कोलकाता के एक सरकारी अस्पताल में 10 जून की एक घटना से शुरू हुआ बवाल अब राष्ट्रव्यापी रूप ले रहा है। उस दिन 75 वर्षीय एक मरीज के निधन के बाद उसके परिजनों और उनके समर्थन में आए कथित असामाजिक तत्वों ने अस्पताल के डॉक्टरों पर हमला किया था। इसमें एक डॉक्टर गंभीर रूप से घायल हो गया था। इस घटना के बाद बंगाल और बिहार सहित कई प्रदेशों में डॉक्टरों द्वारा लगातार विरोध प्रदर्शन हो ही रहा था कि अब टकराव और हड़ताल के इस माहौल में सियासी रोटियाँ भी सेंकी जा रही हैं।
बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुलेआम कह रही हैं कि ‘डॉक्टरों के संघों और उनके पदाधिकारियों को भारतीय जनता पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भड़का रहे हैं, जबकि डॉक्टरों के हड़ताल पर जाने से आम जनजीवन प्रभावित हुआ है।’ डॉक्टर अपनी सुरक्षा की माँग कर रहे हैं और आम आदमी अस्पतालों में डॉक्टरों की सहज-उपलब्धता या उनकी मौजूदगी चाहता है।
विपक्ष (बंगाल के संदर्भ में बीजेपी-माकपा आदि) इस स्थिति के लिए सरकार (ममता बनर्जी) को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है और ममता सरकार यही आरोप विपक्ष पर लगा रही है। लेकिन सच क्या है?
सच यह है कि इस मामले के सभी पक्षकार सच पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं। सरकारें, सियासी दल, नेता और डॉक्टरों का बड़ा हिस्सा भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं की असल समस्या से लोगों को रू-ब-रू नहीं करा रहे हैं। वे इन सबको भटकाकर एक नकली लड़ाई लड़ना और लड़ाना चाहते हैं! कैसी विडम्बना है, बंगाल में अस्पताल, डॉक्टर-मरीज संबंध और संपूर्ण जन-स्वास्थ्य को भी सियासी गोलबंदी में इस्तेमाल किया जा रहा है। चुनावी कामयाबी (कुछ दलों ने राज्य विधानसभा चुनावों की तैयारी अभी से शुरू कर दी है) में जो भी काम आ जाये? सियासी स्वार्थ के आगे जन स्वास्थ्य को नजरंदाज करने के ऐसे उदाहरण कम मिलेंगे!
क्या है जन-स्वास्थ्य की असल समस्या?
असल समस्या यह है कि 56 या 58 हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च करके तीन दर्जन लड़ाकू विमान खरीदने वाले और निकट-भविष्य में ख़रबों रुपये ख़र्च करके ‘स्पेस-स्टेशन’ बनाने जा रहे अपने मुल्क की करोड़ों की आबादी के लिए सुसंगत और कारगर स्वास्थ्य सेवा ही सुलभ नहीं है। बीते कुछ दशकों से भारत में मेडिकल क्षेत्र का भारी विस्तार हुआ है। पर ज़्यादा जोर निजी क्षेत्र में है। सरकारी और ट्रस्ट संचालित अच्छे और सस्ते या मुफ़्त इलाज वाले अस्पतालों की भारी कमी है। अगर सारे महंगे निजी अस्पतालों को भी जोड़ लें तो देश की आबादी के हिसाब से उनकी संख्या और उनके यहाँ उपलब्ध बेड की संख्या बहुत कम है। योग्य और रजिस्टर्ड डॉक्टरों की भी भारी कमी है।विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक़, डॉक्टर और आबादी का औसत 1:1000 होना चाहिए। दुनिया के कई देशों ने यह औसत हासिल किया हुआ है। कई देशों में इससे भी अच्छा औसत है। पर भारत में आज भी यह औसत 1:1674 है। यानी 1674 लोगों को देखने के लिए एक डॉक्टर उपलब्ध है। मेडिकल कौंसिल ऑफ़ इंडिया द्वारा रजिस्टर्ड डॉक्टरों की संख्या 10.4 लाख से कुछ ऊपर बताई गई है।
‘विश्व-गुरू’ बनने की दावेदारी ठोक रहे अपने मुल्क में जन-स्वास्थ्य के बजटीय प्रावधान का हाल देखिए। भारत अपनी कुल जीडीपी का महज 1.4 फ़ीसदी जन स्वास्थ्य के क्षेत्र पर खर्च कर रहा है जबकि वैश्विक औसत 6 फ़ीसदी है।
दुनिया के ज़्यादातर विकसित देशों में स्वास्थ्य क्षेत्र पर जीडीपी का 7 से 14 फ़ीसदी तक ख़र्च होता है। एक और आंकड़ा जो हमारी स्वास्थ्य सेवाओं और केंद्र व राज्य सरकारों की भूमिका की असलियत का पर्दाफ़ाश करता है, वह यह कि भारत के आम लोग अपने स्वास्थ्य पर जो कुछ भी ख़र्च करते हैं, उसका 70 फ़ीसदी हिस्सा वे अपनी निजी कमाई से करते हैं। यानी यह उनकी अपनी पॉकेट से ख़र्च होता है। नतीजतन, हर साल भारत की 7 फ़ीसदी आबादी फिर से ग़रीबी रेखा के नीचे चली जाती है। इस परिदृश्य को बदलने का दावा करने वाले भारत सरकार के नेशनल हेल्थ मिशन (आयुष्मान योजना सहित) का अभी तक कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा है।
2018-19 में देश के कुल स्वास्थ्य बजट की राशि 54600 करोड़ थी। इसमें राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए 30130 करोड़ का प्रावधान किया गया था। इससे लगभग दोगुनी रकम तो हमारा देश सिर्फ़ लड़ाकू विमान ख़रीदने में ख़र्च कर देता है। क्या इस तरह की योजनागत और राजनीतिक-प्रशासनिक प्राथमिकताओं को लेकर हम भारत को एक स्वस्थ समाज बना सकते हैं?
फिर अस्पतालों में आम मरीजों की बेहतर देखभाल कैसे संभव होगी? इतने सीमित संसाधनों के जरिये अस्पतालों में ज़रूरी आधारभूत संरचना और वहाँ कार्यरत डॉक्टरों के लिए बेहतर चिकित्सीय-प्रोफ़ेशनल माहौल कैसे दिया जा सकता है?
अगर एक समय पर एक डॉक्टर के हवाले 1000 से ज़्यादा मरीज देखने के लिए होंगे तो वह सबके साथ न्याय कैसे कर सकता है? क्या हमारे नेता, मंत्री-संतरी, योजनाकार-नौकरशाह सरकारी अस्पतालों की लंबी लाइनें नहीं देखते?
ग़ैर-सरकारी अच्छे अस्पतालों या सुयोग्य डॉक्टरों वाले नर्सिंग होम्स में मोटी रकम लगने के बावजूद लाइनें कुछ लंबी नहीं होतीं! स्वास्थ्य मंत्रालय की बीमा आधारित स्वास्थ्य योजना (प्रति वर्ष 5 लाख रुपये प्रति परिवार देने की) अभी तक आम लोगों के स्वास्थ्य सरोकारों को संबोधित करने में कामयाब नहीं हुई है। हाँ, इससे बीमा कंपनियों को फायदा ज़रूर हुआ है।
सरकार को यह कौन समझाएगा कि भारत जैसे मुल्क में बीमा-आधारित स्वास्थ्य योजना लागू करने के बजाय सरकारी या अर्द्ध-सरकारी अस्पतालों की हालत सुधारना और आम लोगों को पूरी तरह मुफ़्त चिकित्सा सुविधा देने का कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
सियासी नहीं, सामाजिक-स्वार्थ के हिसाब से प्राथमिकताएँ तय करने की ज़रूरत है। लेकिन इसके लिए शासन और सियासी दलों को अपनी भटकी हुई प्राथमिकताएँ बदलनी होंगी। अगर प्राथमिकताएँ नहीं बदलीं गईं तो हमारे अस्पतालों में ऐसे दृश्य उपस्थित होते रहेंगे। डॉक्टरों और उनकी एसोसिएशनों को भी इस वृहत्तर सच को समझना होगा। अगर नहीं समझेंगे तो वे बेवजह ग़ैर-जरूरी लड़ाइयों में फंसेंगे। उन्हें जनता के ही ‘नामसमझ और गुस्सैल हिस्से’ से भिड़ाया जाएगा!
सिर्फ़ योजनाकारों को ही नहीं, हमारे डॉक्टरों को भी भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र के समाजशास्त्र को समझने की ज़रूरत है। अनेक मौक़ों पर डॉक्टरों के विभिन्न समूहों ने इस दिशा में सकारात्मक पहल की है। इसे राष्ट्रव्यापी अभियान बनाने की ज़रूरत है।