लोकसभा अध्यक्ष चाहे जिस भी दल का सदस्य चुना जाए, वैसे आमतौर पर वह सत्तारूढ़ दल या उसके किसी सहयोगी दल का ही चुना जाता है, लेकिन चुने जाने के बाद उसकी दलीय संबद्धता औपचारिक तौर पर खत्म हो जाती है। वह दलीय गतिविधियों से अपने को दूर कर लेता है।
उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सदन की कार्यवाही का संचालन दलीय हितों और भावनाओं से ऊपर उठकर सदन के नियमों और सुस्थापित मान्य परंपराओं के मुताबिक करेगा और विपक्षी सदस्यों के अधिकारों को भी पूरा संरक्षण देगा।
इस मान्यता और अपेक्षा के बावजूद देखने में यही आता रहा है कि हर लोकसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता का पलड़ा सत्तारूढ़ दल और सरकार की ओर ही झुका रहता है। कोई भी लोकसभा अध्यक्ष इसका अपवाद नहीं रहा और मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला तो कतई नहीं।
टीएमसी सांसदों का मामला
दो लोकसभा सदस्यों के दलबदल से जुड़े एक मामले में कई गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं। इनकी सदस्यता दलबदल निरोधक कानून के तहत लोकसभा अध्यक्ष ने अभी तक समाप्त घोषित नहीं की है। क्या इसकी वजह यह है कि दलबदल करने वाले दोनों सदस्य तृणमूल कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए हैं?
तृणमूल कांग्रेस के नेता लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला से कई दिनों से गुहार लगा रहे हैं कि पार्टी छोड़ने वाले दोनों सांसदों की सदस्यता खत्म की जाए।
पिछले दिनों जब तृणमूल कांग्रेस संसदीय दल के नेता सुदीप बंदोपाध्याय इस सिलसिले में लोकसभा अध्यक्ष से मिले थे तो अध्यक्ष की ओर से कहा गया था कि वे इस मामले में जल्द ही एक कमेटी बनाएंगे जो तृणमूल कांग्रेस छोड़ने वाले दोनों सांसदों शिशिर अधिकारी और सुनील मंडल की सदस्यता के बारे में फैसला करेगी।
क्यों नहीं किया फैसला?
जाहिर है कि लोकसभा अध्यक्ष के इस रवैये पर आरोप तो लगेंगे कि आख़िर क्यों मामले को लटकाया जा रहा है, क्योंकि दलबदल निरोधक कानून के मुताबिक़ दलबदल करने वाले किसी सांसद या विधायक की सदस्यता समाप्त घोषित करने का फैसला संबंधित सदन के पीठासीन अधिकारी को करना होता है न कि किसी कमेटी को।
तथ्य यह है कि तृणमूल कांग्रेस के दोनों सदस्य पार्टी छोड़ चुके हैं, लिहाजा उनके पार्टी छोड़े जाने के बारे में किसी तरह की जांच करने के लिए कमेटी बनाने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। सुनील मंडल को तो पार्टी छोड़े हुए सात महीने हो चुके हैं। उन्होंने 19 दिसंबर को मिदनापुर में हुई केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की रैली में बीजेपी में शामिल होने का एलान किया था।
शिशिर अधिकारी को भी बीजेपी में शामिल हुए चार महीने हो गए हैं। वे नंदीग्राम में 21 मार्च को हुई अमित शाह की रैली में बीजेपी में शामिल हुए थे। इसलिए दोनों के ख़िलाफ़ साफ तौर पर दलबदल का मामला बनता है। सुनील मंडल के ख़िलाफ़ तो तृणमूल कांग्रेस ने जनवरी के पहले हफ्ते में ही लोकसभा सचिवालय में शिकायत दर्ज करा दी थी।
एक सवाल यह भी है कि आखिर ये दोनों सांसद खुद ही इस्तीफ़ा क्यों नहीं दे रहे हैं? जब शिशिर अधिकारी के बेटे शुभेंदु अधिकारी ने तृणमूल कांग्रेस छोड़ी थी तो उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से भी इस्तीफ़ा दे दिया था। इसी तरह शिशिर और सुनील मंडल लोकसभा से इस्तीफ़ा क्यों नहीं दे रहे हैं?
चूंकि दोनों सांसद इस्तीफ़ा नहीं दे रहे हैं और लोकसभा अध्यक्ष भी उनकी सदस्यता समाप्त घोषित नहीं कर रहे हैं, इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि दोनों सांसदों को कहीं न कहीं यह भरोसा है कि उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं होगी और मामला लटका रहेगा, लिहाजा इस्तीफ़ा देने की ज़रूरत नहीं है।
जाहिर है कि लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला अगर मामले को लटकाए हुए हैं तो उन पर भी कहीं से दबाव है या उन्हें संकेत दिया गया है कि वे मामले को इसी तरह लटकाए रखें।
यह सही है कि ओम बिड़ला कोई बहुत अनुभवी राजनेता नहीं हैं। तीन मर्तबा विधानसभा और दूसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए बिड़ला ने लोकसभा अध्यक्ष बनने से पहले कभी किसी संवैधानिक पद का दायित्व नहीं संभाला है।
बिड़ला का चयन चौंकाने वाला
लोकसभा अध्यक्ष पद के लिए उनका चयन चौंकाने वाला था। दूसरे दलों की बात तो दूर, खुद बीजेपी में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के अलावा आज तक कोई नहीं जान सका कि ओम बिड़ला को क्यों लोकसभा अध्यक्ष बनाया गया जबकि ऐसे ढेरों अनुभवी सांसद बीजेपी में हैं जिनको ये पद दिया जा सकता था।
हालांकि ऐसा नहीं है कि ओम बिड़ला के रूप में पहली बार किसी गैर अनुभवी सांसद ने लोकसभा अध्यक्ष का पद संभाला हो। उनसे पहले भी गैर अनुभवी या कम अनुभवी सांसद लोकसभा के अध्यक्ष बने हैं। इस सिलसिले में पहला नाम तेलुगू देशम पार्टी के जीएमसी बालयोगी का लिया जा सकता है, जो एनडीए सरकार के समय 1998 में बारहवीं और 1999 में तेरहवीं लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए थे।
पहली बार जब वे अध्यक्ष चुने गए थे तो वह लोकसभा में उनका दूसरा कार्यकाल था। 2002 में एक विमान दुर्घटना में उनका आकस्मिक निधन हो जाने पर उनकी जगह पहली बार ही संसद के सदस्य बने शिवसेना नेता मनोहर जोशी को लोकसभा अध्यक्ष चुना गया था। लेकिन मनोहर जोशी उसके पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का पद संभाल चुके थे।
लेकिन ये ज़रूर कहा जा सकता है कि बालयोगी और जोशी दोनों ने ही सदन में और सदन के बाहर अपने कामकाज और व्यवहार से लोकसभा अध्यक्ष के पद की गरिमा को कायम रखा था। आरोप लगाने वालों ने हालांकि तब भी उनपर आरोप लगाये थे लेकिन कोई ये नहीं कह सका था कि उन्होंने सदस्यों के साथ इंसाफ़ नहीं किया।