इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी सार्वजनिक करने के लिए आख़िर चार महीने का समय क्यों मांगा जा रहा है? क्या इसका संबंध आने वाले लोकसभा चुनाव से है या फिर प्रक्रिया में इतना समय लग रहा है? आख़िर इसकी वजह क्या है? इन सवालों के जवाब भारतीय स्टेट बैंक यानी एसबाआई की सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में मिल सकते हैं। एसबीआई ने याचिका में भारतीय चुनाव आयोग को चुनावी बॉन्ड के संबंध में जानकारी देने के लिए 30 जून, 2024 तक समय बढ़ाने की मांग की है। एसबीआई को ही इलेक्टोरल बॉन्ड को जारी करने के लिए अधिकृत किया गया था। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया और इसकी पूरी जानकारी सार्वजनिक करने के लिए कहा है।
15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा दिए गए फै़सले के अनुसार, एसबीआई को 6 मार्च तक चुनाव आयोग को जानकारी देनी होगी। यानी अब इसके लिए सिर्फ़ दो दिन का समय बचा है। और अब उसने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर चार महीने का समय बढ़ाने की गुहार लगा दी है।
एसबीआई ने अपनी याचिका में इसके पक्ष में क्या तर्क दिया है, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था और ऐसा क्यों।
इलेक्टोरल बॉन्ड अवैध था। अपारदर्शी था। असंवैधानिक था। सुप्रीम कोर्ट ने ही पिछले महीने इसपर मुहर लगा दी। वैसे, बीजेपी सरकार द्वारा लाए गए इस इलेक्टोरल बॉन्ड पर सरकार को छोड़कर सबको कभी न कभी आपत्ति रही। 2019 में चुनाव आयोग ने भी कड़ी आपत्ति की थी। सुप्रीम कोर्ट में जब मामला गया तो इसने भी लगातार सवाल पूछे। विपक्षी पार्टियाँ गड़बड़ी का आरोप लगाती रहीं। चुनाव सुधार से जुड़े लोग इसको पीछे ले जाने वाला क़दम बताते रहे। तो सवाल है कि इतने विरोध के बावजूद यह अस्तित्व में क्यों और कैसे आ गया?
सबसे पहले इस विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था का प्रावधान 2017 के बजट के ज़रिये सामने लाया गया था। तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया था कि इससे हमारा लोकतंत्र मज़बूत होगा, दलों को होने वाली फ़ंडिंग और समुची चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी और कालेधन पर अंकुश लगेगा। लेकिन क्या ऐसा हुआ? क्या इन मक़सद में यह कामयाब होता दिखा या फिर इलेक्टोरल बॉन्ड के प्रावधान क्या ऐसे थे?
इलेक्टोरल बॉन्ड आने के बाद इस पर सबसे ज़्यादा सवाल पारदर्शिता और कालेधन को लेकर ही हुआ। एडीआर जैसी इलेक्शन-वाच संस्थाओं और इस विषय के जानकार लोगों ने इस प्रावधान की शुचिता और उपयोगिता पर गंभीर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे।
सवाल तो यह भी उठे कि इस बॉन्ड का प्रस्ताव न तो वित्त मंत्रालय, न तो निर्वाचन आयोग और न ही रिज़र्व बैंक की किसी आधिकारिक या प्रशासकीय प्रक्रिया के तहत आया था। आरोप लगाया गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी व्यवस्था शुरू करने का फ़ैसला सरकार चलाने वाले लोगों के शीर्ष स्तर और व्यक्तिगत इच्छा के तहत आया था।
इलेक्टोरल बॉन्ड का मामला जब सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा था तो 2019 में चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड का ज़ोरदार शब्दों में विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि इससे राजनीतिक दलों को पैसे देने की प्रक्रिया की पारदर्शिता कम होगी। आयोग ने यह भी कहा था कि यह पीछे ले जाने वाला कदम है।
भारत की जन प्रतिनिधि क़ानून की धारा 29 सी के अनुसार, 20,000 रुपये से ज़्यादा चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देने का प्रावधान है। लेकिन, वित्तीय अधिनियम 2017 के क्लॉज़ 135 और 136 के तहत इलेक्टोरल बॉन्ड को इसके बाहर रखा गया। इसके अलावा यह व्यवस्था भी की गई कि राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव आयोग को दिए गए अपने आमदनी-ख़र्च के हिसाब किताब में इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी देना अनिवार्य नहीं है।
इससे न तो इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले व्यक्ति या कंपनी का पता चलता है और न ही इसके ज़रिए जिसे पैसे दिए जा रहे हैं, उसका पता चलता है। राजनीतिक दलों के हिसाब-किताब में यह दर्ज नहीं होता है और चुनाव आयोग को इसकी कोई जानकारी नहीं होती है।
इलेक्टोरल बॉन्ड काले धन को बढ़ावा दे सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। कंपनीज़ एक्ट की धारा 182 के तहत यह व्यवस्था की गई थी कि कोई कंपनी अपने सालाना मुनाफ़ा के 7.5 प्रतिशत से अधिक का चंदा नहीं दे सकती। लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड को इससे बाहर रखा गया है। इसका नतीजा यह हुआ कि बेनामी या शेल कंपनी के ज़रिए पैसे दिए जा सकते ते। शेल कंपनियों के पास काला धन होता है। इस तरह बड़े आराम से काला धन चंदे के रूप में राजनीतिक दलों को दिया जा सकता है और किसी को पता भी नहीं चलेगा।
इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने आदेश में कहा था कि जारीकर्ता बैंक चुनावी बॉन्ड जारी करना बंद कर दे। भारतीय स्टेट बैंक 12 अप्रैल, 2019 के न्यायालय के अंतरिम आदेश के बाद से आज तक खरीदे गए चुनावी बॉन्ड की जानकारी चुनाव आयोग को दे। इसमें प्रत्येक चुनावी बॉन्ड की खरीद की तारीख, बॉन्ड के खरीदार का नाम और खरीदे गए चुनावी बॉन्ड का मूल्य शामिल हो। एसबीआई को यह जानकारी तीन सप्ताह के भीतर यानी 6 मार्च तक चुनाव आयोग को सौंपनी होगी। ईसीआई 13 मार्च 2024 तक एसबीआई से प्राप्त जानकारी को अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करेगा।
बहरहाल, अब जब इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया गया है और पूरी जानकारी सार्वजनिक करने को कहा गया है तो एसबीआई ने इसके लिए और समय मांगा है।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार याचिका में एसबीआई ने कहा है कि 12 अप्रैल, 2019 से 15 फरवरी, 2024 के बीच विभिन्न दलों को चंदा देने के लिए 22,217 चुनावी बॉन्ड जारी किए गए थे। भुनाए गए बॉन्ड प्रत्येक चरण के अंत में अधिकृत शाखाओं द्वारा सीलबंद लिफाफे में मुंबई मुख्य शाखा में जमा किए गए थे। एसबीआई ने कहा कि चूंकि दो अलग-अलग सूचना साइलो मौजूद हैं, इसलिए उसे 44,434 सूचना सेटों को डिकोड, संकलित और तुलना करना होगा।
एसबीआई ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई तीन सप्ताह की समयसीमा पूरी प्रक्रिया को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी। बता दें कि लोकसभा चुनाव की अधिसूचना बस कुछ दिनों में ही जारी होने की संभावना है और अप्रैल के आख़िर या मई के शुरुआत तक चुनाव नतीजे आ जाएँगे। एसबीआई ने इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी देने के लिए जून तक के लिए समय मांगा है।