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शेयर बाज़ार में 4 महीने से हाहाकार क्यों? जानें बाज़ार की हालत

शेयर बाज़ार में 4 महीने से हाहाकार क्यों? जानें बाज़ार की हालत

भारतीय शेयर बाज़ार में ख़ूनख़राबा क्यों हो रहा है? आख़िर विदेशी निवेशक एफ़डीआई क्यों निकाल रहे हैं और देश के निवेशक विदेशों में पैसा लगा रहे हैं? भारत की अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है? 

शेयर बाज़ार ने निवेशकों को हिला कर रख दिया है। गिरावट का दौर ऐसा है कि जाता ही नहीं है। पिछले चार महीने में शेयर बाज़ार क़रीब 12 फ़ीसदी क्रैश हुआ है। इसका ऐसा कोई भी सेगमेंट नहीं है जहाँ भूचाल नहीं आया हुआ है। यहाँ तक कि म्यूचुअल फंड के निवेशकों को भी इन महीनों में तगड़ा झटका लगा है। तो सवाल है कि क्या है मार्केट में करेक्शन आया है? क्या शेयर बाज़ार का जो बुलबुला फुला हुआ था वह फुटा है या फिर देश की अर्थव्यवस्था की हालत ही ऐसी है कि निवेशकों का विश्वास डगमगा गया है?

शेयर बाज़ार की ऐसी स्थिति के पीछे बड़ी वजहें क्या है और आगे कैसे हालात रहेंगे, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर बाज़ार की स्थिति क्या है? गुरुवार को सेंसेक्स 76000 से ज़्यादा के अंक पर है, लेकिन एक दिन पहले ही यह 76000 से नीचे तक पहुँच गया था। यही सेंसेक्स सितंबर महीने में 86 हज़ार के क़रीब पहुँच गया था। पिछले साल 27 सितंबर को सेंसेक्स 85,978.84 रुपये के सर्वकालिक उच्च स्तर को छू लिया था। लेकिन इसके बाद से भारतीय शेयर बाजार में भारी गिरावट देखी गई है। 

पिछले चार महीनों में बेंचमार्क इंडेक्स में 10,000 अंकों या 11.79 प्रतिशत की भारी गिरावट आई है। एनएसई निफ्टी इंडेक्स में भी गिरावट आई है, जो इसी अवधि के दौरान 12.38 प्रतिशत तक गिर गया। विदेशी निवेशकों द्वारा भारी बिकवाली के कारण लार्ज कैप शेयरों को सबसे ज़्यादा झटका लगा है, जिससे चार महीनों में एनएसई लार्ज-कैप इंडेक्स में 13.27 प्रतिशत की गिरावट आई है।

एनएसई मिड-कैप इंडेक्स में 12.85 प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि स्मॉल-कैप इंडेक्स में 9.87 प्रतिशत की गिरावट आई है। हालाँकि आईटी शेयर काफी हद तक अप्रभावित रहे, ऑटोमोबाइल और तेल और गैस जैसे पूंजी आधारित क्षेत्रों को बुरी तरह से नुक़सान हुआ।

शेयर बाज़ार की ऐसी हालत तब है जब अर्थव्यवस्था के संकेतक ख़राब स्थिति का इशारा दे रहे हैं। देश की अर्थव्यवस्था का ग़ज़ब हाल है! जीडीपी विकास दर कम होकर 6.4 फ़ीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है। महंगाई दर बढ़ी है। खाने पीने की चीजों की महंगाई या तो बढ़ी है या फिर स्थिर रही है। एक बड़ी चिंता की वजह कमजोर तिमाही के नतीजे हैं। कंपनियों की अर्निंग ग्रोथ एक बड़ी समस्या बनकर आई है। अभी तक अधिकतर कंपनियों के सितंबर तिमाही के नतीजे अनुमान से कम रहे हैं।

जीडीपी विकास दर के गिरने, महंगाई के बढ़ने और कॉर्पोरेट क्षेत्र के कमजोर प्रदर्शन व उनकी कमाई कम होने से निवेशकों के भरोसे पर बुरा असर हुआ है।

इसका सीधा असर विदेशी निवेश पर पड़ा है। चाहे वह पोर्टफोलियो निवेश का मामला हो या फिर एफ़डीआई का। एफ़डीआई 12 साल के निचले स्तर पर पहुँच गई है। और भारतीय कंपनियों का विदेशों में निवेश भी 12 साल के शिखर पर है। यानी दोनों तरफ़ से पैसे देश से बाहर ही जा रहे हैं। भारत में विदेशी निवेशक जो पैसे लगाए हुए थे वे तो पैसे लेकर भाग ही रहे हैं, भारतीय निवेशक भी अब भारत की तुलना में विदेशों में पैसे लगा रहे हैं। अपर्याप्त पैसे वाली अर्थव्यवस्था कितनी मज़बूत होगी? इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि ख़ून की कमी वाला शरीर किस हालत में हो सकता है?

निवेश की क्या स्थिति है और इससे क्या असर पड़ सकता है, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर निवेश से क्या मतलब है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एक देश में स्थित किसी फ़र्म या व्यक्ति द्वारा दूसरे देश में स्थित व्यावसायिक हितों में लगाया गया पैसा है। विदेशी पोर्टफ़ोलियो निवेश यानी एफ़पीआई दूसरे देश में प्रतिभूतियों यानी शेयर बाज़ार में और अन्य वित्तीय परिसंपत्तियों में किए गए निवेश को दिखाता है।

आरबीआई के आँकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल-अक्टूबर 2024 में भारत में शुद्ध एफडीआई प्रवाह घटकर 14.5 बिलियन डॉलर रह गया, जो 2012-13 के बाद सबसे कम है। तब यह 13.8 बिलियन डॉलर था। 2012-13 से 2023-24 तक शुद्ध एफडीआई महामारी के बाद से साल दर साल धीमा होता जा रहा है। 2020-21 के अप्रैल से अक्टूबर की अवधि के दौरान शुद्ध एफडीआई 34 बिलियन डॉलर था, जो 2021-22 में घटकर 32.8 बिलियन डॉलर, 2022-23 में 27.5 बिलियन डॉलर और 2023-24 में 15.7 बिलियन डॉलर रह गया।

शुद्ध एफ़डीआई और सकल एफडीआई में काफ़ी अंतर है और यह समझना बेहद ज़रूरी है। सकल एफडीआई पहले से कम नहीं हो तो भी शुद्ध एफ़डीआई बेहद कम हो सकता है, जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। 

अप्रैल-अक्टूबर 2024 की अवधि में देश में सकल एफ़डीआई प्रवाह 48.6 बिलियन डॉलर था, जो कम से कम 2011-12 के बाद से संयुक्त रूप से सबसे अधिक है। तो सवाल है कि शुद्ध एफ़डीआई में गिरावट क्यों आई?

दरअसल, शुद्ध एफडीआई में गिरावट का कारण यह है कि देश से बाहर जाने वाला निवेश बढ़ जाता है। विदेशी कंपनियों द्वारा जितना निवेश किया जाता है, उसी दौरान उनके द्वारा पहले किए गए निवेश के पैसे निकाले भी जाते हैं। इसके अलावा देश की कंपनियों द्वारा विदेशों में निवेश भी किया जाता है। यानी ये निवेश के पैसे भी देश से बाहर जा रहे होते हैं। इस तरह सकल एफ़डीआई में से देश से बाहर जाने वाले निवेश को घटा दें तो शुद्ध एफडीआई निवेश होता है।

जबकि विदेशी कंपनियाँ निवेश के लिए भारत से दूर होती दिख रही हैं, ऐसा लगता है कि भारतीय कंपनियाँ भी ऐसा ही कर रही हैं। अप्रैल-अक्टूबर 2024 में भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी निवेश बढ़कर 12.4 बिलियन डॉलर हो गया, जो कम से कम 2011-12 के बाद सबसे अधिक है। यह पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 55 प्रतिशत की वृद्धि है। इस तरह, सकल एफ़डीआई प्रवाह भले ही 48.6 बिलियन डॉलर रहा हो, लेकिन प्रत्यावर्तन और विनिवेश के रूप में देश से बाहर जाने वाला धन इस वित्तीय वर्ष की अप्रैल-अक्टूबर अवधि में बढ़कर 34.1 बिलियन डॉलर हो गया।

भारत के घरेलू शेयर बाजार में ऐसा क्या हुआ कि विदेशी निवेशकों का एकदम से मोह भंग सा हो गया? 2024 में एफ़पीआई यानी विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के माध्यम से सिर्फ 1600 करोड़ रुपये आए। पिछले साल यह 1.71 लाख करोड़ था। यानी 99 फीसदी की गिरावट आ गई। 

नेशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरी लिमिटेड यानी एनएसडीएल के अनुसार, 27 दिसंबर 2024 तक एफपीआई ने भारतीय इक्विटी में शुद्ध रूप से 1656 करोड़ रुपये का निवेश किया। हालांकि विदेशी निवेशक शेयर बाजार में प्रमुख रूप से विक्रेता रहे, लेकिन वे प्राथमिक बाजार में खरीदार बने रहे।

तो सवाल है कि आख़िर विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों को घरेलू शेयर बाज़ार से क्या दिक्कत है?

इसके पीछे कई वजहें बताई जा रही हैं। शेयर बाज़ार के जानकारों का कहना है कि भारतीय शेयर बाज़ार में शेयरों के मूल्यांकन की चिंताएँ, वित्तीय वर्ष 2025 की दूसरी तिमाही में अपेक्षा से कम जीडीपी वृद्धि, कमजोर कॉर्पोरेट आय और अमेरिकी बॉन्ड यील्ड्स में वृद्धि शामिल हैं।

कहा जा रहा है कि विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों में भारतीय शेयर बाज़ार को लेकर सबसे बड़ी चिंता शेयरों के मूल्यांकन को लेकर है और भारतीय शेयर अपने वास्तविक मूल्य से कहीं ज़्यादा क़ीमतों पर ट्रेड कर रहे हैं। शेयर बाज़ार में हाल में काफ़ी गिरावट आई है। सेंसेक्स और निफ्टी अपने शिखर से क़रीब 11-12 फ़ीसदी लुढ़क चुके हैं।

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अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के बाद के हालात ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है, क्योंकि निवेशक डॉलर की संपत्तियों को अधिक पसंद कर रहे हैं। एफपीआई ने अक्टूबर में 94,017 करोड़ रुपये और नवंबर में 21,612 करोड़ रुपये के शेयर बेचे। दिसंबर में 15,446 करोड़ रुपये के शेयर खरीदने के बाद उन्होंने 2025 के पहले महीने में फिर से बिकवाली शुरू की और 21 जनवरी तक 51,748 करोड़ रुपये बेचे। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने भारत सहित अधिकांश उभरते बाजार में अपनी इक्विटी को बेच दिया है। निवेशकों की म्यूचुअल फंड होल्डिंग्स को भारी नुकसान हुआ है, क्योंकि सभी योजनाओं की शुद्ध संपत्ति मूल्य में गिरावट आई है। 

तो अब बाज़ार की दिशा क्या होगी? आम तौर पर देखा गया है कि भारत का शेयर बाज़ार जब जब बड़े गिरावट के दौर से गुज़रा है तो इसमें क़रीब 15 फ़ीसदी तक गिरावट आई है। मौजूदा गिरावट भी क़रीब-क़रीब इस स्तर को छूने वाली है। कहा जा रहा है कि अब काफ़ी कुछ आगे की अर्थव्यवस्था की स्थिति और कंपनियों के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा। बीएनपी परिबास, इंडिया इक्विटी रिसर्च प्रमुख कुणाल वोरा ने द इंडियन एक्सप्रेस से कहा, ' हमें उम्मीद है कि 2025 बाजारों के लिए एकल अंकों के रिटर्न का एक और साल होगा। भारतीय जीडीपी वृद्धि धीमी हो गई है।' कहा जा रहा है कि शेयर बाज़ार पर काफी दबाव रहेगा।

(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है।)

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