क्या हमारे वन्य जीवन को मुद्दा बनाएगा यह ऑस्कर?
एक हथिनी बिजली का नंगा तार छूकर मारी गई लेकिन उसके छोटे से घायल बच्चे को किसी तरह बचा लिया गया। तमिलनाडु के मुदुमलै नेशनल पार्क में पूरे पांच साल लगाकर फिल्माई गई कार्तिकी गोंजाल्वेज की फिल्म ‘द एलीफ़ेंट व्हिसपरर्स’ यह नहीं बताती कि हथिनी ने बिजली का तार आखिर छुआ कैसे। कई सारे बेरहम सवाल इससे जुड़े चले आते हैं। फ़सलें बचाने के लिए की गई इलेक्ट्रिक फेंसिंग। हाथीदांत और चंदन की तस्करी। इस बार डॉक्यूमेंट्री कैटेगरी का ऑस्कर जीतने वाली इस फिल्म में ऐसी कड़वी सचाइयों को न छूने का फ़ैसला फ़िल्मकार ने इरादतन किया हो, ऐसा भी नहीं है। फिल्म का क्राफ्ट ही कुछ ऐसा है कि विलेन के लिए इसमें कोई जगह नहीं है।
और तो और, दिनोंदिन बेरहम होते जा रहे मौसम तक को इसमें खलनायक की तरह पेश नहीं किया गया है। सिर्फ कुछ गिने-चुने फ्रेम्स के ज़रिये बता दिया गया है कि ठेठ गर्मियों में जब जंगल सूख जाते हैं तो चारा-पानी के लिए परेशान हाथियों के झुंड बौखलाहट में बस्तियों का रुख करते हैं। इस दौरान कई बार उनके बच्चे भटक जाते हैं। ऐसे जानलेवा पहलुओं से जान-बूझकर दूर रहना भी कई बार बहुत मायने रखता है। अगर हम जान भी लें कि दुनिया में कुछ गिने-चुने आज़ाद जानवर कितने भयानक दबावों का सामना कर रहे हैं, तो इसके मायने क्या निकलेंगे? बात तब है जब हम उनके दुख को महसूस करें। जानें कि उनके लिए कुछ किया जा सकता है। यह भी कि एक गरीब वनवासी दंपति एक जंगली हाथी को अपने बच्चे की तरह पालता है, उससे अलग होकर रोता है।
कट्टुनायकन नाम के एक आदिवासी समुदाय को पिछले 130 वर्षों से हाथियों के अनाथ बच्चे पालने की ज़िम्मेदारी दी गई है। यह काम वे फॉरेस्ट डिपार्टमेंट की देखरेख में करते हैं। कार्तिकी गोंजाल्वेज और इस फिल्म की प्रॉड्यूसर गुनीत मोंगा को जैसे ही ख़बर लगी कि तीन महीने का एक हाथी का बच्चा ऐसे ही एक आदिवासी परिवार में पल रहा है, वे कैमरे के साथ वहां अपना वक्त बिताने लगीं। सिनेमैटोग्राफरों की एक अद्भुत टीम के साथ उन्होंने सिर्फ इस बच्चे और उसको पाल रहे परिवार को ही नहीं, पूरे जंगल के बहुत सुंदर फ्रेम उतारे। फिल्म सिर्फ 43 मिनट की है, लेकिन देखते हुए साफ़ लगता है कि फिल्मकारों ने इस क़िस्से के लिए फुटेज जुटाने में कितनी मेहनत की होगी।
हाथियों के झुंड के अलावा बाघ, भालू, लंगूर हिरन, कई तरह के पंछी, छोटी-छोटी पहाड़ी जलधाराएँ और विविध मौसमों में रंग-बिरंगे रूप धरता इर्द-गिर्द का विशाल जंगल। इन दृश्यों के साथ अपनी दुनिया में मगन रहने वाले आदिवासी समाज का जीवन भी अपने तीज-त्यौहारों, देवी-देवताओं के साथ उभरकर आता है। सबसे अच्छी बात यह कि स्थानीय वन विभाग को भी बिना किसी सरकारी फ्रेम के यहाँ एक सजग संस्था की तरह पेश किया गया है।
तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और झारखंड में आदिवासियों का सबसे ज़्यादा टकराव वन विभाग के कर्मचारियों से ही देखा जाता है, प्रायः आदिवासी जीवन पद्धति को लेकर बिल्कुल संवेदनशील नहीं होते।
अच्छी बात है कि समय के साथ चीजें बदल रही हैं। जंगलात की अच्छी देखभाल तभी हो पाएगी, जब जंगल और इंसानों की आपस में पटरी बैठे। फ़िल्म में हाथी के बच्चे का नाम रघु है और कैमरे पर वह तीन महीने की मरियल शक्ल से शुरू करके तीन साल की उम्र वाले ताक़तवर बच्चे का कद-बुत निकालता है। उसका खाना, नहाना, अपने घर में रहना और अपने पालकों के साथ बच्चों जैसी अठखेलियाँ करना, सब कुछ एकदम से मन मोह लेता है। देखते हुए एक हुड़क सी उठती है कि इस सहज प्राकृतिक जीवन से हम कितनी दूर निकल आए हैं, और यहाँ आकर आख़िर कर क्या रहे हैं। ऐसा कुछ भी तो नहीं, जिससे किसी की ज़िंदगी आसान होती हो।
फ़िल्म के बीच में ही एक छोटी सी हथिनी अम्मू भी इसी आदिवासी परिवार, बोमन और उसकी पत्नी को पालने के लिए सौंप दी जाती है। इस बच्चे का हाल भी वैसा ही है, जैसा रघु का अपनी मां से अलग होने पर था। हाथियों के बच्चे लंबे समय तक अपनी मां का दूध पीते हैं। इन छोटे बच्चों के लिए बाहरी दूध पर पलना आसान नहीं होता, और शायद उनकी खुराक भी मुश्किल से ही पूरी होती है। पके बालों वाले बोमन की शादी भी फिल्म के बीच में ही होती है। जिन महिला के साथ वे रहते हैं, फिर शादी करते हैं, उनके पूर्व-पति की मृत्यु एक बाघ के हमले में हो चुकी है। यह डॉक्यूमेंट्री अपनी बनावट में जंगल, इंसान और जानवर के रिश्ते की एक मनोरम तस्वीर उतारती है, लेकिन यह सब बहुत आसान है, ऐसा कोई भ्रमजाल नहीं बुनती।
कई नुकीले सवाल भी इसमें उभरते हैं, लेकिन फ़िल्म वहाँ ठहरती नहीं है। दर्शक को खुद ही सोचना पड़ेगा कि जिस महिला का पति एक जंगली जानवर के हमले में मारा गया हो, उसमें जंगल को लेकर कोई कड़वाहट क्यों नहीं है। इसमें कोई फिल्मी एंगल न देखा जाए। नज़रिये का फर्क किसी भी अभयारण्य के आसपास घूमकर जाना जा सकता है। एनिमल अटैक के बाद जैसा खौफ कथित मुख्यधारा में दिखता है, वैसा आदिवासियों में नहीं दिखता। इस डॉक्यूमेंट्री से थोड़ा हटकर बात करें तो ‘द एलिफैंट विस्परर्स’ कम से कम अपने शीर्षक में दसेक साल पहले आई जिस किताब ‘द एलिफैंट विस्परर’ पर निर्भर करती है, वह दक्षिण अफ्रीका के दो वाइल्डलाइफ रिपोर्टरों लॉरेंस एंथनी और ग्राहम स्पेंस की लिखी हुई है।
अफ्रीकी हाथियों का एक झुंड, जो इंसानी आबादी के लिए इतना ख़तरनाक हो चुका है कि सरकारी स्तर पर उसे ख़त्म कर देने का फ़ैसला हो चुका है। इन कार्यकर्ता-पत्रकारों ने वास्तविक ज़िंदगी में अपनी कोशिशों से इस झुंड को बचा लिया, हालाँकि इस कोशिश में कई बार जानवरों और उनसे भी ख़तरनाक इंसानों के हाथों उनकी जान जाने से बची। ऑस्कर विजेता ‘द एलिफैंट विस्परर्स’ को देखना एक अद्भुत अनुभव है, लेकिन इसकी सफलता तब मानी जाएगी जब भारतीय वन्यजीवों के प्रति संवेदना जगाने वाले और भी कुछ काम इसके पीछे देखने को मिलें और ‘एलिफैंट विस्परर’ जैसा मिजाज हमारे समाज की मुख्यधारा में बनना शुरू हो।
(चंद्र भूषण की फ़ेसबुक वाल से साभार)