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शिवसेना नेता ही बाल ठाकरे के बेटे को आँखें क्यों दिखा रहे, बदल गई पार्टी?

शिवसेना नेता ही बाल ठाकरे के बेटे को आँखें क्यों दिखा रहे, बदल गई पार्टी?

क्या शिवसेना अब बदल गई है और वह बाला साहेब ठाकरे के मिजाज से अलग है? आख़िर शिवसेना के नेता ही उद्धव ठाकरे के सामने तनकर क्यों खड़े हैं जहाँ बाल ठाकरे के सामने ऐसा करने की शायद ही किसी की हिम्मत हो?

महाराष्ट्र की राजनीति के पुरोधा बाला साहेब ठाकरे ने प्रखर राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व और मराठी अस्मिता के दम पर महाराष्ट्र में लंबे वक़्त तक राजनीति की। वह जब तक सियासत में रहे बेबाक और बेखौफ बने रहे। कहा जाता है कि वह जब तक रहे, उनके सामने शिवसेना के किसी नेता की छोड़िए, दूसरे दलों के नेता की भी नहीं चलती थी! लेकिन इसी शिवसेना के नेता अब बाला साहेब ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे के सामने खड़े हैं। वे सीधी चुनौती दे रहे हैं। वे उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद से यानी सत्ता से हटाना चाहते हैं। आख़िर ऐसा बदलाव क्यों आया? क्या अब वह शिवसेना नहीं रही जो बाला साहेब ठाकरे के जमाने में थी? क्या उद्धव ठाकरे की शिवसेना अब बदल गई है?

ये सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि शिवसेना में पिछले कुछ दिनों से तूफान उठा है। और ऐसा इसलिए कि शिवसेना के ही कुछ नेता बागी हो गए हैं।

एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर उद्धव ठाकरे के साथ असहमति के बाद शिवसेना के वरिष्ठ नेता एकनाथ शिंदे ने महाराष्ट्र में राजनीतिक संकट खड़ा कर दिया। शिंदे के दावे के मुताबिक़ उन्हें क़रीब 40 विधायकों का समर्थन हासिल है। शिंदे अब सूरत से असम पहुँच गए हैं। शिंदे और शिवसेना के अन्य विधायकों का बाग़ी होना उद्धव ठाकरे के लिए कितना तगड़ा झटका है, यह इससे साबित होता है कि पार्टी के वरिष्ठ नेता संजय राउत ने बुधवार को कहा कि ज्यादा से ज्यादा सत्ता जाएगी, लेकिन पार्टी की प्रतिष्ठा ज़रूरी है।

बहरहाल, यह उस शिवसेना का हाल है जिसके प्रमुख रहे बाल ठाकरे सियासत में बेबाक और बेखौफ बने रहे थे। वे अपनी बात दो टूक कहते थे। बिना किसी डर के! उनके बयानों ने उन्हें विवादास्पद बनाया। समाज के एक धड़े ने उन्हें कट्टर कहा तो एक समुदाय के लिए वे हिन्दू हृदय सम्राट भी रहे। 

अन्य दलों की तरह शिवसेना में भी बाला साहेब ठाकरे के जमाने में ही, नरम दल और गरम दल बन गये थे। नरम दल के नेता उद्धव ठाकरे हुआ करते थे और गरम दल के राज ठाकरे। बाल ठाकरे के मिजाज को देखते हुए तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनको राज ठाकरे का ही अंदाज ज़्यादा पसंद आता होगा। लेकिन वो बेटे तो थे नहीं, भतीजे थे। लिहाजा उद्धव ठाकरे को ही चुनना पड़ा। विरासत बेटे को ही सौंपनी थी। 2005 में वह फ़ैसला हुआ और फिर तब राज ठाकरे ने अलग रास्ता अपनाया।

राज ठाकरे की शुरू से ही कोशिश रही है कि वह खुद को बाल ठाकरे की तरह की राजनीति करें। इसीलिए जब शिवसेना की कमान उद्धव ठाकरे के हाथ में आई तो राज ठाकरे ने अपनी नयी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाई।

राज ठाकरे ने अपने कार्यकर्ताओं को सड़कों पर पुरानी शिवसेना की तरह उत्पात मचाने के लिए छोड़ दिया। पहले ये बाहरियों के ख़िलाफ़ हुआ करता था। महाराष्ट्र में बाहरी वाले आम तौर पर यूपी-बिहार के लोग होते हैं। हालाँकि राज ठाकरे ने अब ऐसी रणनीति बनाई है जो आरएसएस के नक्शे क़दम पर चलती दिखती है। चाहे वह अजान विवाद का मामला हो या फिर लाउडस्पीकर विवाद या फिर हनुमान चालीसा पाठ करने का विवाद।

 - Satya Hindi

उद्धव ठाकरे के हाथ में शिवसेना की कमान आने के बाद पार्टी से अलग होने वालों में सिर्फ़ राज ठाकरे ही नहीं हैं, बल्कि इसमें छगन भुजबल और नारायण राणे जैसे नेता भी शामिल हैं। राणे ने अपना राजनीतिक करियर शिव सेना से ही शुरू किया था। वह शिव सेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे के बेहद करीबियों में शुमार होते थे। 1990 में पहली बार शिव सेना के टिकट पर विधायक बने थे। 

राणे शिव सेना में शाखा प्रमुख जैसे शुरुआती दायित्व से चलकर बाला साहेब के कारण 1999 में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए। लेकिन 2003 में जब उद्धव ठाकरे को शिव सेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया तो राणे ने इसका पुरजोर विरोध किया और उनका विरोध जारी रहने के बाद 2005 में बाला साहेब ठाकरे ने राणे को पार्टी से बाहर कर दिया।

शिवसेना के मौजूदा प्रमुख उद्धव ठाकरे के सामने 2019 में जिस तरह से एनसीपी को चुनने का विकल्प आया था, उसी तरह का मौक़ा कभी बाला साहेब ठाकरे के पास आया था। महाराष्ट्र में शिवसेना 1995 में सरकार बना चुकी थी। मनोहर जोशी और नारायण राणे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके थे। 1999 में महाराष्ट्र में चुनाव के दौरान बाला साहेब का दिया इंटरव्यू काफी चर्चित है। इंटरव्यू में बाला साहेब से एक सवाल पूछा गया था कि क्या वे शरद पवार की एनसीपी के साथ गठबंधन करना पसंद करेंगे? इस पर बाला साहेब ने कहा था, 'राजनीति में क्या संभावनाएं... राजनीति के बारे में कहा जाता है कि ये दुष्टों का खेल है, अब ये एक शख्स को तय करना है कि वो या तो जेंटलमैन बने रहना चाहता है या फिर दुष्ट होना चाहता है।' उन्होंने आगे कहा था, 'मैं ऐसे व्यक्ति के साथ नहीं जाऊंगा, चाहे वो कोई भी हो...'।

उस इंटरव्यू के 20 साल बाद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के सामने ऐसा ही मौक़ा आया। बीजेपी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने वाली शिवसेना ने बीजेपी पर वादा नहीं निभाने का आरोप लगाते हुए उसके साथ सरकार बनाने से इनकार कर दिया। आख़िर में उसने एनसीपी और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई। उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने। शिवसेना के प्रवक्ता और वरिष्ठ नेता संजय राउत बार-बार दोहराते रहे कि उन्होंने बाला साहेब ठाकरे का सपना पूरा किया है। लेकिन इसी शिवसेना में नंबर दो माने जाने वाले एकनाथ शिंदे ने अब यह कहते हुए बगावत कर दी है कि वह बाला साहेब ठाकरे के पदचिन्हों पर चलते हैं और उद्धव ठाकरे ऐसा नहीं कर रहे हैं। एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर उद्धव ठाकरे के साथ असहमति के बाद एकनाथ शिंदे ने महाराष्ट्र में राजनीतिक संकट खड़ा कर दिया। तो सवाल है कि यह वैचारिक मतभेद है या फिर सिर्फ़ राजनैतिक? क्या शिंदे और उद्धव ठाकरे में कोई मेल-मिलाप की संभावना है? और क्या ऐसी दिक्कतें बाला साहेब ठाकरे और उद्धव ठाकरे के वैचारिक मतभेद की वजह से हैं?

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