बीते कुछ सालों से पेट्रोल-डीज़ल के दाम तेल कंपनियाँ बढ़ाती रही हैं। जब कभी बड़ी बढ़ोतरी होती और आम जनता असंतोष ज़ाहिर करती, सरकार की ओर से कहा जाता रहाः ‘हम क्या कर सकते हैं, दाम बढ़ाने-घटाने का अधिकार तो कंपनियों को है!’ लेकिन इस बार बजट पढ़ते-पढ़ते पेट्रोल-डीज़ल महंगे हो गए! वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पेट्रोल-डीज़ल के ज़रिए जनता से और ज़्यादा वसूलने की तरकीब लगाई है। इस बार अधिभार (सेस) और एक्साइज, दोनों में एक-एक रुपए का इज़ाफा किया गया है। इससे पेट्रोल-डीज़ल एकबारगी में ही प्रति लीटर दो-ढाई रुपये महंगे हो गए। लेकिन बजट को 10 में 10, 9 या 8 नंबर दे रहे न्यूज़ चैनलों के विशेषज्ञों को इसमें कोई ख़ास बात नहीं लगी। पर मेरे जैसे आर्थिक मामलों के ‘अविशेषज्ञ’ को यह बढ़ोतरी ग़ैरबाज़िब और जनता के साथ धोखा लगा। सिर्फ़ मध्य और निम्न मध्य वर्ग ही नहीं, किसान भी इस भारी बढ़ोतरी से बुरी तरह प्रभावित होंगे। इससे महँगाई तेज़ी से बढ़ेगी। यह तो हुई कंज्यूमर के नज़रिए से एक शुरुआती टिप्पणी!
अब आइए बजट के कुछ प्रमुख प्रावधानों और घोषणाओं पर। जैसा मैंने पहला कहा, मैं आर्थिक मामलों का ख़ास जानकार नहीं हूँ। इसलिए आम बजट पर मेरे जैसे व्यक्ति का नज़रिया एक आम कंज्यूमर के अलावा जम्हूरियत-पसंद एक नागरिक का नज़रिया होगा। तक़रीबन, तीन दशक से पत्रकारिता में हूँ और कई राज्यों के विधानमंडलों और भारतीय संसद को कवर करने का मौक़ा मिला है। कई बजट प्रस्तुतियों को संसद की प्रेस दीर्घा से देखा है और फिर बजट प्रावधानों को पढ़ा है। कुछ समझा और कुछ नहीं समझा। जो नहीं समझा, उस पर अपने आर्थिक-विशेषज्ञ मित्रों की सहायता ली। इस बार संसद की प्रेस दीर्घा से नहीं, टीवी के स्क्रीन पर बजट प्रस्तुति देखी। एक स्तर पर खुशी भी हुई कि अपने विश्वविद्यालय की एक पूर्व छात्रा भारत के वित्त मंत्री के रूप में बजट पेश कर रही है। बजट भाषण भी अच्छा दिया-धारा प्रवाह अंग्रेज़ी में। बजट को सरकार के कुछ सलाहकारों ने बही-खाता बताया। बही-खाते की शक्ल में ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण उसे एक लाल रंग की पोटली में संसद भवन ले आईं।
वित्त मंत्री के ‘प्रभावशाली बजट भाषण’ सुनने के बाद मैं बजटीय प्रावधान के ज़रूरी आँकड़ों का इंतज़ार करने लगा। पर वह देर तक बना रहा। बजट पेश हो गया। भाषण भी हो गया। चैनलों और आर्थिक विशेषज्ञों के एक खेमे में प्रशंसा भी मिल गई। पर आँकड़े कहाँ
प्रशंसा करने वालों ने आँकड़ों के बगैर प्रशंसा कर डाली। सरकारी सलाहकारों ने बही-खाते का ज़िक्र तो कर दिया पर वे यह भूल गए कि बनिया-महाजन हो या घर का मालिक हो, आमदनी और ख़र्च के हिसाब के बगैर किसी का खाता पूरा नहीं होता। इस मामले में यह अनोखा बजट हैः- इसमें भाषण है, कुछ लंबी-चौड़ी बातें हैं, कुछ घोषणाएँ और दावे हैं पर दो घंटे से ज़्यादा लंबे बजट भाषण में ज़रूरी आँकड़े ही नहीं हैं। संसद कवर करने वाले कुछ युवा पत्रकारों से भी इसकी पुष्टि हुई। शुरू में मुझे लगा, संभवतः टीवी चैनल्स ग़लती या किसी लापरवाही से आय-व्यय और योजना मद आदि के आँकड़े पेश नहीं कर रहे हैं। लेकिन थोड़ी देर बाद पाया कि बजट में नागरिकों को ‘अधिकार के साथ कर्तव्य की शिक्षा’ तो दी गई है पर वित्त मंत्री ने सदन में ज़रूरी बजटीय आँकड़ों को पढ़ने से परहेज किया। इसके लिए बजट के बाक़ी परिपत्रों को देखना होगा। अब आम आदमी कहाँ से देखेगा, बजटीय प्रावधान के मोटे-मोटे परिपत्र। उन परिपत्रों में भी कई महत्वपूर्ण सेक्टर्स के ज़रूरी आँकड़े ग़ायब हैं। पहले की परंपरा रही है कि बजट की मूल बातें वित्तमंत्री के भाषण में ही पेश की जाती रही हैं। पर इस दफा मंत्री जी का भाषण किसी ललित निबंध जैसा रहा। सारे ज़रूरी ब्यौरे के लिए आय-व्यय के अलग परिपत्रों को देखना होगा।
आम बजट से ज़रूरी आँकड़े ग़ायब
पहले रेल बजट को आम बजट में गुम किया गया और अब आम बजट से ज़रूरी आँकड़े ग़ायब हो रहे हैं। क्या ठिकाना भविष्य में बजट की औपचारिकता भी ख़त्म हो जाए! अलग रेल बजट की परिपाटी ख़त्म किये जाने से आम जन को पता नहीं चल पाता कि कहाँ नई रेलें चलेंगी और कहाँ नया रेल मार्ग शुरू हो रहा है! आम लोगों की बात छोड़िये, जन-प्रतिनिधियों, मीडिया और विशिष्ट लोगों को भी यह जानकारी नहीं मिलती कि सरकार रेलवे के किस-किस क्षेत्र को निजी हाथों में दे रही है या पीपीपी मॉडल ला रही है! यह जानकारी तभी उजागर होती है, जब सरकार स्वयं ऐसी किसी योजना की जानकारी मीडिया के समक्ष पेश करना चाहती है।
हमने बजट के मोटे परिपत्रों से जो कुछ ज़रूरी आँकड़े फ़िलहाल हासिल किये हैं, वे आम जनता के लिए पूर्व में घोषित सरकार की कई महत्वाकांक्षी योजनाओं के मद में कटौती दर्शा रहे हैं। उदाहरण के लिए जलशक्ति मंत्रालय के बजट में कटौती की गई है। यह कटौती तक़रीबन 10 फ़ीसदी की है। ऐसे दौर में जब भारत में पेयजल और सिंचाई, दोनों का बड़ा संकट दिख रहा है, जलशक्ति मंत्रालय के बजट में कटौती का क्या मतलब है स्वच्छ भारत मिशन के लिए पिछले साल 17 हज़ार 843 करोड़ रुपए तय किए गए थे। इस बजट में सिर्फ़ 12 हज़ार 644 करोड़ रुपए की राशि निर्धारित की गई है। इसी तरह प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए पिछली बार 27 हज़ार 505 करोड़ की राशि तय की गई थी। इस बार यह राशि 25 हज़ार 853 करोड़ तय की गई है। ज़ाहिर है, चुनाव ख़त्म हो चुके हैं। अगले चुनाव से पहले के साल में या अंतरिम बजट लाकर जनता को ख़ुश करने वाले कुछ फौरी क़दम उठा लिए जाएँगे।
क्या पढ़ने आएँगे विदेशी छात्र
बजट में एक बड़ा दिलचस्प लक्ष्य तय किया गया है। यह है: ‘स्टडी इन इंडिया’ यानी हमारी सरकार कोशिश करेगी कि विदेश के छात्र-युवाओं का अच्छा-ख़ासा हिस्सा भारत आकर पढ़ाई करे। इससे देश को भरपूर वित्तीय फ़ायदा होगा और देश की प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी। इस ‘नयी स्कीम’ पर मुझे दो बातें कहनी हैं: पहली बात तो यह कि मुझे समझ में नहीं आया सरकार अपना यह लक्ष्य कैसे पूरा करेगी भारत के विश्वविद्यालयों और अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों को तो चौपट किया जा रहा है। सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के छात्रों-शिक्षकों पर झूठे आरोप लगाकर पूरे कैंपस को बदनाम किया जा रहा है। विश्वविद्यालय परिसरों में क्रिकेट टीम की जीत, बालाकोट एयर-स्ट्राइक के लिए या बीजेपी की दोबारा जीत (जो हो चुकी है) के लिए यज्ञ कराए जा रहे हैं!
विदेशी छात्रों को कैसे आकर्षित करेंगे जहाँ सरकारी पदों पर आसीन लोग दावा करेंगे कि विमान से लेकर सर्जरी और पत्रकारिता (रिपोर्टिंग) तक का आविष्कार सबसे पहले प्राचीन भारत में हुआ था, वहाँ उच्च शिक्षण संस्थानों का स्तर कैसे बढ़ाएँगे
मौलिक शोध और आविष्कार आदि को बढ़ावा देने वाले कौन से क़दम हमारी सरकारें उठा रही हैं कि अपने शिक्षण संस्थानों को हम विदेशी छात्रों के लिए आकर्षक बना सकेंगे दूसरी बात—जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, बीते वर्ष 18 अप्रैल को इंडिया हैबिटेट सेंटर में आयोजित एक भव्य सरकारी कार्यक्रम में तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इसी नाम से एक स्कीम की शुरुआत की थी और तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने वीडियो-संदेश के ज़रिए इस स्कीम को ऐतिहासिक क़दम बताया था। क्या निर्मला जी भूल गईं अपनी ही सरकार की एक ज़रूरी योजना को। वित्त मंत्री ने पहले से चली आ रही योजना को फिर से लांच करने का वायदा कर डाला। यह आकलन भी नहीं किया गया कि बीते एक साल में उक्त योजना की क्या उपलब्धियाँ रहीं कम से कम वित्त मंत्री को लाल पोटली में लिपटी अपने खाता-बही में यह सब दिखाना चाहिए था।
अर्थव्यवस्था को कैसे बचाएगा बजट
अब आइए, आम बजट की कुछ अन्य बातों की तरफ़। बेहाली की तरफ़ लुढ़कती हमारी अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक क्षेत्र की हमारी बड़ी कंपनियों को यह बजट कैसे बचाएगा, किसानों को कैसे खुशहाली की तरफ़ ले जायेगा और बड़े पैमाने पर रोज़गार सृजन कैसे करेगा बजट के प्रावधानों को अब तक जितना देखा, इन सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं मिला। बजट में भाषण ज़्यादा है, ज़रूरी प्रावधानों और ठोस क़दमों की कमी है। आम जन के हित के नाम पर कुछ कल्याणकारी योजनाओं, जैसे आवास निर्माण आदि के लिए कुछ अच्छे प्रावधान किए गए हैं पर कृषि क्षेत्र और रोज़गार सृजन आदि पर ख़ास ध्यान नहीं दिखाई देता। आधारभूत संरचनात्मक विकास मद के प्रावधानों में बढ़ोतरी करना वाजिब है। पर यह मान लेना कि सिर्फ़ यही क्षेत्र रोज़गार-सृजन के ज़रूरी लक्ष्य को हासिल कर लेगा, एक बड़ी ग़लती है। देश के छोटे-मझोले शहरों में मेट्रो ट्रेन जैसी ‘आधारभूत संरचनात्मक निर्माण’ की योजनाओं का दिवालियापन अभी से उजागर होने लगा है।
स्वास्थ्य के लिए अपर्याप्त रक़म
शिक्षा और जन-स्वास्थ्य पर बजटीय प्रावधान में बढ़ोतरी ज़रूर हुई है, जिसकी बहुत ज़रूरत थी। पर यह साफ़ नहीं कि यह बढ़ोतरी कितनी वास्तविक होगी पिछले बजट में भी स्वास्थ्य और शिक्षा के मद में बढ़ोतरी की गई थी। पर जन-स्वास्थ्य का वास्तविक बजट हमारी जीडीपी के 1.4 फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं हो सका। इस बार शिक्षा में 13.4 फ़ीसदी बढ़ोतरी प्रस्तावित हुई है। उच्च शिक्षा मद में 14.33 फ़ीसदी बढ़ोतरी का दावा किया गया है। स्कूली शिक्षा में सिर्फ़ 12.82 फ़ीसदी। ज़रूरत के हिसाब से देखें तो यह कोई बड़ी बढ़ोतरी नहीं है। सरकार ने इन दोनों के मुक़ाबले रिसर्च क्षेत्र में 150 गुना बढ़ोतरी का दावा किया है। देखना है, असलियत में कहाँ-क्या होता है
यह सवाल वाजिब है क्योंकि सरकार ने पिछले बजट और वास्तविक ख़र्च का कोई हिसाब पेश नहीं किया है। स्वास्थ्य बजट में 16.2 फ़ीसदी बढ़ोतरी का दावा किया गया है। यह रक़म भी हमारी कुल जीडीपी में 2 फ़ीसदी से भी कम होगी, जबकि दुनिया के अनेक विकासशील देश, यहाँ तक कि छोटे-मझोले कम विकसित देश 4 से लेकर 6 फ़ीसदी ख़र्च कर रहे हैं।
'टैक्स टेरर' बढ़ेगा!
सोशल सेक्टर (ग़ैर-सरकारी क्षेत्र) पर सरकार अपनी नज़र और नीति सख़्त करेगी। बजट में इसका भी ज़िक्र है। इसका सबसे ज़्यादा प्रभाव पड़ेगा सरकार की आलोचना या उसकी नीतियों से असहमत संस्थाओं और व्यक्तियों पर। इसका मतलब है कि लक्षित 'टैक्स टेरर' बढ़ेगा। बजट एक और महत्वपूर्ण संकेत देता है। देश की अर्थव्यवस्था में निजीकरण की गति और तेज़ करेगा। समझा जाता है कि बीएसएनएल सहित कई बड़े सरकारी क्षेत्रों के आंशिक या पूर्ण निजीकरण का डंडा चलेगा। रेलवे में निजी प्रबंधन में ट्रेनें चलाने को अनुमति देने का सैद्धांतिक फ़ैसला भी कर दिया गया है। शुरू में दो ट्रेनों पर यह प्रयोग किया जायेगा। इसके लिए वित्त मंत्री ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में सरकारी हिस्सेदारी की सीमा 51 फ़ीसदी से कम करने का प्रस्ताव किया है।
सरकार रिसर्च फाउंडेशन बनायेगी, जिसका लक्ष्य होगा, देश के उद्योग जगत, 90 फ़ीसदी निजी क्षेत्र को मदद करना। वाह, क्या रिसर्च होगी! फिर निजी क्षेत्र का आरएंडी का ख़र्च कहाँ जायेगा सत्ताधारी पार्टी के इलेक्शन बांड में
‘स्टार्ट-अप’ अब न्यूज़ या मनोरंजन चैनलों की दुनिया में भी ‘चमत्कार’ करेगा! उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका फ़ायदा बड़े पैमाने पर उन 'हिन्दू-राष्ट्रवादी रंगरूटों' को मिलेगा जो आईटी-सेल से प्रशिक्षण प्राप्त कर विभिन्न राज्यों में नये चैनल खोलकर 'गोदी मीडिया' की मृदंग बजाना तेज़ करेंगे। इससे ‘न्यू इंडिया’ के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा! ‘आधार’ का वर्चस्व और बढ़ा दिया गया है। यह महज संयोग नहीं कि टैक्स रिटर्न में पैन पर आधार की वरीयता का एलान से दो दिन पहले संसद ने ‘आधार’ क़ानून में एक ख़ास संशोधन को अपनी मंज़ूरी दे दी थी। कुछ ही सांसदों ने इस पर आपत्ति जताई और इसे राज्य द्वारा आम नागरिकों की ‘जासूसी’ की प्रक्रिया को और पुख्ता बनाने का उदाहरण कहा था। यह भी आशंका जताई गई कि इस मुहिम में सरकार और निजी क्षेत्र की कुछ कंपनियाँ हिस्सेदार दिख रही हैं। भाषण के हिसाब से बजट भाषण ओजस्वी रहा पर आर्थिक आकलन, भावी योजना के लिए ठोस रणनीति बनाने के मामले में इसके फंडे गोल नज़र आ रहे हैं।