अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और उसके सहयोगियों की फ़ौजी मौजूदगी के ख़त्म हो जाने और उस पर तालिबान के कब्जे को लेकर पूरी दुनिया में और भारत में भी काफ़ी उत्तेजना है। लेकिन क्या उतनी ही संवेदना भी है? यह प्रश्न अफ़ग़ानिस्तान के आज के हालात पर अपनी राय देने के पहले ख़ुद से पूछना चाहिए। और बात करने का कौन सा तरीक़ा हम अपनाते हैं, यह भी महत्त्वपूर्ण है।
एक श्रेणी विशेषज्ञों की है। वे इस घटनाक्रम को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रख कर समझने की कोशिश कर रहे हैं। विश्लेषण हमेशा लाभप्रद होता है। उससे यह समझने में मदद मिलती है कि क्यों 20 साल तक दुनिया के सबसे ताक़तवर जनतंत्र की सरपरस्ती के बावजूद उसकी थूनी के हटते ही उसके द्वारा गढ़ा गया जनतंत्र एक हफ़्ता भी नहीं टिक सका। जनतंत्र के मॉडल में क्या दोष था, कैसे अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अफ़ग़ानिस्तान में एक भ्रष्ट तंत्र को जड़ जमाने में मदद की, इस पर ख़ुद अमेरिका में ही बहुत कुछ लिखा गया है। पूरे अफ़ग़ानिस्तान में और ख़ासकर काबुल में सरकारी अफ़ग़ानियों की एक आबादी फली फूली जिससे बाक़ी अफ़ग़ानी अलगाव महसूस करते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड अपने 'बहादुर अफ़ग़ानी मित्रों' की फ़िक्र कर रहे हैं, सारे अफ़ग़ानियों की नहीं, यह उनके बयानों से साफ़ है। 20 साल में इस तरह अफ़ग़ानी समाज को कई हिस्सों में बाँट दिया गया है, उसे एक करने की जगह।
तालिबान की आसान फ़तह की व्याख्या इस रूप में ही की जा सकती है कि अत्यंत विभाजित अफ़ग़ानिस्तान में एक बड़े हिस्से का समर्थन उसे हासिल है। अफ़ग़ानिस्तान की जातीय विविधता, तालिबान के इन जातीय समूहों से समीकरणों के विषय में भी जानकार लिख रहे हैं। यह बता रहे हैं कि तालिबान, जो अपने पहले अवतार में मुख्य रूप से सुन्नी पश्तून संकीर्ण इस्लामी समूह था, अब बदल गया है और अफ़ग़ानिस्तान के बाक़ी जातीय समूह भी उसमें शामिल हैं। यह सारी जानकारी उपयोगी और आवश्यक है लेकिन हम विश्लेषण के समय से आगे निकल आए हैं। अब सामने जो सवाल हैं, उनपर ही विचार किया जा सकता है।
अमेरिका और उसके मित्रों के कायरतापूर्ण स्वार्थवाद का पर्दाफ़ाश हो गया है। जनतंत्र और मानवाधिकार में उनकी दिलचस्पी का पाखंड भी खुल गया है। उन्होंने साफ़ कह दिया है कि हम फ़ौज के बल पर औरतों के अधिकार की हिफाजत नहीं कर सकते। न ही जनतंत्र की। वह तो अफ़ग़ानियों को खुद करनी होगी। हम इन महान देशों की आलोचना करते रह सकते हैं, लेकिन अब वह भी एक हद तक अकादमिक कार्रवाई ही होगी।
हक़ीक़त यह है कि अफ़ग़ानिस्तान पर अब तालिबान का नियंत्रण है। वे अभी पूरी तरह अपनी सरकार नहीं बना पाए हैं। यह साफ़ नहीं है कि क्या सरकार में तालिबान के अलावा दूसरे राजनीतिक समूह भी शामिल किए जाएँगे। अभी भी इसे लेकर बातचीत चल रही है। नतीजा जो हो, यह स्पष्ट है कि शासन में वर्चस्व तालिबान का होगा।
तालिबान के प्रति हमारा क्या रुख होना चाहिए? सिर्फ़ उनके प्रति नहीं, शेष अफ़ग़ानियों के प्रति? हमारा रुख, पड़ोसियों की तरह, अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सदस्य की तरह? या सिर्फ इंसान बिरादरी के सदस्य के तौर पर?
राजनयिकों की श्रेणी यथार्थवादी रवैया अपनाने की वकालत कर रही है। इस तथ्य से मुँह मोड़ने से लाभ नहीं कि अब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के शासक हैं। क्या सीमावर्ती पड़ोसी होने के नाते हमें यह सुविधा है कि हम उनसे कोई राजनयिक संबंध न रखें? यह समूह 20 वर्षों में अफ़ग़ानिस्तान में किए गए भारत के निवेश की बात भी कर रहा है। उसका क्या होगा? क्या हम तालिबान के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख रखकर चैन से रह सकते हैं? राजनयिक कह रहे हैं कि तालिबान ने बार-बार कहा है कि भारत से वे मित्रता चाहते हैं, उनकी दिलचस्पी कश्मीर में दखलंदाजी की नहीं। राजनयिकों के मुताबिक़ फिर क्यों भारत राजनयिक मूर्खता कर रहा है जबकि तालिबानी हुकूमत से राजनयिक सम्पर्क स्थापित करने को चीन, रूस और तुर्की जैसे देश तैयार बैठे हैं? क्या भारत तालिबान को पाकिस्तान के पाले में धकेल ही देना चाहता है?
राजनयिक दुनिया में जनतांत्रिक नैतिकता, मानवीयता जैसी भावुकता के लिए समय और धैर्य नहीं है। अपने देश के हित को, उसका जो भी अर्थ हो, केंद्र में रखते हुए तालिबान से बातचीत और रिश्ता बनाना ही चाहिए, यह उनमें से ज़्यादातर की समझ है। आख़िर सऊदी अरब से सबके रिश्ते हैं जिसकी सरकार न तो जनतंत्र और न मानवाधिकार, किसी भी दृष्टि से आदर्श नहीं कही जा सकती। फिर तालिबान शासित अफ़ग़ानिस्तान के साथ यह दोमुँहा रवैया क्यों?
विशेषज्ञों और राजनयिकों और सरकारों से अलग एक और बड़ा तबक़ा उनका है जो एक इंसानी निगाह से दुनिया को देखने की कोशिश करते हैं। एक दर्दमंद निगाह से। मुक्तिबोध के शब्द लेकर कहें तो यह ज्ञानात्मक संवेदना या संवेदनात्मक ज्ञान से लैस लोगों की बिरादरी है। वे तालिबान के शासन को अफ़ग़ानिस्तान के अल्पसंख्यकों, ग़ैर सुन्नी, ग़ैर पश्तून समूहों, औरतों की निगाह से ही देख सकते हैं। संवेदना का यह समुदाय कभी भी राजनयिकों के यथार्थवाद से खुद को सीमित नहीं कर सकता।
सोवियत संघ, अमेरिका, यूरोप की दखलंदाजी के कारण अफ़ग़ानिस्तान में जो विकृति आई वह ज़रूर और हमेशा पृष्ठभूमि में रहेगी लेकिन आज, अभी का सच तालिबान का शासन है।
दावा किया जा रहा है कि तालिबान बदल चुका है। वह पहले की तरह संकीर्ण और क्रूर नहीं है। उसने कहा भी है कि वह सबको काम करने देगा, औरतों को भी पढ़ने और काम करने देगा। उसने सबसे अपील की है कि वे देश के निर्माण में हाथ बँटाएँ। लेकिन...
तालिबान की इन घोषणाओं में/के बाद एक बड़ा लेकिन है। वह है राष्ट्रहित और इस्लामी दायरे की शर्त। वह दायरा क्या है, इसके संकेत मिल चुके हैं। हेरात में सहशिक्षा समाप्त कर दी गई है। औरतें पढ़ा सकती हैं लेकिन सिर्फ़ औरतों, लड़कियों को; पुरुष भी सिर्फ़ लड़कों, पुरुषों को पढ़ा सकते हैं। टी वी चैनलों से समाचार वाचिकाओं को हटा दिया गया है। महिला पत्रकारों को अभी घर से काम करने को कहा गया है। दीवारों पर औरतों के चित्रों को पोता जा रहा है, मिटाया जा रहा है। कुछ लोग इसे पाश्चात्य उपभोक्तावाद का विरोध कहकर जायज़ ठहरा रहे हैं। उन्हें मालूम है कि वे धोखाधड़ी कर रहे हैं।
तालिबान के ख़िलाफ़ महिलाओं का प्रदर्शन।फ़ोटो साभार: ट्विटर/मसीह अलीनेजाद/वीडियो ग्रैब
कुछ कह रहे हैं कि इस्लामी मूल्यों के दायरे से क्यों ऐतराज़ होना चाहिए? क्या इस्लाम ने औरतों को और बाक़ी सबको हक़ नहीं दिए हैं? इस तर्क में भी धोखा और झूठ है। असल बात यह है कि इस्लामी मूल्यों के दायरे में रखने का ज़िम्मा और अधिकार तालिबान अपने पास रखना चाहते हैं। यानी वे अफ़ग़ानी समाज को अपना मातहत बनाना चाहते हैं और उसमें इस्लाम एक औजार भर है। क्या वे इस्लाम की दूसरी व्याख्याओं को भी जगह देंगे?
तालिबान के पहले बयानों में जनतंत्र को ठुकरा दिया गया है। अभी तक वे जो इशारे कर रहे हैं उनसे इसकी आशंका और प्रबल होती जा रही है कि तालिबान की हुकूमत अफ़ग़ानिस्तान के अल्पसंख्यकों और ग़ैर सुन्नी पश्तूनों के अलावा वहाँ की औरतों के ख़िलाफ़ हिंसा की हुकूमत होगी।
हम जो न तो राज्य हैं, न विशेषज्ञ, हम तालिबान को जनतांत्रिक, मानवाधिकार के उसूलों की कसौटी पर ही परखेंगे। उसमें सबसे ऊपर है व्यक्ति की हर तरह की आज़ादी। दूसरे,अल्पसंख्यकों के समान अधिकार की गारंटी।
भारतीय राज्य क्या करेगा, हमारे राजनयिक क्या करेंगे, यह वे तय करें। हम तो एक अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्य की तरह तालिबान को मानवाधिकार के मूल्यों के आधार पर पाबंद करते रहेंगे। यह कितना भी अयथार्थवादी क्यों न हो!