'व्यक्ति जिस धर्म को चाहे, उसे स्वीकार करे' कितना तर्कसंगत?
सर्वोच्च न्यायालय की यह बात तो बिल्कुल ठीक है कि भारत का संविधान नागरिकों को अपने ‘धर्म-प्रचार’ की पूरी छूट देता है और हर व्यक्ति को पूरा अधिकार है कि वह जिसे चाहे, उस धर्म को स्वीकार करे। हर व्यक्ति अपने जीवन का ख़ुद मालिक है। उसका धर्म क्या हो और उसका जीवन-साथी कौन हो, यह स्वयं उसे ही तय करना है। यह फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति रोहिंगटन नारीमन ने अश्विन उपाध्याय की एक याचिका को खारिज कर दिया। उस याचिका में उपाध्याय ने यह मांग की थी कि भारत में जो धर्म-परिवर्तन लालच, भय, ठगी, तिकड़म, पाखंड आदि के ज़रिए किए जाते हैं, उन पर रोक लगनी चाहिए।
धर्म-परिवर्तन पर रोक के क़ानून देश के आठ राज्यों ने बना रखे हैं लेकिन 1995 के सर्वोच्च न्यायालय के एक फ़ैसले का हवाला देते हुए इस याचिका में मांग की गई थी कि शीघ्र ही एक केंद्रीय क़ानून बनना चाहिए। न्यायमूर्ति नारीमन ने न सिर्फ़ इस याचिका को रद्द कर दिया बल्कि यह कहा है कि याचिकाकर्ता इस याचिका को वापस ले ले, वरना अदालत उस पर जुर्माना ठोक देगी। अश्विन उपाध्याय बिदक गए और उन्होंने अपनी याचिका वापस ले ली। अब वे गृह मंत्रालय, विधि आयोग, विधि मंत्रालय और सांसदों से अनुरोध करेंगे कि वे वैसा क़ानून बनाएँ।
मेरी समझ में नहीं आता कि अश्विन उपाध्याय जज की धमकी से क्यों डर गए? वे जुर्माना लगाते तो उन्हें जुर्माना भर देना था और अपने मुद्दे को दुगुने उत्साह से उठाना था। अगर मैं उनकी जगह होता तो एक कौड़ी भी जुर्माना नहीं भरता और जज से कहता कि माननीय जज महोदय आप यदि मुझे जेल भेजना चाहें तो भेज दीजिए। मैं सत्य के मार्ग से नहीं हटूँगा। मैं जेल में रहकर अपनी याचिका पर बहस करूँगा और अदालत को मजबूर कर दूँगा कि देशहित में वह वैसा क़ानून बनाने का समर्थन करे।
जस्टिस नारीमन से कोई पूछे कि दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने समझ-बूझकर, पढ़-लिखकर और स्वेच्छा से किसी धर्म को स्वीकार किया है? एक करोड़ में से एक आदमी भी ऐसा नहीं मिलेगा।
सभी आँख मींचकर अपने माँ-बाप का धर्म ज्यों का त्यों निगल लेते हैं। जो उसे चबाते हैं, वे बाग़ी या नास्तिक कहलाते हैं। जो लोग भी अपना धर्म-परिवर्तन करते हैं, क्या वे वेद या बाइबिल या जिन्दावस्ता या कुरान या ग्रंथसाहब पढ़कर करते हैं ? ऐसे लोग भी मैंने देखे ज़रूर हैं लेकिन वे अपवाद होते हैं। ज़्यादातर वे ही लोग अपना पंथ, संप्रदाय, धर्म या पूज्य-पुरुष परिवर्तन करते हैं, जो या तो भेड़चाल, अंधविश्वास या लालच या भय या ढोंग के शिकार होते हैं।
मैं अंतरधार्मिक, अंतरजातीय, अंतरप्रांतीय विवाहों का प्रशंसक हूँ लेकिन उनके बहाने धर्म-परिवर्तन की कुचाल घोर अनैतिक और निंदनीय है। इसीलिए अदालत के मूल भाव से मैं सहमत हूँ लेकिन उक्त याचिका पर उसका फ़ैसला मुझे बिल्कुल तर्कसंगत नहीं लगता। इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की किसी नई और बड़ी पीठ को विचार करना चाहिए।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)