वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए इस बजट में क्या उपाय करेंगी, यह जल्द ही साफ़ हो जाएगा। यह उनका दूसरा बजट है, पहले बजट में भले ही 5 ट्रिलियन इकॉनमी की बात की गई हो, पर अर्थव्यवस्था बद से बदतर हुई, उसमें कोई सुधार नहीं हुआ।
अर्थव्यवस्था के जानकारों का मानना है कि वित्त मंत्री बजट में ऐसे कुछ उपाय कर सकती हैं, जिससे माँग व खपत बढ़े, निवेश हो, रोज़गार के मौके बनें और निर्यात को बढ़ावा मिले। ऐसा कर वह लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को थोड़ा सहारा दे पाएंगी।
वे क्या 5 उपाय हो सकते हैं, जिनके बल पर निर्मला सीतारमण स्थिति सुधारने की कोशिश कर सकती हैं, डालते हैं एक नज़र।
खर्च में कटौती नहीं करना
हालांकि बढ़ते वित्तीय घाटे की वजह से सरकार का हाथ तंग है और वह अधिक खर्च नहीं कर सकती है, पर खर्च में कटौती करने से अर्थव्यवस्था और कमज़ोर ही होगी। चालू वित्तीय वर्ष की अंतिम तिमाही में सरकार ने खर्च में कटौती कर इसका संकेत भी दिया है। पर समझा जाता है कि सरकार खर्च में कटौती नहीं करेगी ताकि वित्तीय लेनदेन बढ़े।माँग बढ़ाना
चालू वित्तीय वर्ष में माँग में लगातार गिरावट होती दिखी है और ग्रामीण इलाक़ों में इसका ख़ास असर पड़ा है। एक सर्वे में यह पाया गया था कि ग्रामीण इलाक़ों में माँग 1971 के बाद से न्यूनतम स्तर पर पँहुच गई। बढ़ते वित्तीय घाटे के बीच सरकार के लिए यह मुश्किल होगा कि वह माँग बढ़ाए, क्योंकि इसके लिए उसे खर्च बढ़ाना होगा।
सरकार कुछ सेक्टर को चुन कर उनमें खर्च बढ़ा कर माँग बढ़ाने की कोशिश कर सकती है। वित्त मंत्री को वे सेक्टर चुनने होंगे, जिनमें माँग बढ़ने से चौतरफा असर होता है।
निवेश बढ़ाना
घरेलू और विदेशी निवेश में लगातार कमी अर्थव्यवस्था के कमज़ोर होने की बड़ी वजहों में से एक है। सरकार को यह देखना होगा कि वह किसी तरह इन दोनों तरह के निवेश बढ़ाए, हालांकि यह चुनौतीपूर्ण काम है। पर सरकार ने बीते दिनों इसके लिए कुछ कदम उठाए हैं। वित्त मंत्री ने नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन प्रोजेक्ट के तहत इन 5 सालों में 102 खरब रुपये के निवेश की योजना का एलान कर रखा है।
हर साल लगभग 20 खरब रुपए का निवेश करने की योजना है। इसमें केंद्र सरकार 39 प्रतिशत, राज्य सरकारें 39 प्रतिशत और शेष 22 प्रतिशत निजी क्षेत्र को निवेश करना है।
निजी क्षेत्र को निवेश के लिए उत्साहित करना निश्चित रूप से चुनौती भरा काम होगा, ख़ास कर बैंकों को ज़्यादा भरोसे में लेना होगा, उन्हें अधिक पैसे देने होंगे। बजट में इसके लिए क्या प्रावधान होते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा।
आर्थिक असमानता दूर करना
ऑक्सफ़ैम ने कुछ दिन पहले ही जारी रिपोर्ट में भारत में ग़रीब-अमीर के बीच बढ़ती खाई पर चिंता जताते हुए कहा था कि 1 प्रतिशत लोगों के पास 42 प्रतिशत संपत्ति और संसाधन हैं। रोज़गार के मौके कम हुए हैं, लोगों को पहले से मिल रहे पैसे में कमी आई है और उनके पास पहले से कम पैसे हैं। इन वजहों से स्थिति बदतर होती जा रही है। यह चिंता की बात इसलिए है कि अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए माँग और खर्च निकलना ज़रूरी है और बढ़ती असमानता के बीच ऐसा नहीं हो सकता।
सरकार को यह देखना होगा कि वह रोज़गार के मौके बनाए, सामाजिक सुरक्षा के उपायों पर ध्यान दे। सरकार के सामने यह चुनौती होगी कि वह इस तरह की आय कर संरचना बनाए, जिसमें पैसे वालों से और अधिक पैसे ले सके, ग़रीब वर्ग को आसानी से कर्ज मिल सके।
इसके तहत सरकार संपदा कर पर विचार कर सकती है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने इसका सुझाव दिया था।
राज्य सरकारें अधिक कर्ज़ लें
लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के बीच कई राज्य सरकारों ने अपने खर्च में कटौती शुरू कर दी है। इसकी वजह बढ़ता वित्तीय घाटा और उनकी कम होती आमदनी है। केंद्र सरकार को इन राज्यों को इसके लिए उत्साहित करना होगा कि वे अधिक कर्ज़ लें और खर्च बढ़ाएँ। इससे ही माँग निकलेगी और यह लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए ज़रूरी है। कर्ज़ लेकर ही सही, सरकारी खर्च बढ़ने से अर्थव्यवस्था को सहारा मिल सकेगा।पर्यवेक्षकों का कहना है कि सबसे बड़ी दिक्क़त यह है कि अर्थव्यवस्था को सुधारना इस सरकार की प्राथमिकता नहीं है। वह अपने राजनीतिक और सामाजिक अजेंडे को लागू करने में इस तरह व्यस्त है कि अर्थव्यवस्था पर ध्यान ही नहीं दे पाती है। जुमलेबाजी से अर्थव्यवस्था नहीं सुधरती, इसके लिए ठोस प्रयास करने होते हैं और साहसिक कदम उठाने होते हैं। सरकार ने इस क्षेत्र में बहुत काम किया हो, यह दिखता नहीं है।
ऐसे में लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को सुधारना मुश्किल भरा काम है। निर्मला सीतारमण की सबसे बड़ी चुनौती यह है।