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हिंदू समाज को लेकर किस अंतर्विरोध में फंस गया संघ?

हिंदू समाज को लेकर किस अंतर्विरोध में फंस गया संघ?

क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में सत्ता संघर्ष या वैचारिक अंतर्विरोध को लेकर किसी तरह का घमासान मचा हुआ है? संघ के सामने यह मुश्किल क्यों है कि हिंदू समाज को अपने पीछे गोलबंद भी करना है और उसकी सच्चाई से रूबरू भी नहीं होना है?

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को महान समन्वयवादी संगठन बताने वाले बौद्धिक हैरान होंगे कि नागपुर से दिल्ली तक और दिल्ली से लखनऊ तक क्या घमासान मचा हुआ है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि जिस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को वे विचार और नेतृत्व के अंतर्विरोध को संभालने वाला एक परिपक्व संगठन बता रहे थे उसके भीतर यह हो क्या रहा है। अब यह दावा कमजोर पड़ रहा है कि संघ ऐसा संगठन है जो मंडल की राजनीति को भी अपने भीतर समाहित कर सकता है और मंदिर की राजनीति तो उसकी अपनी है ही। वह डॉ. आंबेडकर को भी संभाल सकता है, डॉ. लोहिया को भी और हेडगेवार और सावरकर को भी। वह क्षेत्रीय राजनीति को भी संभाल सकता है और राष्ट्रीयता की राजनीति पर तो उसका एकाधिकार ही है। वह संविधान की शपथ भी ले लेगा और मनुस्मृति को भी विश्वविद्यालय में पढ़ाने का प्रस्ताव रखवाएगा। वह जातियों की सोशल इंजीनियरिंग भी करेगा और यह भी दावा करता रहेगा कि भारत में जातियों की संरचना अंग्रेजों ने की है। वरना इस देश में जातिगत भेदभाव था ही नहीं। वह कम्युनिस्टों, ईसाइयों और मुसलमानों को तीन आंतरिक शत्रु भी बताएगा और फिर सभी के भीतर प्रेम और सद्भाव विकसित करने की योजना भी प्रस्तुत करेगा।

कुछ विश्लेषक इसे विशुद्ध सत्ता संघर्ष बता रहे हैं। वे इसे मोहन भागवत के नेतृत्व वाले संघ और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के बीच एक सत्ता संघर्ष बता रहे हैं जो सत्ता के सिकुड़ने के साथ ज़्यादा तीखा हो चला है। तो कुछ बौद्धिकों का कहना है कि यह तो महज एक नाटक है जो इसलिए चल रहा है ताकि विपक्ष के पास विमर्श का जो लोकवृत्त चला गया था वह फिर संघ के पास लौट आए। लेकिन संघ परिवार यह नहीं सोच पा रहा है कि इस दौरान उसका झूठ, उसकी अज्ञानता और गैर पढ़े लिखे नेतृत्व की दलीलें उसका दीर्घकालिक अहित कर रही हैं। हालाँकि संघ परिवार के इस अहित में भारतीय समाज, विपक्ष, लोकतांत्रिक संस्थाएं और सबसे ऊपर जनतंत्र का हित हो रहा है।

इस सत्ता संघर्ष और अंतर्विरोध का परिणाम यह हुआ है कि बहस उस मैदान में लौट आई है जिसे विपक्ष, इस देश का नागरिक समाज और तमाम आंदोलन लंबे समय से सजा रहे थे लेकिन वह कभी बारिश के कारण, कभी आंधी के कारण तो कभी ख़राब पिच के कारण उस मैदान में हो नहीं पा रही थी। ले देकर अब जनमत की बहस संविधान और लोकतंत्र पर लौट आई है और यही विपक्ष चाहता भी था। हालाँकि सरकार एक बेहद शक्तिशाली संस्था है और उस पर काबिज लोग हर बहस और सत्य को तोड़मरोड़ कर अपने पक्ष में प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं। 25 जून को संविधान हत्या दिवस घोषित करके केंद्र सरकार (गृह मंत्रालय) ने ऐसा ही किया है। यह एक नकारात्मक सोच का परिचायक है। विशेषकर उस सोच के आगे जो 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाती है। जब किसानों ने अपने आंदोलन के लिए 26 नवंबर का दिन चुना तो उनके मार्ग में खाइयां खोदी गईं और कीलें गाड़ी गईं। आज वैसा करने वाले लोग संविधान हत्या दिवस मना कर कौन सा लोकतांत्रिक संदेश देना चाहते हैं, यह स्पष्ट नहीं है। इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि जो लोग यह प्रयास करते हैं कि हिंदू समाज में असमानता को संस्थागत रूप देने वाले ग्रंथ मनुस्मृति को विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए वे भला संविधान की मर्यादा का क्या पालन करेंगे।

लेकिन सबसे ज़्यादा अज्ञानता और दिवालियापन तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस बयान में दिखाई पड़ता है जिसमें वे दावा करते हैं कि समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि जब तक राम, कृष्ण और शिव की पूजा की जाएगी तब तक भारत बचा रहेगा। वे दावा करते हैं कि समाजवादी लोग डॉ. लोहिया का अपमान करते हैं और कांग्रेसी डॉ. भीमराव आंबेडकर का अपमान करते हैं। यानी इन दोनों विचारकों को योगी बाकी लोगों से ज्यादा ही ठीक से समझते हैं।

सबसे पहले तो डॉ. लोहिया ने राम, कृष्ण और शिव वाले व्याख्यान में वह बात कहीं नहीं कही है जो योगी जी उवाच रहे हैं। बल्कि लोहिया कहते हैं कि वे ऐतिहासिक पात्र नहीं हैं। बल्कि मिथकीय पात्र हैं। हालांकि उनका महत्त्व किसी ऐतिहासिक पात्र से कहीं ज्यादा है। लोग ऐतिहासिक पात्रों को भूल सकते हैं लेकिन इन किंवदंती बन चुके पात्रों से अपना जीवन चलाते हैं। लोहिया इन पात्रों के माध्यम से भारत की एकता ज़रूर देखते हैं लेकिन वे उनकी ऐतिहासिकता और उनके मंदिरों को लेकर झगड़ा और दंगा करने के बजाय उनके गुणों को अपनाने की बात करते हैं। लोहिया शिव के मस्तिष्क, राम की मर्यादा और कृष्ण के प्रेम के गुणों से भारत को अनुप्राणित करना चाहते हैं। लेकिन वह एक दार्शनिक कथन है और योगी जी बिना उसे पढ़े और समझे हुए ही उस पर भाषण दिए चले जा रहे हैं। 

अगर लोहिया को राम की ऐतिहासिकता से लेना देना होता तो वे भी विहिप की तरह से अयोध्या में राममंदिर का मुद्दा उठाते। उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया जबकि वे स्वयं फैजाबाद के ही थे?

अगर योगी या उनके संघी विचारकों ने डॉ. लोहिया को पढ़ा ही है तो वे उनके `मार्क्स के आगे का अर्थशास्त्र’ या `इतिहास चक्र’ जैसी पुस्तकों का जिक्र क्यों नहीं करते? या तो वे उनके समझ में नहीं आतीं या वे उनकी राजनीति के लिए मुफीद नहीं हैं। अगर उन्हें लोहिया से अनुराग है तो वे उनके `जाति और योनि के कटघरे’ वाले भाषण का उल्लेख क्यों नहीं करते जिसमें जाति और लिंग भेद को भारत की गुलामी का कारण बताया गया है?  वे डॉ. लोहिया की `जाति तोड़ो’ की बात क्यों नहीं करते जिसके लिए उन्होंने आरक्षण की राजनीति का समर्थन किया और जिस उद्देश्य के लिए वे डॉ. आंबेडकर से राजनीतिक तालमेल करना चाहते थे? वे लोहिया की `सप्तक्रांति’ की बात क्यों नहीं करते जिसमें हर तरह के भेदभाव से मुक्ति और परमाणु बम के विरुद्ध सत्याग्रह की बात की गई है? आपातकाल का बार बार नाम लेने वाले लोग जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का उल्लेख भी नहीं करते। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डॉ. भीमराव आंबेडकर पर बहुत पहले से बोल रहे हैं और संघ ने उन्हें प्रातः स्मरणीय बना भी लिया है। उनकी पार्टी को दलितों के वोट भी मिले हैं। बल्कि बहुजन समाज पार्टी जैसी आंबेडकरवादी ने अपना पतन करते हुए उनके आगे समर्पण भी कर दिया है। बार बार डॉ. आंबेडकर का नाम लेने वाले योगी आदित्यनाथ यह क्यों नहीं बताते कि डॉ. आंबेडकर ने `जातिभेद के समूल नाश’ में क्या लिखा है और उस पर संघ परिवार का क्या विचार है या योगी जी उसके लिए क्या कर रहे हैं? वे यह क्यों नहीं बताते कि `हिंदू नारी का उत्थान और पतन’ नामक पुस्तक में डॉ. आंबेडकर ने भारतीय स्त्री के संघर्ष के बारे में क्या कहा है और कौन सी राह दिखाई है? अगर उन्हें आंबेडकर से अनुराग है और वे उनका सम्मान करते हैं तो उनका फोटो लेकर चलने, उस पर माला चढ़ाने से ज्यादा जरूरी है उनके विचारों का सम्मान करना। क्या वे बताएंगे कि आंबेडकर ने `रानाडे, जिन्ना और गांधी’ वाले व्याख्यान में कैसे आगाह किया है कि राजनीति में व्यक्ति पूजा नहीं होनी चाहिए? बल्कि सामाजिक परिवर्तन और तार्किकता की बात होनी चाहिए। क्या वे यह बताएंगे कि डॉ. आंबेडकर ने जन्मदिन मनाने वाले समर्थकों को भी आगाह किया था कि उनकी व्यक्तिपूजा नहीं होनी चाहिए? डॉ. आंबेडकर ने `बुद्ध और उनका धर्म’ में जो लिखा है उसकी चर्चा हिंदुत्ववादी क्यों नहीं करते? सावरकरवादी यह क्यों नहीं बताते कि सावरकर ने बौद्ध धर्म को भारत की गुलामी का कारण माना जबकि डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म को? वास्तव में डॉ. आंबेडकर का सम्मान इस बात में नहीं है कि उनके नाम पर किसी भवन, किसी मार्ग या किसी विश्वविद्यालय का नाम रख दिया जाए। उनका सम्मान इस बात में है कि समाज को बदलने और संचालित करने के बारे में उनके जो विचार हैं उसका कितना आदर किया जाता है। उस लिहाज से हिंदुत्व को चुनौती देने वाला उनका ग्रंथ `हिंदू धर्म की पहेलियां’ भी प्रासंगिक है। इस ग्रंथ में हिंदू धर्म के सभी देवी देवताओं को प्रश्नांकित किया गया है। क्या मोदी और योगी उस पर बात करने का साहस रखते हैं?

वास्तव में डॉ. भीमराव आंबेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचारों ने 1990 के दशक में जबरदस्त राजनीतिक हलचल पैदा की थी और आज फिर उनके विचारों ने हिंदुत्व और तानाशाही की राजनीति को जड़ से हिला दिया है।

यह सही है कि डॉ. लोहिया संविधानसभा में नहीं गए थे और उन अर्थों में संविधानवादी नहीं थे जिन अर्थों में डॉ. भीमराव आंबेडकर थे। लेकिन इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि दोनों का उद्देश्य संवैधानिक और अहिंसक तरीके से एक समतामूलक समाज बनाना था। डॉ. आंबेडकर मानते थे कि संविधान की सफलता के लिए एक समतामूलक समाज आवश्यक है तो डॉ. लोहिया मानते थे कि संविधान और गांधीवाद समाजवाद या समतामूलक व्यवस्था बनाने में सहायक हो सकते हैं। वे अपने में पूर्ण समाजवाद नहीं हैं। संघ समझ नहीं पा रहा है कि वह डॉ. लोहिया और डॉ. आंबेडकर का नाम लेकर पिछड़ों और दलितों के वोटों का जुगाड़ भी करे और कैसे असमानता पैदा करने वाले धर्मग्रंथों के विचारों को जगाकर ब्राह्मण धर्म की रक्षा करे। उसके सामने एक ओर संविधान और सामाजिक परिवर्तन करने वालों का विपुल लेखन और व्याख्यान हैं तो दूसरी ओर रामायण, गीता और वेद शास्त्र जैसे ग्रंथ हैं। उसके सामने एक ओर समाजवाद का आदर्श है तो दूसरी ओर पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद का गठजोड़।  इतिहास के इस मोड़ पर वे एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हैं। वे जब फिर से बहस के लिए ललकार रहे हैं तो संघ परिवार मैदान छोड़कर भाग रहा है। वह पिछले दस वर्षों से यह आख्यान चलवा रहा है कि भारत में जाति-व्यवस्था थी ही नहीं। यह तो औपनिवेशक प्रभाव के कारण दिखती है। जे साईं दीपक से लेकर तमाम बौद्धिक इस काम में लग गए हैं। विऔपनिवेशीकरण की एक धारा भी वहीं जाती है। 

संघ एक ओर भारत का आत्म तलाश रहा है तो दूसरी ओर जातिगत असमानता में छटपटाती जातियां अपना हक मांग रही हैं। संघ चाहता है कि मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी ढकी रहे। पर वह हो नहीं पा रहा है। रामचरित मानस में तुलसी दास ने कहा है कि –

’दुई न होई एक साथ भुवालू। हंसब ठठाई फुलाइब गालू।।’

हिंदू समाज को अपने पीछे गोलबंद भी करना है और उसकी सच्चाई से रूबरू भी नहीं होना है। इसी अंतर्विरोध में संघ फंस गया है। उसके सत्ता संघर्ष में केशव प्रसाद मौर्य और योगी आदित्यनाथ के टकराव में यह तत्व है।

यही तत्व कल्याण सिंह बनाम राजनाथ सिंह और कलराज मिश्र के टकराव में भी दिखता था। उसका समाधान संघ परिवार अल्पसंख्यक विरोध की राजनीति से करता है लेकिन जब वह राजनीति ठहर जाती है तो हिंदू समाज की फांकें दिखने लगती हैं। 

वास्तव में, 2024 के चुनाव में डॉ. भीमराव आंबेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया की सोई हुई आत्मा जाग उठी है। उसकी सर्वाधिक जागृति उत्तर प्रदेश में हुई लगती है जिसने हिंदुत्व के गढ़ में ही उसकी सींग पकड़कर उसे पछाड़ दिया है। अब यह घायल बैल या सांड़ अपने नथुनों से गर्म हवा छोड़ रहा है और ज्ञान- विज्ञान, धर्म और राजनीति की सारी विरासत पर अपना दावा ठोंकते हुए उन्हें बालक बुद्धि कह रहा है जिनसे वह पराजित हुआ है। इसी ग़ुस्से में वह अपने झुंड में भी लड़ रहा है और दूसरों से भी लड़ने की तैयारी कर रहा है। 

लेकिन विडंबना यह है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया की रचनाएं अब बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं और उनके पढ़ने वाले और समझने वाले भी बड़ी संख्या में हैं। उनकी चेतना का स्तर उन मूढ़ राष्ट्रीय दैनिकों और चैनलों से कहीं उच्च है जो हर झूठ को जस का तस छापने और उस पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने से परहेज करने में सिद्धहस्त हैं।

इंडिया समूह ने अगर अपने एजेंडा को लोगों तक पहुंचाया है तो वह गुमराह करने वाले अंदाज में नहीं, बल्कि सच बताने वाले तरीकों से पहुंचाया है। बल्कि सारी विपरीत स्थितियों के बावजूद अगर संविधान और लोकतंत्र का आख्यान जनता तक पहुंचा है तो इसका मतलब है कि झूठ लाखों शब्दों और कई घंटों के विजुअल के बावजूद सच के चंद शब्द और अल्पकालिक विजुअल के सामने ज्यादा प्रभावी नहीं रहा है। इसीलिए योगी ने अपने कार्यकर्ताओं से आह्वान किया है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करें। वे कर भी रहे हैं लेकिन लोग अपने उनके झूठ पर अविश्वास करने लगे हैं। संघ परिवार का आख्यान भरभरा रहा है। विपक्ष का आख्यान ठहर रहा है। लेकिन विपक्ष के पास चादर तानकर सोने का समय नहीं है। उसे सच के लिए कठिन संघर्ष करना होगा। जाहिर है यह संघर्ष यूरोपीय देशों की तरह भारतीय पूंजीवाद नहीं करेगा और न ही इसमें मदद करेगा। उसे असमानता पर आधारित हिंदू समाज से गठजोड़ बनाने में ही अपना फायदा दिखता है। इसकी एक बड़ी झलक मुकेश अंबानी के बेटे अनंत अंबानी की शादी में दिखाई पड़ गई। जब भी हिंदुत्व अपने समाज से हारने लगता है तो वह कभी पूंजीवाद के भव्य आयोजन और कभी नफरती राजनीति का सहारा लेता है। इसके विरुद्ध जनजागृति का काम विपक्ष के साथ नागरिक संगठनों का भी है। यह काम सिर्फ विपक्ष के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। अगर सब मिलकर इससे लड़ेंगे तो झूठ की अंधेरी रात कटेगी और सच्चाई की सुबह हो पाएगी।

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