राजनीति के नायकों, खलनायकों की दास्तां है संतोष भारतीय की किताब
राजनीति में जो सीधा सपाट दिखता है वो भी कई घुमावदार गलियों से होकर गुज़रता है। सफलता की सीढ़ियाँ नेता की रणनीति, समय के हिसाब से जनता की आकांक्षाओं की समझ और विरोधी के दाँव पेंच को मात देने की क्षमता पर निर्भर होती है।
जाने-माने पत्रकार संतोष भारतीय की नयी किताब "वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं," भारतीय राजनीति के दाँव पेच के साथ-साथ नेताओं की उन महत्वाकांक्षाओं को सामने लाती है जो उन्हें सत्ता के शिखर तक पहुँचाती है या फिर शिखर से ज़मीन पर पटक देती हैं।
ये किताब देश की राजनीति के उस दौर की गवाह है जिस दौर में कांग्रेस पार्टी संसदीय राजनीति के शिखर तक पहुँची और जल्दी ही अपने भीतर की कमज़ोरियों के कारण पतन के रास्ते पर चल पड़ी।
उथल-पुथल का दौर
1974 से लेकर 2014 तक का समय कांग्रेस के लिए सबसे ज़्यादा उथल-पुथल का रहा। हालाँकि इसके पहले 1969 में भी कांग्रेस का विभाजन हो चुका था। लेकिन 1974 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने कांग्रेस की रीढ़ पर वार किया। इसके बाद भी कांग्रेस 1984 के चुनाव में लोक सभा की 414 सीटों के साथ संसदीय राजनीति के शीर्ष पर पहुँची और 2014 में 50 से कम सीटों के साथ विघटन के समीप पहुँच गयी।
संतोष भारतीय ने इस दौर के तीन महत्वपूर्ण किरदारों, वीपी सिंह, चंद्रशेखर और सोनिया गांधी के ज़रिए भारतीय राजनीति को समझने की कोशिश की है।
वैसे इस किताब में तीन ही किरदार नहीं हैं। इसमें मोरारजी देसाई भी हैं, राजीव गांधी भी, देवी लाल भी, चौधरी चरण सिंह भी, देवेगौड़ा, रामकृष्ण हेगड़े, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, मनमोहन सिंह और राजनीति के रंगमंच के अनेक नेता-अभिनेता मौजूद हैं जिन्होंने उस दौर की राजनीति में नायक, खलनायक और विदूषक सभी तरह की भूमिकाएँ निभायीं।
वीपी सिंह के प्रधानमंत्री पद तक पहुँचने से लेकर सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने से चूकने तक की अंतरंग गाथा इस किताब में मौजूद है। ख़ास बात ये है कि ये किताब महज़ राजनीतिक घटनाओं का दस्तावेज़ नहीं है। इसमें पर्दे के पीछे की वो कहानियाँ मौजूद हैं जो अब तक सामने नहीं आयी थीं।
वीपी सिंह के सबसे क़रीबी पत्रकार होने के कारण संतोष भारतीय की पहुँच उन घटनाओं तक थी जो पर्दे के पीछे चल रही थीं। इसलिए राजनीति के उस दौर की अंदरूनी कहानी सिर्फ़ संतोष ही लिख सकते हैं।
वीपी सिंह एक ही छलाँग में प्रधानमंत्री के पद तक पहुँच गए जबकि सोनिया गांधी दो बार प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गयीं। वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने और सोनिया गांधी को रोकने के पीछे कौन कौन से किरदार काम कर रहे थे। उनका अपना स्वार्थ क्या था?
इन सब की झलक इस किताब में मिल जाती है। उस दौर में जनता की आकांक्षाएँ और उम्मीदें क्या थीं और अलग-अलग समय पर नेताओं ने किस तरह उनका इस्तेमाल करके अपने विरोधियों को मात दिया उसका हिसाब भी इस किताब में मौजूद है।
नेताओं की महत्वाकांक्षा के चलते आम जनता बार-बार ठगी गयी। 1977 में कांग्रेस की ज़बरदस्त हार और जनता पार्टी की जीत के बावजूद संपूर्ण क्रांति का सपना पूरा नहीं हुआ। 1989 में वीपी सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए लेकिन रक्षा सौदों में दलाली अब भी ख़त्म नहीं हुई।
ये सब उस दौर के नेताओं की सत्ता लोलुपता, विश्वासघात और दूर दृष्टि की कमी के कारण हुआ। संतोष भारतीय उस दौर के राजनीतिक षड्यंत्रों को परत दर परत उभारने में सफल रहे हैं। उस दौर के ग़ैर भाजपाई नेताओं की असफलता के बीच किस तरह बीजेपी ने पाँव ज़माना शुरू किया इसकी झलक भी इस किताब में दिखाई देती है।
सन 2000 के आख़िरी 25 वर्षों की भारतीय राजनीति को समझने के लिए यह एक जरूरी किताब है। हिंदी पत्रकारिता में संतोष भारतीय अलग पहचान रखते हैं। वो उन गिने-चुने पत्रकारों में हैं जिनकी पहुँच सत्ता के गलियारों में अंदर तक थी।
इसके चलते उनकी ये किताब राजनीतिक उथल-पुथल का आँखों देखा हाल दिलचस्प है। सरल और बोल-चाल की आम भाषा के कारण ये किताब किसी कहानी की तरह मज़ेदार लगती है, जिसे आप एक बार पढ़ना शुरू करते हैं तो ख़त्म करके ही छोड़ते हैं।