ऐसा लगता है कि चुनाव के बाद त्रिशंकु लोकसभा बनेगी। क्षेत्रीय नेता मई में राजसी पोशाक पहनने का दिवा स्वप्न देख रहे हैं। राजनीति का अंतिम फल सत्ता ही है। राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा पालने वाला हर नेता चाहे वह छोटा-मोटा हो या बहुत बड़ा, इंद्रप्रस्थ के चमचमाते सिंहासन को हथियाना चाहता है। अब जबकि चुनाव नतीजे आने में सिर्फ़ दो हफ़्ते बचे हैं, कई नेताओं ने ख़ुद को किंगमेकर की भूमिका के लिए तैयार कर लिया है।
साल 2019 का चुनाव सिर्फ़ आदर्शों और सिद्धान्तों की लड़ाई नहीं है। देश के 542 लोकसभा क्षेत्रों के मतदाताओं के सामने अजीब ढंग से दो ही विकल्प हैं, या तो वह नरेंद्र मोदी हैं या फिर क्षेत्रीय नेता।
उदाहरणस्वरूप, प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के लोग नागरिकों को बार-बार यह याद दिलाते रहते हैं कि यदि उन्होंने कमल चिह्न पर बटन दबाया तो वह वोट सीधे मोदी के खाते में जाएगा। विपक्षी मतों की कुशल कारीगर ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, चंद्रबाबू नायडू, मायावती वग़ैरह हैं। हालाँकि इनमें से किसी ने सौदेबाज़ी की कोई पहल नहीं की है, पर उनका नाम 7, लोक कल्याण मार्ग के भावी निवासी के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। लोकसभा की 424 सीटों पर मतदान हो चुका है। राजनीतिक भविष्यवाणी करने वाले अनुभवी लोग हवा भाँपने की कोशिश कर रहे हैं। कार्यकर्ताओं की भाव-भंगिमा और मूड को देख कर लगता है कि भारत खंडित जनादेश की ओर बढ़ रहा है।
बाक़ी बची हुई 118 सीटों के लिए अंतिम समय में होने वाले मोदी के सुनामी जैसे धुआँधार प्रचार से चुनाव नतीजों पर असर पड़ेगा, पर वह आंशिक ही होगा।
भारतीय मीडिया के तेवर को देख कर लगता है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर टेलीविज़न समेत पूरा मीडिया काफ़ी सौम्य हो गया है और बाहर से देखने पर निष्पक्ष भी लगने लगा है। क्या ऐसा पाँच चरणों के लिए हुए एग्जिट पोल की वजह से हुआ है? क्षेत्रीय नेता मई में राजसी पोशाक पहनने का दिवा स्वप्न देख रहे हैं।
एक अजीब उदाहरण तेलंगाना के मुख्यमंत्री और ग़ैर-कांग्रेस, ग़ैर-बीजेपी गठबंधन के स्वघोषित निर्माता के.चंद्रशेखर राव (केसीआर) हैं। उनके राज्य में सिर्फ़ 17 लोकसभा सीटें हैं। पर उनका मानना है कि दिसंबर 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में मिली ज़बरदस्त जीत ने उनका क़द बढ़ा कर बड़े क्षेत्रीय नेताओं और विपक्षी नेताओं के बराबर कर दिया है। उनकी चुनाव पूर्व गठबंधन यात्रा शुरू हो चुकी है।
केसीआर ने अपनी योजना को शुरू करने के लिए केरल के मार्क्सवादी मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन को चुना। विडंबना यह है कि केसीआर की छवि बीजेपी समर्थक की है और वह बीजेपी और नरेंद्र मोदी के धुर-विरोधियों के साथ ही साँठ-गाँठ कर रहे हैं।
विजयन को अपने पाले में लाने के बाद केसीआर का अगला लक्ष्य डीएमके अध्यक्ष एम. के. स्टालिन को अपनी तरफ़ लाना है। स्टालिन यह चुनाव कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ रहे हैं। वह निस्संदेह अपने राज्य के ऐसे नेता हैं, जिनके नाम पर कोई विवाद नहीं है। अब तक केसीआर ने अपनी योजनाएँ गोपनीय रखी हैं। पर राजनीतिक पंडितों का कहना है कि यदि बीजेपी को बहुमत नहीं मिला तो केसीआर उसका समर्थन करेंगे। विपक्षी नेता केसीआर का चाहे जितना स्वागत करें या जो कुछ कहें, सत्ता के दलाल के रूप में उनकी कार्यकुशलता इस पर निर्भर करती है कि उनके दल को कितनी सीटें मिलेंगी। वह अकेले चलते हैं और केंद्र सरकार में शामिल होने और निकल आने के लिए जाने जाते रहे हैं, लेकिन गठबंधन बनाने में उन्हें महारत हासिल नहीं है।
केसीआर की साख संदेह के घेरे में है क्योंकि उनकी पार्टी दक्षिण भारत की अकेली ऐसी पार्टी है, जिस पर आयकर, प्रवर्तन निदेशालय यानी एनफ़ोर्समेंट डाइरेक्टरेट और सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेसियों के छापे वग़ैरह नहीं पड़े हैं। केंद्रीय सरकार बनाने की संभावनाएँ तलाशने में उनकी हद से ज़्यादा दिलचस्पी से भी कई राजनीतिक सवाल उठते हैं। कांग्रेस से उनकी पुरानी खिसियाहट का नतीजा यह होगा कि वह भविष्य के किसी भी गठजोड़ से कांग्रेस को बाहर रखेंगे।
केसीआर बीजेपी विरोधी पार्टियों से बात कर रहे हैं, शायद उन्होंने यह निष्कर्ष निकाल लिया है कि साउथ ब्लॉक का अगला रंग केसरिया नहीं होगा।
दक्षिण भारत के 5 राज्यों की 131 सीटों में से बीजेपी 20 से अधिक सीटें नहीं निकाल पाएगी। ऐसे में त्रिशंकु लोकसभा होने की स्थिति में डीएमके, टीडीपी, वामपंथी दल, जेडी (एस), टीआरएस, वाईएसआरसी और कांग्रेस के 110 सीटों के शक्तिशाली ब्लॉक की बड़ी भूमिका होगी।
कांग्रेस का मानना है कि दक्षिण भारत के 5 में से 4 राज्यों में उसे बीजेपी से ज़्यादा सीटें मिलेंगी। इसका अपवाद केरल है, जहां मोदी की थोड़ी बहुत पकड़ हो गई है। इसलिए केसीआर बार-बार अपनी जेब से राजनीतिक कैलकुलेटर निकालते रहते हैं।
टीआरएस के अंदर के लोगों के मुताबिक़, वहाँ चल रहे नंबर के हिसाब-किताब का कुल लब्बोलुवाब यह है कि बीजेपी को बहुमत नहीं मिलने जा रहा है। उनका अनुमान है कि ग़ैर-कांग्रेस और ग़ैर-बीजेपी की कुल सीटों से ज़्यादा सीटें तीसरे मोर्चे को मिलेंगी। यह गणना प्रोबैबलिटी के विज्ञान पर आधारित है।
साल 2014 में बीजेपी यूपीए विरोध और मोदी समर्थन की लहर पर सवार होकर 400 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, उसमें से 282 सीटें वह जीत गई थी। इनमें से 225 सीटें तो 11 राज्यों से ही निकलीं। इनमें से आधी सीटें तो बीजेपी ने कांग्रेस से छीनी थीं।
बीजेपी की सफलता की दर राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में लगभग शत-प्रतिशत थी। बीजेपी ने उत्तर प्रदेश की 80 में से 71 सीटें जीत लीं थी जो एक रिकॉर्ड है। बीजेपी विरोधियों का कहना है कि केंद्र और राज्य में सत्ता विरोधी लहर की वजह से बीजेपी अपनी पुरानी कामयाबी को नहीं दुहरा पाएगी। अब तक मोटे तौर पर यह होता आया है कि दिल्ली के मतदाता 60 प्रतिशत नेताओं को दुबारा नहीं चुनते हैं।
प्रोबैबलिटी का सिद्धांत कांग्रेस के साथ
तीन सौ सीटें जीतने का बीजेपी का आकलन बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है और कोई चुनाव विशेषज्ञ या इतिहासकार इसकी पुष्टि नहीं करता है। इसके अलावा यह भी सच है कि ऐसा करने के लिए बीजेपी को न केवल अपनी मौजूदा सीटें बचानी होंगी, बल्कि उसे पश्चिम बंगाल, ओडिशा और दक्षिण भारत में भी पहले से बहुत बेहतर प्रदर्शन करना होगा और यह बहुत बड़ी बात होगी। इसलिए लगता है कि प्रोबैबलिटी का सिद्धांत कांग्रेस के साथ है।कांग्रेस की सभी 44 सीटें सिर्फ़ 14 राज्यों से आईं। किसी भी राज्य में यह दहाई की संख्या में नहीं पहुँच सकी। यह संख्या ऊपर ही जा सकती है। हर राज्य में इसकी लड़ाई कमल चिह्न से है। और बीजेपी का नुक़सान कांग्रेस का फ़ायदा है। लेकिन फिर भी, चेहरों को छोड़ दिया जाए तो आर्थिक और सामाजिक सच्चाई यह है कि दोनों पार्टियाँ एक-दूसरे की तसवीर हैं।
राहुल गाँधी में अपनी बात कहने की कला में काफ़ी निखार आया है। फिर भी, बिल्कुल अलग-अलग सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि वाले लोगों के बीच अपनी बात एक समान कहने के मामले में वह उतने निपुण अभी नहीं हो पाए हैं, जितने दूसरे कद्दावर नेता हैं। वह विपक्षी नेताओं की बैठकों में मोटे तौर पर उपस्थित नहीं होते हैं। क्षेत्रीय नवाब उनकी राजनीतिक ख़ामियों का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं।
शरद पवार और चंद्रबाबू नायडू जैसे दूसरे क्षेत्रीय क़द्दावर नेता भी मोदी की वापसी रोकने के लिए मिल कर काम कर रहे हैं। मोदी की सफलता इस पर निर्भर है कि उनका निजी करिश्मा लोगों को कितना प्रभावित करेगा कि वे वोट डालते समय बीजेपी को भूल जाएँ और सिर्फ़ यह याद रखें कि उन्होंने क्या किया है।
साभार - द न्यू इंडियन एक्सप्रेस