बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक तरह से अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी है। नीतीश ने कहा है कि 2025 में बिहार विधानसभा का चुनाव उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। नीतीश के तेजस्वी प्रेम ने बिहार की राजनीति में खलबली मचा दी है।
चर्चा ये हो रही है कि 71 वर्ष के हो चुके नीतीश अब राजनीति से संन्यास लेना चाहते हैं या फिर केंद्रीय राजनीति में आकर 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी विरोधी दलों का नेतृत्व करना चाहते हैं।
हाल में कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी और बीजेपी विरोधी कई पार्टियों के नेताओं से नीतीश ने दिल्ली में मुलाक़ात की थी। कहा जा रहा है कि इसके बाद से नीतीश केंद्रीय राजनीति में ज़्यादा दिलचस्पी लेने लगे हैं।
अपनी पार्टी जेडीयू के विधायक दल की बैठक में उन्होंने यहाँ तक दावा किया कि सभी विरोधी पार्टियाँ मिलकर 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पराजित कर सकती हैं। लेकिन एक बड़ा सवाल ये है कि क्या नीतीश की पार्टी के दूसरे नेता भी तेजस्वी के नेतृत्व को स्वीकार करेंगे?
क्या इस मुद्दे पर नीतीश की पार्टी टूट जाएगी? जेडीयू के नेता आरजेडी के साथ रहेंगे या बीजेपी के साथ जायेंगे?
नीतीश-लालू का प्रेम और नफ़रत
नीतीश कुमार और लालू यादव 1974 के बिहार आंदोलन के समय के साथी हैं। दोनों ही डॉ. राम मनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा से जुड़े रहे हैं। बिहार में सवर्ण राजनीति का सफ़ाया करके पिछड़े नेतृत्व को स्थापित करने में दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। नब्बे के दशक में बिहार की राजनीति पर लालू और उनके परिवार का दबदबा क़ायम हो गया था तब नीतीश ने अलग राह पकड़ ली। लालू से अलग होकर नीतीश ने अपनी पार्टी बनायी और अति पिछड़ों तथा अति दलितों का एक नया राजनीतिक समीकरण खड़ा किया।
यादव और मुसलमान तो लालू के साथ बने रहे लेकिन दूसरी पिछड़ी जातियाँ जैसे कोईरी, कुशवाहा, मल्लाह और अन्य ग़ैर यादव पिछड़ी जातियाँ नीतीश के साथ चली गयीं। इसी तरह नीतीश ने दलितों से उन जातियों को अलग कर लिया जिन्हें आरक्षण का कोई फ़ायदा नहीं मिला था। इस नए समीकरण को सवर्णों और मुसलमानों का भी समर्थन मिला।
लालू को हराया
बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतंत्रिक गठबंधन के साथ 2005 में लालू की पार्टी को पराजित करके नीतीश सत्ता में आए। उसके बाद दो छोटे-छोटे अंतराल को छोड़ कर नीतीश लगातार मुख्यमंत्री बने हुए हैं। नीतीश ने बिहार में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाकर विकास को नयी दिशा दी। एक समय पर उन्हें "सुशासन बाबू" और "विकास बाबू" भी कहा जाने लगा।
लालू के साथ आए
लोकसभा के 2014 के चुनाव के दौरान नीतीश ने नरेंद्र मोदी के विरोध का झंडा उठाया तो लालू की पार्टी से फिर उनका रिश्ता बनना शुरू हुआ। उस समय तक लालू की राजनीति ख़त्म होने की कगार पर पहुँच चुकी थी। पार्टी की कमान लालू के बेटे तेजस्वी यादव ने संभालनी शुरू की थी। 2015 का विधानसभा चुनाव दोनों साथ लड़े और बीजेपी गठबंधन को पराजित किया। पहली बार तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री बने। यह साथ बहुत कम दिनों तक चला। 2017 में नीतीश फिर बीजेपी के साथ लौट गए। तब लालू, तेजस्वी और आरजेडी के नेताओं ने नीतीश पर अनेक गंभीर आरोप लगाए।
2019 के लोकसभा चुनावों से पहले भी विपक्ष के कई नेताओं ने नीतीश से बीजेपी विरोधी मोर्चा का नेतृत्व करने की अपील की। लेकिन वह तैयार नहीं हुए। बीजेपी से नीतीश का दूसरी बार मोहभंग 2022 में महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार गिरने के बाद हुआ। नीतीश फिर से लालू यादव के साथ आ गए। इस बार वह राष्ट्रीय राजनीति में ज़्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं।
जेडीयू का भविष्य?
बिहार की राजनीति पूरी तरह से जातिवाद पर आधारित है। सवर्ण मुख्यतः बीजेपी के साथ हैं जबकि यादव और मुसलमानों का झुकाव आरजेडी की तरफ़ है। अति पिछड़ों और अति दलितों के समर्थन से नीतीश चुनाव में जीत की गारंटी बन गए हैं। वो जिस गठबंधन में होते हैं उसकी जीत पक्की मानी जाती है। लेकिन ज़मीन पर लालू और नीतीश के समर्थकों में टकराव अब भी मौजूद है।
नीतीश और तेजस्वी/लालू के एक हो जाने से क्या जेडीयू के बाक़ी नेता और पार्टी सदस्य भी एक हो जायेंगे। बिहार की राजनीति के कई जानकार मानते हैं कि जेडीयू में टूट हो सकती है। पार्टी में अति पिछड़ों के प्रमुख नेता उपेन्द्र कुशवाहा पहले भी नीतीश से अलग होकर बीजेपी के साथ जा चुके हैं।
अति दलितों के नेता जीतन राम माँझी भी अलग पार्टी बनाकर बीजेपी का साथ दे चुके हैं। बीजेपी अब 2014 के लोकसभा चुनावों की तरह अति पिछड़ों और अति दलितों की छोटी पार्टियों को साथ लेकर नया मोर्चा बनाने की कोशिश करेगी। जेडीयू के साथ काफ़ी संख्या में सवर्ण भी हैं। क्या वे यादव नेतृत्व को स्वीकार करेंगे। ऐसे कई मुद्दे आगे की राजनीति को तय करेंगे।
विधानसभा के हालिया कुढ़नी उप चुनाव में बीजेपी ने नीतीश के महागठबंधन को पराजित कर दिया था। इसके आधार पर भी नतीजा निकाला जा रहा है कि ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं को एक साथ लाना आसान नहीं होगा।
नीतीश 71 साल के हो चुके हैं और क़रीब 15 साल मुख्यमंत्री रह चुके हैं। बिहार में उनका जादू कुछ हद तक अब भी बरक़रार है लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में वो कितना कारगर होंगे, कहा नहीं जा सकता है।