नतीजे से महज दो दिन पहले दिल्ली चुनाव पर लिखने के लिए ‘एक्जिट पोल’ की भविष्यवाणियाँ या नेताओं के दावे-प्रतिदावे ज़्यादा रुचिकर विषय हो सकते हैं। पर दिल्ली के चुनाव में जीत-हार की अटकलें संभवतः अब उतनी महत्वपूर्ण नहीं रह गई हैं। मुझे इन अटकलों से ज़्यादा महत्वपूर्ण लग रहे हैं, प्रचार-अभियान के दरम्यान उठे तीन बड़े सवाल।
क्या हैं इस चुनाव के नतीजे?
सीएए-एनआरसी समर्थन और विरोध की राजनीति पर कोई टिप्पणी हो सकते हैं या उसका कोई असर हो सकता है? तमाम ‘एग़्जिट पोल’ के अनुमान सार्वजनिक दायरे में हैं। ये अनुमान सही हुए तो भी केंद्र की मोदी सरकार अपनी ही धुन चलेगी। सीएए-एनआरसी पर न्यायालय के अलावा सरकार का विधायी-रास्ता कोई राजनीतिक शक्ति नहीं रोक सकेगी।पर राजनीतिक विपक्ष और प्रतिरोध की ग़ैर-राजनीतिक-ग़ैर दलीय शक्तियों को निश्चय ही बीजेपी की हार से बड़ी ताक़त मिलेगी। देशव्यापी स्तर पर सीएए-एनआरसी के राजनीतिक-विरोध के दायरे और दलीलों का आधार मजबूत होगा। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि मोदी और शाह सहित पूरी पार्टी ने इस चुनाव में शाहीन बाग के बहाने सीएए-एनआरसी विरोध की राजनीति को देश-विरोधी मुद्दे के तौर पर पेश करना चाहा था।
अगर राजधानी के लोग अरविंद केजरीवाल सरकार के अपेक्षाकृत बेहतर कामकाज के चलते बीजेपी को खारिज करते हैं तो भी विपक्ष और प्रतिरोध की अन्य शक्तियों का सीएए-एनआरसी विरोध धारणात्मक स्तर पर मजबूत होकर उभरेगा।
चुनाव आयोग की संरचना, कार्यप्रणाली में बदलाव क्यों जरूरी हैं?
सत्ताधारी दल के खास ढंग के चुनाव प्रचार अभियान से निर्वाचन आयोग के समक्ष उभरे बड़े संकट से जुड़ा है। सबसे पहले जानते हैं, दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य की 70 सीटों वाली विधानसभा का यह चुनाव बीजेपी जैसी बड़ी पार्टी, आरएसएस जैसे शक्तिशाली संगठन, प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह जैसे सियासत के ‘लौह-पुरुषों’ के लिए इतना महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण क्यों हो गया? इन सबने चुनाव जीतने के लिए न सिर्फ अपनी पूरी ताक़त झोंकी, अपितु ताक़त का भरपूर दुरुपयोग भी किया।अब चुनाव ख़त्म हो चुका है। नतीजे 11फरवरी को आयेंगे। लेकिन इस चुनाव के दौरान जिस तरह का प्रचार-अभियान चलाया गया, देश की सत्ताधारी पार्टी ने राजधानी-नगर की विधानसभा में बहुमत हासिल करने के लिए जिस तरह की शर्मनाक हरकतें कीं, उस समूची सियासी-धींगामुश्ती को सामान्य आचरण नहीं कहा जा सकता।
बड़े नेताओं का उन्मादी अचारण
चुनाव के दरम्यान सबसे आपत्तिजनक आचरण देश की सत्ताधारी पार्टी के कुछ प्रमुख नेताओं का रहा। ये नेता छोटे-मझोले कार्यकर्ता होते तो कोई कह सकता था कि नासमझ लोगों ने उन्मादी आचरण करके राजधानी की चुनावी-राजनीति का माहौल ख़राब किया। पर उन्मादी आचरण करने वालों में यहाँ तो केंद्रीय मंत्री, सांसद और बड़े-बड़े नेता ही शामिल रहे।कोई ‘गद्दारों को गोली मारने’ का नारा लगवा रहा था, कोई सरकार बनते ही ‘शाहीन बाग को उठवाने’ की घोषणा कर रहा था तो कोई अपने ‘इलाके की मसजिदों को गिरवाने’ का संकल्प दोहरा रहा था।
इनसे भी बड़े सत्ताधारी पार्टी के कुछ महाबली नेताओं ने तो सीएएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलनकारियों को देश-विरोधी, आतंकी और ‘पाकिस्तान-परस्त’ या ‘पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चलने वाला’ कह डाला।
मीडिया की भूमिका
मीडिया के बड़े हिस्से ने ऐसे भयानक उन्मादी बयानों को टीवी-बहसों का विस्तार समझकर ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया। दूसरी तरफ, चुनाव आयोग द्वारा सांप्रदायिक रूप से उन्मादी बयान देने वाले कुछ मझोले स्तर के नेताओं को प्रचार-अभियान से कुछ घंटों के लिए रोकने का आदेश जारी हुआ।मीडिया, ख़ासकर टीवी चैनलों ने इस आदेश को ‘बड़ी कार्रवाई’ के रूप में पेश करके आयोग की छवि बचाने में बड़ी मदद की।
सच यह है कि चुनाव आचार-संहिता, लोक प्रतिनिधित्व कानून-1951 के नये संशोधनों और अन्य सम्बद्ध क़ानूनों की रोशनी में सिर्फ दो या तीन ही नहीं, सत्ताधारी पार्टी के तमाम शीर्ष नेताओं के ख़िलाफ इससे अधिक कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए थी, जो सीधे-सीधे धर्म, संप्रदाय और किसी पड़ोसी मुल्क के कथित भारतीय-समर्थकों को हराने का हवाला देकर वोट माँग रहे थे। बीते दो सप्ताह के दौरान न जाने कितने सांप्रदायिक और पोलराइजिंग जुमले उछाले गए।
ठाकरे को भी नहीं बख़्शा था चुनाव आयोग ने
साल 1999 में क़ानूनी-प्रक्रिया के बाद भारत के निर्वाचन आयोग ने ‘मुंबई के शेर’ कहे जाने वाले महाराष्ट्र के ताक़तवर नेता बाला साहेब ठाकरे के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की थी।ठाकरे ने मुंबई के विले पार्ले क्षेत्र के उप चुनाव में माहौल को ‘हिन्दू-मुसलिम’ करने की कोशिश की थी। उन्होंने अपने एक भाषण में मुसलमानों को साँप कहा था। इसी तरह की कुछ और अनर्गल बातें कहकर उन्होंने अपने दल के एक ‘हिन्दू उम्मीदवार’ को चुनने की जनता से अपील की थी।
ठाकरे के छह वर्ष के लिए न सिर्फ चुनाव लड़ने या चुनाव प्रचार करने पर पाबंदी लगाई गई, बल्कि उन्हें मतदाता होने के अधिकार से ही वंचित कर दिया गया था।
गंभीर आरोप, हल्की सज़ा
पर आज समाज में क़ानून-पालन के मिजाज और चुनाव आयोग की हैसियत की स्थिति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि बाला साहेब ठाकरे पर उस वक्त लगे इल्ज़ाम दिल्ली के चुनाव में बीजेपी के कतिपय प्रमुख नेताओं की अशिष्ट, उन्मादी और सांप्रदायिक हरकतों से काफी हल्के थे।एक बीजेपी सांसद ने तो यहाँ तक कहा कि उनकी पार्टी की सरकार बनी तो वह सरकारी ज़मीन पर बनी अपने इलाक़े की मसजिदों को ढहवा देंगे। एक बड़े नेता ने अपने प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी दल के शीर्ष नेता को सीधे पाकिस्तान से जोड़ दिया।
सांसदों के अलावा मंत्रियों और शीर्ष नेताओं ने इस छोटे से चुनाव में क्या-क्या नहीं कहा? पर ठाकरे के मुक़ाबले उन्हें ‘सजा’ क्या मिली? कुछ घंटों के लिए चुनाव-प्रचार से वंचित भर किया गया। वह भी महज दो-तीन को।
सज़ा के बाद फिर वही अपराध
कुछ शीर्ष नेताओं को तो चेतावनी का नोटिस तक नहीं गया। हल्की और प्रतीकात्मक ‘सजा’ के बाद भाजपा के बेहद वाचाल सांसद प्रवेश वर्मा ने दोबारा सांप्रदायिक-विद्वेष से प्रेरित बयान दिए। आयोग ने उन्हें फिर कुछ समय के लिए प्रचार से रोका। यही सिलसिला पूरे चुनाव के दौरान चलता रहा।बीते कई वर्षों से महसूस किया जा रहा है कि भारत का निर्वाचन आयोग अपनी निष्पक्षता और वस्तुगतता तेजी से खोता जा रहा है। आयोग जैसी संवैधानिक संस्था के इस कदर क्रमशः निष्प्रभावी और शक्तिहीन होने से भारतीय राष्ट्र-राज्य के समक्ष गंभीर संकट पैदा हो गया है। ऐसे में निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया में सरकार के लगभग संपूर्ण वर्चस्व पर पुनर्विचार की ज़रूरत है।
विपक्ष भी यही चाहता है?
यह कम विस्मयकारी नहीं कि बड़े विपक्षी दल भी इस बारे में किसी तरह की चर्चा, सुझाव या मांग की पहल नहीं कर रहे हैं। क्या इसलिए कि वे स्वयं ऐसा ही आयोग चाहते हैं ताकि उनके शासन में आने पर यह संस्था उनके लिए भी अनुकूल रहे! वे क्यों नहीं सोचते कि ऐसी महान संस्था की कमजोरियाँ देश के लिए कितनी बड़ी मुश्किलें खड़ी करती जा रही है। चुनाव आयोग के मौजूदा आचरण से नाराज़ आम लोग भी आज टी. एन. शेषण को क्यों याद करते हैं।
आज जब सत्ता-संरचना पहले के मुक़ाबले ज़्यादा ताक़तवर, निरंकुश और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति ग़ैर-जवाबदेह बनकर उभरी है, निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया में बदलाव बेहद ज़रूरी हो गये हैं।
यह कम चिंताजनक नहीं कि इस संदर्भ में विपक्ष के प्रमुख दल खामोश हैं। इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर पिछले दिनों बड़े सवाल उठे पर सुप्रीम कोर्ट में वह मामला अब भी लंबित है। अचरज की बात कोर्ट ने विवादास्पद बॉन्ड पर रोक लगाने से भी इनकार कर दिया। ऐसे में एक बड़ा सवाल है, भारत में ज़रूरी चुनाव-सुधार के लिए पहल कौन करेगा?
चुनाव प्रक्रिया के दौरान सरकारी ऐलान
राजनीतिक नैतिकता और मर्यादा का सवाल इस चुनाव से जुड़ा यह तीसरा प्रमुख सवाल है। यह बात सही है कि संसद के सत्र के दौरान सरकार कोई भी क़ानून बनाने, संकल्प पेश करने या किसी ऐलान के लिए स्वतंत्र है, बशर्तें कि वे ऐलान स्थानीय चुनाव को सीधे प्रभावित नहीं करते हों। पर सत्ताधारी दल ने इस दरम्यान संसद के अंदर और बाहर ताबड़तोड़ कई ऐलान किए। आयोग ने उस पर कोई आपत्ति नहीं जताई क्योंकि वे दिल्ली चुनाव को सीधे प्रभावित करने वाले नहीं माने गए।क़ानूनी प्रावधान और विधायी दलील की रोशनी में देखें तो यह बात एक हद तक सही भी है। पर नैतिकता और राजनीतिक मर्यादा की रोशनी में देखें तो अयोध्या में मंदिर के लिए ट्रस्ट के गठन का सरकारी ऐलान बहुत सुसंगत नहीं जान पड़ता।
क्या सरकार ट्रस्ट के गठन का एलान दिल्ली चुनाव की अधिसूचना से पहले या मतदान के बाद नहीं कर सकती थी? उसके पास पर्याप्त वक्त था पर उसने एलान के लिए मतदान से ऐन पहले की तारीख़ तय की।
क्यों नाराज़ हैं उमा भारती-कल्याण सिंह?
यह अलग बात है कि ट्रस्ट के गठन का उसका ऐलान चुनावी स्तर पर उसके लिए शायद ही फ़ायदेमंद साबित हो। अयोध्या में 'रामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट' के अब तक नामित सदस्यों में एक दलित को छोड़कर सभी एक ही वर्ण की पृष्ठभूमि वाले लोगों को रखने से ग़ैर-ब्राह्मण समाज के कुछ मुखर लोग ही नहीं, बीजेपी में उमा भारती और कल्याण सिंह जैसे कई नेता भी नाराज़ बताए गए हैं।आम लोगों की नाराज़गी का मतलब तो निकलता है। पर इन बीजेपी नेताओं की नाराज़गी मुझे बेमतलब और दिखाऊ लगती है। जिस वक्त ये दोनों नेता शिलापूजन से लेकर मसजिद-विध्वंस अभियान को अपना 'अमूल्य योगदान' कर रहे थे, क्या उन्हें नहीं मालूम था कि हिन्दी-भाषी क्षेत्र में हिन्दू मंदिरों के पूजा-हवन जैसे कर्मकांड हों या मंदिर का प्रबंधन हो, उसमें सिर्फ एक ही समुदाय का वर्चस्व होता है?
हिन्दू नहीं, 'हिन्दुत्वा'
सरकार ने इस ट्रस्ट में 'मंदिर अभियान' के दौरान पहला ईंट-पत्थर डालने वाले एक ‘हिंदुत्ववादी-दलित’ को रखकर नुमाइशी ही सही कुछ अलग दिखाने की कोशिश की। समझ में नहीं आता, कल्याण और उमा आज क्यों नाराज़ हैं? इतने बरस मंत्री रहे, कल्याण जी तो राज्यपाल भी रहे, उनके परिजन भी सत्ता राजनीति में अच्छी तरह स्थापित हैं।फिर ये ‘ओबीसी-ओबीसी’ की क्या रट लगा रखी है? इतने बरसों से ये दोनों नेता आरएसएस की छत्रछाया वाली राजनीति में हैं। क्या यह पूछने की कभी हिम्मत हुई कि भाजपा की मातृसंस्था-आरएसएस की शीर्ष कमेटी में कोई ओबीसी, दलित या आदिवासी क्यों नहीं होता? फिर ये काहे को हिन्दू-हिन्दू करते हो भाई? ये हिन्दू नहीं, 'हिंदुत्वा' है! हिन्दू के नाम पर सेवा करते रहो तो थोड़ा-थोड़ा मेवा मिलता रहेगा।
मंदिर, वह भी ‘सत्ता-दिलाऊ अभियान’ के बाद बनने वाले मंदिर के प्रबंधन में क्यों किसी ओबीसी या आदिवासी को घुसाने की माँग कर रहे हो भाई? इसमें तो किसी रघुवंशी-क्षत्रिय को भी फटकने नहीं दिया गया, फिर ये ओबीसी-ओबीसी का क्या मतलब?
अब तो ओबीसी को बख़्श दो!
ओबीसी को अब तो बख़्श दो भाई कल्याण और बहन उमा जी! उन्हें पढ़ने लिखने दो, बोलने दो ताकि वे आपके हिंदुत्वा के ख़तरनाक और नापाक मंसूबों पर ठोस और जरूरी सवाल उठा सकें। अपने भविष्य और आने वाली पीढ़ियों को हिंदुत्वा के ख़तरों से बचा सकें। उन्हें अच्छा, समझदार, सेक्युलर और संवेदनशील मनुष्य बनने दो।उन्हें आपके मंदिर के ट्रस्ट की जरूरत नहीं, उन्हें अच्छे नवोदय या केंद्रीय विद्यालयों, जेएनयू जैसे अच्छे विश्वविद्यालयों, रूसो, वालतेयर, कबीर, नानक, रैदास, मार्क्स, ग्रामशी, फुले, अम्बेडकर और अमर्त्य सेन को पढ़ने-समझने दीजिए।
उन्हें कम्प्यूटर, लैपटॉप, पुस्तकालयों और प्रयोगशालाओं की तरफ जाने दीजिए। आप अपनी पार्टी और उसकी अगुवाई वाली सरकार से जूझिए, जो इन दिनों विश्वविद्यालयों और प्रयोगशालाओं पर ही हमले बोल रही है।
हमें आपके धर्म-परायण होने से कोई गुरेज नहीं, आप रखिए अपने स्वामी जी, योगी जी, साध्वी जी और संत जी को अपने पास। पर दलित-ओबीसी पर अब तो रहम कीजिए, उन्हें अच्छी ज़िन्दगी, अच्छे समाज और अच्छे देश का रास्ता बनाने दीजिए। मंदिर और उसका यह ट्रस्ट आपको बहुत-बहुत मुबारक! जाइये घंटा बजाते रहिए।