बिहार: क्या रहेगी छोटे दलों की भूमिका, किसे-कितना नफ़ा-नुक़सान पहुंचाएंगे?
2015 में बिहार का विधानसभा चुनाव लगभग सीधे-सीधे लड़ा गया था। एक तरफ आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस का महागठबंधन था तो दूसरी तरफ बीजेपी-एलजेपी-आरएलएसपी-हम का एनडीए। इस बार महागठबंधन से जेडीयू और एनडीए से एलजेपी के बाहर होने के साथ-साथ उपेन्द्र कुशवाहा और असदउद्दीन ओवैसी का एक गठबंधन- ग्रेंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट भी है।
2019 के लोकसभा चुनाव के समय महागठबंधन में शामिल ‘हम’ अभी एनडीए में है, जेडीयू दो साल पहले ही महागठबंधन से अलग हो चुका था और आरएलएसपी दोनों गठबंधनों से बाहर एक अलग मोर्चे में है। इसके अलावा जन अधिकार पार्टी (जेएपी) के अध्यक्ष पप्पू यादव के संयोजकत्व वाला पीपुल्स डेमोक्रेटिक अलायंस (पीडीए) भी मैदान में है।
मोटे तौर पर ओवैसी की पार्टी के बारे में यह समझा जाता है कि इससे मुसलमानों के वोटों में बिखराव आएगा जिसका नुक़सान आरजेडी-कांग्रेस को होगा जबकि कुशवाहा के उम्मीदवार एनडीए के उम्मीदवारों के वोट काटेंगे।
दूसरी तरफ चिराग पासवान की एलजेपी के बारे में स्पष्ट राय है कि यह एनडीए के उम्मीदवारों का नुक़सान करेगी क्योंकि अब तक पासवान जाति के वोट को एनडीए का माना जा रहा था। पप्पू यादव के पीडीए के बारे में आम समझ यही है कि इसके वोट वास्तव में आरजेडी के उम्मीदवारों के वोट कम करेंगे।
कुशवाहा हैं सीएम उम्मीदवार
ग्रेंड सेक्युलर डेमोक्रेटिक फ्रंट में छह दल शामिल हैं- उपेन्द्र कुशवाहा की आरएलएसपी, असदउद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, देवेन्द्र प्रसाद यादव का समाजवादी जनता दल (डेमोक्रेटिक) के अलावा बीएसपी, भारतीय समाज पार्टी और जनतांत्रिक पार्टी। इस फ्रंट के संयोजक देवेन्द्र यादव हैं जबकि इसके मुख्यमंत्री के उम्मीदवार उपेन्द्र कुशवाहा बनाये गये हैं।
इसलिए इस बार चुनावी आकलन में जोड़-घटाव के साथ-साथ कौन-किसे-कहां-कैसे काट रहा है, इस पर भी ध्यान रखना होगा।
देवेन्द्र यादव का कितना असर
देवेन्द्र यादव झंझारपुर से कई बार सांसद रह चुके हैं और उन्होंने केन्द्र में मंत्री पद भी संभाला है। उनका कितना प्रभाव होगा इस सवाल के जवाब में मधुबनी के वरिष्ठ पत्रकार दीपक कुमार कहते हैं कि देवेन्द्र यादव के पास अब इतने वोट नहीं हैं कि किसी को बड़ा नफ़ा-नुक़सान पहुंचा सकें लेकिन उनके साथ खड़े ओवैसी के उम्मीदवारों को जो वोट मिलेंगे उसका नुक़सान आरजेडी और कांग्रेस के उम्मीदवारों को होगा।
दूसरी ओर, अगर इस फ्रंट का कोई उम्मीदवार कुशवाहा जाति का होगा तो इससे एनडीए को नुक़सान होगा। लेकिन कुल मिलाकर इसका नफ़ा एनडीए में शामिल वीआईपी के उम्मीदवारों को हो सकता है क्योंकि इस इलाके में सहनी वोटों की तादाद अच्छी है।
ओवैसी की पार्टी का सबसे अधिक प्रभाव सीमांचल में माना जा रहा है। इस इलाके के किशनगंज में मुसलमानों के वोट अच्छी संख्या में हैं। वहां एमआईएम के उम्मीदवार अगर नहीं जीते तो इसका सीधा नुक़सान महागठबंधन के उम्मीदवारों को हो सकता है।
वरिष्ठ टीकाकार अब्दुल कादिर कहते हैं कि बिहार के स्तर पर मुसलमानों का एक वर्ग ओवैसी के उम्मीदवारों को समर्थन देगा। वे अधिक संख्या में तो नहीं हैं लेकिन इससे संतुलन बन-बिगड़ सकता है। इस फ्रंट को गठबंधन का नाम देना सही नहीं लगता क्योंकि ओवैसी और उपेन्द्र अपनी पार्टी का वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर करने में सफल नहीं दिखते।
कादिर कहते हैं कि उनके कुछ उम्मीदवार जीत सकते हैं लेकिन इसका कारण रणनीति नहीं बल्कि संयोग होगा। उनके अनुसार इस गठबंधन के जीतने वाले उम्मीदवारों की संख्या शायद ही दस तक पहुंचे।
राजनीतिक टीकाकार मानते हैं कि बीएसपी का कैडर वैसे तो बिहार में नगण्य है लेकिन उत्तर प्रदेश से सटी बिहार की सीमा वाली सीटों पर उसके पांच सौ-हजार वोट उस स्थिति में निर्णायक हो सकते हैं जब फैसला भी इतने ही अंतर से हो। बीएसपी के ऐसे समर्थक उपेन्द्र कुशवाहा के गठबंधन को कुछ सीटों पर कामयाबी दिला सकते हैं।
पप्पू यादव को लगाना होगा जोर
पप्पू यादव की ‘जाप’ के साथ चंद्रशेखर रावण की आज समाज पार्टी और एसडीपीआई है जिनका प्रतीकात्मक महत्व है लेकिन इससे आगे पप्पू को पीडीए के लिए सबकुछ खुद ही करना होगा। इसके उम्मीदवार अपने दम पर जीत जाएं तो अलग बात है वर्ना अधिकतर जगहों पर वे जो वोट लाएंगे माना यह जा रहा है कि वे आरजेडी और कांग्रेस को मिलने वाले वोट होंगे।
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं कि पप्पू यादव की दो तरह की छवि है। एक तो उन्हें हर ज़रूरतमंद के मददगार के रूप में देखा जाता है। दूसरा, उनकी पार्टी के सदस्य आन्दोलन के नाम पर उद्दंडता के लिए कुख्यात हैं। ऐसे में पप्पू के व्यक्तिगत अच्छे काम को वोट में तब्दील करना और जो एनडीए के वोटर हैं, उन्हें अपने पक्ष में करना मुश्किल होगा। अलबत्ता, उनके व्यक्तिगत प्रयास से जो वोट पीडीए के उम्मीदवारों को मिलेंगे वे शायद आरजेडी के हिस्से के हों।
आरजेडी को होगा नुक़सान
पप्पू यादव की पत्नी रंजीत रंजन कांग्रेस की सदस्य हैं और कांग्रस की लोकसभा सांसद रह चुकी हैं। इसलिए पप्पू यादव कांग्रेस पर कम हमलावर होते हैं लेकिन लालू प्रसाद की पार्टी आरजेडी के ख़िलाफ़ वे जमकर बोलते हैं। इसलिए कोसी क्षेत्र और खासकर मधेपुरा-सुपौल में पीडीए से नुक़सान आरजेडी को ही होने का आकलन है।
महागठबंधन या यूपीए को इन छोटे गठबंधनों से होने वाले संभावित नुक़सान की भरपाई की उम्मीद अपने कम्युनिस्ट सहयोगियों से है। इस बार तीन कम्युनिस्ट दल- सीपीआई एमएल, सीपीआई और सीपीएम कुल 29 सीटों पर आरजेडी और कांग्रेस के वोटों की उम्मीदों के साथ चुनाव मैदान में हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता महेन्द्र यादव कहते हैं कि महागठबंधन में इनकी उपस्थिति संघर्ष और सड़क की राजनीति की भरपाई करेगी। उनका मानना है कि खराब से खराब हालत में भी कम्युनिस्ट दलों के पास अपना कैडर वोट होगा और वे इसे आरजेडी-कांग्रेस के उम्मीदवारों को शिफ्ट करने में भी कामयाब होंगे।
महेन्द्र यादव की राय है कि ओवैसी और पप्पू यादव की पार्टियों से महागठबंधन को वोटों का जो नुकसान होगा, उसे कम्युनिस्ट दल काफी हद तक कम कर सकते हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव पर देखिए, वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष और चुनाव विश्लेषक संजय कुमार की बातचीत।
एनडीए में शामिल ‘हम’ के नेता जीतन राम मांझी का नाम बस इसलिए है कि वे नीतीश कुमार की नैतिक मजबूरी में मुख्यमंत्री बन गये। 2015 में भी वह जेडीयू रहित एनडीए में शामिल थे, मगर बीजेपी की तमाम कोशिश के बावजूद ‘हम’ एक सीट जीत सकी थी और इस सीट पर मांझी ही जीते थे और एक सीट पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
मांझी दिला पाएंगे वोट
इस बार समीकरण बदला हुआ है लेकिन मांझी वोट के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहना मुश्किल है कि यह जीतन राम मांझी के कहने के बावजूद किसके खाते में जाएगा। उन्हें व्यक्तिगत तौर पर इसका लाभ मिल जाएगा लेकिन वोट ट्रांसफर की उनकी क्षमता शायद नहीं है। मांझी 2019 में गया से सांसद का चुनाव महागठबंधन के उम्मीदवार के तौर पर लड़े थे मगर उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
जेडीयू के वोट काटेगी एलजेपी
अब रह जाती है बात एनडीए से हाल ही में अलग हुई एलजेपी की। इसमें कोई शक नहीं कि संस्थापक राम विलास पासवान की मौत के कारण सहानुभूति के वोट एलजेपी को मिलेंगे। पिछले कई सालों से एलजेपी का आधार वोट- दुसाध या पासवान- एनडीए को मिलता आया है लेकिन इस बार चिराग पासवान के रवैये से एनडीए के एक घटक दल- जेडीयू को इस वोट का नुकसान उठाना पड़ेगा, ऐसा लगभग सभी राजनीतिक टीकाकारों का मानना है। इसका सीधा लाभ महागठबंधन को मिलने की संभावना जतायी जा रही है।