पर सवाल उठाती रहती है और इसे एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा बनाती रहती है। ममता बनर्जी ने उस वंदे मातरम के मुद्दे को ही उठा लिया, क्योंकि इसके रचयिता बंकिम चंद्र चटर्जी बंगाली थे और वह बांग्ला गौरव समझे जाते हैं।

बीजेपी चुनाव प्रचार के दौरान इस बंगाली राष्ट्रवाद के कार्ड को समझने में बुरी तरह नाकाम रही। कोलकाता में विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ने के मामले ने तूल पकड़ा और उसके बाद के चरण में 9 सीटों पर हुए मतदान में सभी सीटें तृणमूल ने जीत लीं। नरेंद्र मोदी ने सियासी नुक़सान रोकने की कोशिश में कहा कि केंद्र सरकार विद्यासागर की भव्य प्रतिमा बनवाएगी। पर ममता बनर्जी ने तुरंत जवाब दिया और कहा कि पश्चिम बंगाल के लोगों के पास इतना पैसा है कि वे यह काम ख़ुद कर लेंगे, बाहरी मदद की ज़रूरत नहीं है। उन्होंने मोदी पर कटाक्ष करते हुए कहा, ‘पहले आप राम मंदिर बनवाइए। ‘

मोदी ने भले ही राम मंदिर का आश्वासन पूरा नहीं किया, राज्य सरकार  ने तीन लोगों की प्रतिमाएँ बनवाने का फ़ैसला कर लिया है। रबींद्रनाथ टैगोर, आशुतोष मुखर्जी और ईश्वरचंद्र विद्यासागर। ये तीनों ही बंगाली अस्मिता के प्रतीक हैं। पश्चिम बंगाल के शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी ने घोषणा की है कि आशुतोष मुखर्जी की प्रतिमा कलकत्ता विश्वविद्यालय, रबींद्रनाथ की प्रतिमा प्रेसीडेन्सी विश्वविद्यालय और विद्यासागर की प्रतिमा विद्यासागर कॉलेज में स्थापित की जाएगी। आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के पहले भारतीय वाइस चांसलर थे। विद्यासागर से कलकत्ता विश्वविद्यालय का इलाक़ा वही क्षेत्र है, जहाँ से होकर मोदी का रोड शो निकला था और मारपीट हुई थी।

बीजेपी का बंगाली कार्ड

बीजेपी ने इस बंगाली अस्मिता के कार्ड को अपने तरीके से खेलने की कोशिश की थी, पर वह नाकाम रही। उसने जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सामने लाने की कोशिश की और पिछले साल कोलकाता में उनके नाम पर म्यूज़ियम बनाने का एलान कर दिया। श्यामा प्रसाद की और से महात्मा गाँधी, राजेंद्र प्रसाद और दूसरे लोगों को लिखी चिट्ठियों का संग्रह बनाने पर काम शुरू कर दिया। दिल्ली के नेशनल आर्काइव में इसके लिए एक ख़ास टास्क फ़ोर्स गठित किया गया। पर यह बात आगे बढ़ नहीं पाई।

यह बिल्कुल साफ़ है कि तृणमूल जो कुछ करने की योजना बना रही है, वह भी राजनीतिक कारणों से ही है। वह बंगाली अस्मिता का सियासी इस्तेमाल करना चाहती है, लेकिन इस खेल में वह बीजेपी पर भारी पड़ सकती है।