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साहिर लुधियानवी: जुल्म फिर जुल्म है बढ़ता है, तो मिट जाता है...

साहिर लुधियानवी: जुल्म फिर जुल्म है बढ़ता है, तो मिट जाता है...

बेमिसाल शायर, गीतकार साहिर लुधियानवी ने 25 अक्टूबर, 1980 को अपनी जिंदगी की आखिरी सांस ली। उन्होंने अपनी नज्मों और गीतों में मुल्क और अवाम के लिए, जो समाजवादी ख्वाब बुना था, वह अब भी पूरा नहीं हुआ है। 

साहिर लुधियानवी को इस दुनिया से रुखसत हुए एक लंबा अरसा हो गया, मगर उनकी शायरी आज भी उनके चाहने वालों के सिर चढ़कर बोलती है। उर्दू अदब में उनका कोई सानी नहीं। विद्यार्थी जीवन में ही साहिर लुधियानवी की गजलों, नज्मों का पहला काव्य संग्रह ‘तल्खियाँ’ प्रकाशित हुआ। यह संग्रह रातों-रात पूरे मुल्क में मशहूर हो गया। साहिर लुधियानवी अपनी तालीम पूरी करने के बाद, नौकरी की तलाश में लाहौर आ गए। ये दौर उनके संघर्ष का था। उन्हें रोज़ी-रोटी की तलाश थी। बावजूद इसके साहिर ने लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ा। तमाम तकलीफों के बाद भी वह लगातार लिखते रहे। एक वक्त ऐसा भी आया, जब उनकी रचनाएँ उस दौर के उर्दू के मशहूर रिसालों ‘अदबे लतीफ’, ‘शाहकार’ और ‘सबेरा’ में अहमियत के साथ शाया होने लगीं। लाहौर में कयाम के दौरान ही वह प्रगतिशील लेखक संघ के संपर्क में आए और इसके सरगर्म मेम्बर बन गए। संगठन से जुड़ने के बाद उनकी रचनाओं में और भी ज़्यादा निखार आया। मार्क्सवादी विचारधारा ने उनकी रचना को अवाम के दुःख-दर्द से जोड़ा। अवाम के संघर्ष को उन्होंने अपनी शायरी में आवाज दी। साहिर लुधियानवी का शुरुआती दौर, देश की आज़ादी के संघर्षों का दौर था। देश के सभी लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी अपनी रचनाओं एवं कला के ज़रिए आजादी का अलख जगाए हुए थे। गोया कि साहिर भी अपनी शायरी से यही काम कर रहे थे। उनकी एक नहीं कई गजलें हैं, जो अवाम को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उठने की आवाज देती हैं। एक गजल में वह कहते हैं, 

‘‘सरकश बने हैं गीत बगावत के गाये हैं/बरसों नए निजाम के नक्शे बनाये हैं।’’ 

तो दूसरी गजल में वह कहते हैं,

‘‘फ़ाक़ा-कशों के ख़ून में है जोश-ए-इंतिक़ाम/सरमाया के फ़रेब जहाँ-पर्वरी की ख़ैर/… एहसास बढ़ रहा है हुकूक-ए-हयात (जीवन के अधिकारों) का/पैदाइशी हुकूक-सितम-पर्वरी (अत्याचार करने के जन्मसिद्ध अधिकारों) की खैर।’’ 

साहिर की इन रचनाओं में वर्ग चेतना स्पष्ट दिखलाई देती है। अपने हक, हुकूक के लिए एक तड़प है, जो उनकी शायरी में मुखर होकर नुमायाँ हुई है।

तरक्कीपसंद तहरीक से जुड़े हुए तमाम रचनाकारों की तरह साहिर का भी मानना था कि मज़दूर और किसान ही देश में बदलाव की इबारत लिखेंगे। यही वजह है कि वह अपनी रचनाओं में इन्हीं को खिताब करते हुए लिखते हैं,‘जश्न बपा है कुटियाओं में, ऊंचे एवां कांप रहे हैं/मजदूरों के बिगड़े तेवर, देख के सुल्तां कांप रहे हैं/जागे हैं इफ्लास के मारे, उट्ठे हैं बेबस दुखियारे/सीनों में तूफां का तलातुम, आंखों में बिजली के शरारे।’’ अपनी क्रांतिकारी गजलों और नज्मों की वजह से साहिर लुधियानवी का नाम थोड़े से ही अरसे में उर्दू के अहम शायरों की फेहरिस्त में शामिल हो गया। फैज अहमद फैज, मजाज, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, मख्दूम की तरह वे घर-घर में मकबूल हो गए। नौजवानों में साहिर की मकबूलियत इस कदर थी कि कोई भी मुशायरा उनकी मौजूदगी के बिना अधूरा समझा जाता था। जिस ‘अदबे लतीफ’ में छप-छपकर साहिर ने शायर का मर्तबा पाया, एक दौर ऐसा भी आया जब उन्होंने इस पत्रिका का संपादन किया और उनके सम्पादन में पत्रिका ने उर्दू अदब में नए मुकाम कायम किए।

‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें’ साहिर की प्रतिनिधि किताब है। शीर्षक नज्म ‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें’ में साहिर के जज्बात क्या खूब नुमायां हुए हैं, 

‘‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें, कल के वास्ते/वरना यह रात, आज के संगीन दौर की/डस लेगी जानो-दिल को कुछ ऐसे, कि जानो-दिल/ता उम्र फिर न कोई हंसी ख्वाब बुन सके/गो हमसे भागती रही यह तेज-गाम (तीव्र गति) उम्र/ख्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र/जुल्फों के ख्वाब, होंठों के ख्वाब और बदन के ख्वाब/मेराजे-फन (कला की निपुणता) के ख्वाब, कमाले-सुखन (काव्य की परिपूर्णता) के ख्वाब/तहजीबे-जिन्दगी (जीवन की सभ्यता) के, फरोगे-वतन (देश की उन्नति) के ख्वाब/जिन्दा (कारागार) के ख्वाब, कूचए-दारो-रसन (फांसी) के ख्वाब।’’ 

साहिर की इस नज्म को खूब मकबूलियत मिली। गुलाम मुल्क में नौजवानों को यह नज्म अपनी सी लगी। एक ऐसा ख्वाब जो उनका भी है। जैसे मुस्तकबिल के लिए उन्हें एक मंजिल मिल गई।

किताब ‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें’ में ही साहिर लुधियानवी की लंबी नज्म ‘परछाइयां’ शामिल है। ‘परछाइयां’ नज्म की भूमिका में अली सरदार जाफरी ने इसकी तारीफ करते हुए लिखा है, 

‘‘परछाइयां साहिर की बेश्तर नज्मों की तरह मुहाकात का एक अच्छा नमूना है और वयक-वक्त गिनाई और बयानिया-कैफियत की हामिल है। वह गिनाई कैफियत जोबयानीया-अनासिर से आंख चुराती है। बसा औकात जाती दाखलियत के निहाखानों में जलवे दिखाकर रह जाती है। और वह बयानिया-कैफियत जो गिनाई-अनासिर से गुरेज करती है, एक तरह की जाहिर-निगारी में तबदील हो जाती है। जिसकी मिसाल ‘नहर पर चल रही है पनचक्की’ से बेहतर नहीं मिलती। साहिर की यह नज्म उनकी पूरी शायरी की तरह इन दोनों अयूब से पाक है। इस मुहाकाती-कैफियत को पैदा करने के लिए साहिर ने लफ्जों के इस्तेमाल में भी बड़ी खुशमजाकी दिखाई है। उसने बाज मकामात पर लफ्जों से नक्काशी और रंग-कारी का काम किया है और वहाँ उसका कलम शायर के कलम के बजाय मुसव्विर का कलम बन गया है। अल्फाज जो चन्द हरूफ की इजमाली शक्लें हैं, पिघल कर रंग और खुतूत में तबदील हो जाते हैं और कागज के सफह पर एक मंजर खींच देते हैं। इनकी सौती कैफियत में भी टकराव और झंकार के बजाए एक खामोश और बेआवाज रवानी है-जैसे साफ और चिकनी सतह पर आहिस्ता-आहिस्ता पानी बह रहा हो।’’

किसी एक नज्म पर इतना बड़ा तब्सिरा, उसकी अज्मत बताने के लिए काफी है।

‘परछाइयां’ नज्म, वाकई है भी ऐसी। यकीन न हो, तो इस लंबी नज्म की चंद लाइनों पर खुद ही गौर फरमाएं,

‘‘चलो कि चल के सियासी मुकामिरों से कहें/कि हम को जंगो-जदल के चलन से नफरत है।/जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास न आए,/हमें ख्याल के उस पैरहन से नफरत है।/कहो कि अब कोई कातिल अगर इधर आया,/तो हर कदम पे जमीं तंग होती जाएगी।/हर एक मौजे हवा रुख बदल के झपटेगी,/हर एक शाख रगे-संग होती जाएगी।/उठो कि आज हर इक जंगजू से हम कह दें,/कि हमको काम की खातिर कलों की हाजत है।/हमें किसी की जमीं छीनने का शौक नहीं,/हमें तो अपनी जमीं पर हलों की हाजत है।’’ 

बगावत और वतनपरस्ती में डूबी हुई इस पूरी नज्म में ऐसे कई उतार-चढ़ाव हैं, जो पाठकों को बेहद प्रभावित करते हैं। ‘परछाइयां’ के अलावा ‘खून फिर खून है!’, ‘मेरे एहद के हसीनों’, ‘जवाहर लाल नेहरू’, ‘ऐ शरीफ इन्सानों’, ‘जश्ने गालिब’ ‘गांधी हो या गालिब हो’, ‘लेनिन’ और ‘जुल्म के खिलाफ’ जैसी शानदार नज्में इसी किताब में शामिल हैं। यह किताब वाकई साहिर का शाहकार है। यदि इस किताब के अलावा साहिर कुछ भी न लिखते, तो भी वे अजीम शायर होते। उनकी अज्मत मंजूर करने से कोई इंकार नहीं करता।

साहिर लुधियानवी की शुरुआती नज्में यदि देखें, तो दीगर इंकलाबी शायरों की तरह उनकी नज्मों में भी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक गुस्सा, एक आग है। साहिर की एक नहीं, कई ऐसी नज्में हैं, जो उस वक्त वतनपरस्त नौजवानों को आंदोलित करती थीं। नौजवान इन नज्मों को गाते हुए, गिरफ्तार हो जाते थे,

"जुल्म फिर जुल्म है बढ़ता है, तो मिट जाता है/खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा/...तुमने जिस खून को मक्तल में (वध-स्थल) दबाना चाहा/आज वह कूचा-ओ-बाजार में आ निकला है/कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर/खून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से/सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों (विधान) से/जुल्म की बात ही क्या, जुल्म की औकात ही क्या/जुल्म बस जुल्म है आगाज से अंजाम तलक/खून फिर खून है, सौ शक्ल बदल सकता है-/ऐसी शक्लें कि मिटाओ तो मिटाए न बने/ऐसे शोले, कि बुझाओ तो बुझाए न बने/ऐसे नारे कि दबाओ तो दबाए न बनें।’’ (नज्म-‘खून फिर खून है !’)

गुलाम हिन्दोस्तान में एक तरफ क्रांतिकारी अपनी सशस्त्र गतिविधियों से क्रांति का अलख जगाए हुए थे, तो दूसरी ओर पत्रकार, अफसानानिगार, शायर इन क्रांतिकारी गतिविधियों को वैचारिक धार दे रहे थे। उन्हें खाद-पानी मुहैया करा रहे थे। अंग्रेज हुकूमत के लाख दमन और पाबंदियों के बावजूद उन्होंने अपने हथियार नहीं छोड़े थे। जितनी पाबंदियां लगतीं, उनके लेखन में और भी ज्यादा निखार आता। वे उतने ही ज्यादा मुखर हो जाते। अपने मुल्क के लिए कुछ करने का जज्बा ऐसा था कि वे हर खतरे को उठाने के लिए तैयार रहते थे। फैज अहमद फैज की मशहूर नज्म ‘लब पे पाबन्दी तो है...’ की जमीन पर ही साहिर ने भी लिखा,

‘‘लब पे पाबन्दी तो है, एहसास पर पहरा तो है/फिर भी अहले-दिल को एहवाले-बशर (मानव की व्यथा) कहना तो है/… अपनी गैरत बेच डालें, अपना मसलक (धर्म, उद्देश्य) छोड़ दें/रहनुमाओं में भी कुछ लोगों का यह मन्शा तो है/है जिन्हें सबसे ज्यादा दावाए-हुब्बे-वतन/आज उनकी वजह से हुब्बे-वतन रुस्वा तो है/… झूठ क्यों बोलें फरोगे-मसल्हत (हित के लिए सोच-विचार) के नाम पर/जिन्दगी प्यारी सही, लेकिन हमें मरना तो है।’’ (नज्म ‘लब पे पाबन्दी तो है’)

आजादी की यह आग अकेले हिन्दुस्तान में ही नहीं लगी थी, बल्कि दुनिया में कई मुल्क अपनी गुलामी के खिलाफ साम्राज्यवादी मुल्कों से जंग लड़ रहे थे। लेखक, शायर अमन की बात करते हैं लेकिन जुल्म का प्रतिरोध करते हैं। तरक्कीपसंद अदीब भी चाहते थे कि मुल्क को आजादी मिले और यहां अमन कायम हो। लेकिन वे जुल्म को नहीं स्वीकारते। जुल्म के खिलाफ वे जंग के लिए भी आमादा हो जाते हैं। साहिर ने भी अपनी नज्म में क्या खूबतर लिखा, 

‘‘हम अम्न चाहते हैं, मगर जुल्म के खिलाफ/गर जंग लाज्मी है तो फिर जंग ही सही/...यह जर (धन-दौलत) की जंग है न जमीनों की जंग है/यह जंग है बका के उसूलों के वास्ते/जो खून हमने नज्र दिया है जमीन को/वह खून है गुलाब के फूलों के वास्ते/फूटेगी सुबहे-अम्न (शांति की सुबह), लहू रंग ही सही।’’ 

(नज्म ‘मगर जुल्म के खिलाफ’) यानी अमन के लिए यदि जंग लड़ना भी जरूरी हो, तो फिर जंग लड़ो। उससे पीछे न हटो। क्योंकि उनके मुताबिक जंग के बाद ही सुबहे-अम्न आएगी।

लाखों लोगों की कुर्बानियों और संघर्षों के बाद साल 1947 में हमारा मुल्क आजाद हुआ। लेकिन क्रांतिकारियों और तरक्कीपसंद अदीबों ने जिस मुल्क का तसव्वुर किया था, आजादी के चंद दिनों बाद ही उनका वह सपना टूटा। संवैधानिक तौर पर भले ही मुल्क लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हो गया, पर व्यावहारिक तौर पर उसमें कई बुराइयां आ गईं। आर्थिक आजादी और समानता के सवाल, अनसुने रह गए। मजहब के नाम पर मुल्क में हिंदू-मुस्लिम के बीच लड़ाइयां होने लगीं। जाहिर है कि ऐसे हालात में तरक्कीपसंद अदीब कहां चुप रह जाने वाले थे। सच्चा लेखक, संस्कृतिकर्मी चुप बैठ सकता भी नहीं। प्रतिकूल हालात में ही मालूम चलता है कि उसकी पक्षधरता कहाँ है वे किसके साथ खड़े हैं साहिर ने भी अपनी एक नज्म में इस तरह के हालात पर प्रतिरोध दर्ज करते हुए मुल्क के हुक्मरानों से कहा,

‘‘आओ! कि आज गौर करें इस सवाल पर/देखे थे हमने जो, वह हंसी ख्वाब क्या हुए/दौलत बढ़ी तो मुल्क में इफ्लास (गरीबी) क्यों बढ़ा/खुशहालिए-अवाम (जनता की संपन्नता) के असबाब क्या हुए /...जमहूरियत-नवाज (गणराज्य पर विश्वास करने वाले), बशर दोस्त (मानव के मित्र), अम्न ख्वाह (शांति-प्रिय)/खुद को जो खुद दिए थे वह अल्काब (उपलब्ध्यिं) क्या हुए/मजहब का रोग आज भी क्यों ला-इलाज है/वह नुस्खा-हाए-नादिरो-नायाब (अनमोल नुस्खे) क्या हुए।’’ (नज्म ‘26 जनवरी’)

मुल्क को जो आजादी मिली, वह खंडित आजादी मिली। मजहब के नाम पर मुल्क का बंटवारा हो गया। पूरे मुल्क में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। साहिर लुधियानवी इन हालात में खामोश तमाशाई नहीं बने रहे। मुल्क में उस वक्त जो गद्दीनशीन थे, उन्होंने उन पर सवाल उठाते हुए पूछा, 

“ये किस का लहू है कौन मरा ऐ रहबर-ए-मुलक-ओ-क़ौम बता/ये जलते हुए घर किस के हैं ये कटते हुए तन किस के हैं/...जिस राम के नाम पे ख़ून बहे उस राम की इज़्ज़त क्या होगी/जिस दीन के हाथों लाज लुटे इस दीन की क़ीमत क्या होगी/.......ये वेद हटा क़ुरआन उठा/ये किस का कहो है कौन मिरा/ऐ रहबर-ए-मुलक-ओ-क़ौम बता।’’ 

नफरत की बुनियाद पर जो मुल्क बने, उसमें आज भी आपस में दुश्मनी कायम है। अवाम लाख चाहे, मगर दोनों मुल्कों के चंद सियासतदां नहीं चाहते कि मेल और भाईचारा पैदा हो। इन सियासतदानों ने अपनी सियासत से दोनों मुल्कों के बीच और खाई चौड़ी कर दी है। नफरत और दुश्मनी की इस खाई के बढ़ने का ही नतीजा है कि आजादी के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच तीन जंग हो चुकी हैं। आजादी से पहले जो साहिर जंग के हामी थे, आजादी के बाद उनका एक दम नजरिया बदल जाता है। नजरिया बदलने की वजह भी है, वे नहीं चाहते कि भाई-भाई आपस में लड़ें। उनकी नजर में जंग किसी मसले का हल नहीं। जंग से सिर्फ तबाही आती है। जंग यदि करना भी है, तो गरीबी और उन तमाम समस्याओं के खिलाफ करो, जिसने इंसानी जिंदगी को नुकसान पहुंचाया है। भारत-पाक 1965 की जंग के पसमंजर में साहिर लुधियानवी ने लिखा,

‘‘बम घरों पर गिरें कि सरहद पर/रूहे-तामीर जख्म खाती है/खेत अपने जलें कि औरों के/जीस्त (जीवन) फाकों से तिलमिलाती है/...जंग तो खुद ही मसअला है एक/जंग क्या मसअलों का हल देगी/आग और खून आज बख्शेगी/भूक और एहतयाज (आवश्यकताएं)/.....जंग इफ्लास और गुलामीं से/अम्न, बेहतर निजाम की खातिर/जंग भटकी हुई कयादत (नेतृत्व) से/अम्न बेबस अवाम की खातिर/जंग सर्माए (पूंजी) के तसल्लुत (आधिपत्य) से/अम्न जमहूर (जनता) की खुशी के लिए/जंग जंगों के फल्सफे के खिलाफ/अम्न, पुर अम्न जिन्दगी (शांति-मय जीवन) के लिए।’’ (नज्म ‘ऐ शरीफ इन्सानों’)

आजादी के बाद कहने को हमारे मुल्क में हर शोबे में तरक्की हुई। इंसान चांद और मंगल तक जा पहुंचा। लेकिन आजादी के संघर्ष में जो जीवन मूल्य हमने अपनाए थे और आजादी के बाद जिन संवैधानिक मूल्यों पर हमारी जम्हूरियत खड़ी है, आहिस्ता-आहिस्ता उन मूल्यों का अवमूल्यन हुआ है। गालिब और गांधी के मुल्क में उनकी ही विचारधारा हाशिए पर जा रही है। गांधी के नाम पर हुकूमतें तमाम ढांग तो करती हैं, लेकिन उनके आदर्शों पर चलने को तैयार नहीं। भारतीय संस्कृति के नाम पर आज समस्त देशवासियों के ऊपर जबर्दस्ती इकहरी संस्कृति थोपी जा रही है। साहिर लुधियानवी इन प्रवृतियों के बरखिलाफ थे। अपनी नज्मों में इसकी उन्होंने हमेशा मुखालफत की। नये निजाम में भी उनके बगावती तेवर नहीं बदले। गांधी शताब्दी और गालिब शताब्दी के अंत पर उन्होंने बड़ी ही तल्खी और गुस्से से अपनी नज्म ‘गांधी हो या गालिब हो’ में लिखा,

‘‘गांधी हो या गालिब हो/खत्म हुआ दोनों का जश्न/आओ, इन्हें अब कर दें दफ्न/खत्म करो तहजीब की बात, बन्द करो कल्चर का शोर/सत्य, अहिंसा सब बकवास, तुम भी कातिल हम भी चोर।’’ 

यही नहीं उनकी एक और दूसरी नज्म ’जश्ने गालिब’ में यह तल्खियां और भी बढ़ जाती है। आजाद हिन्दुस्तान में उर्दू जुबान की बदहाल हालत पर सियासतदानों पर तंज करते हुए, वे लिखते हैं,

‘‘इक्कीस बरस गुजरे आजादीए-कामिल (पूर्ण स्वाधीनता) को/तब जाके कहीं हमको गालिब का ख्याल आया/तुर्बत (कब्र) है कहां उसकी, मस्कन (रहने का स्थान) था कहां उसका/अब अपने सुखन-परवर जहनों (काव्य को प्रोत्साहन देने वाले दिमाग) में सवाल आया/...जिन शहरों में गूंजी थी गालिब की नवा (श्रद्धा के फूल) बरसों/उन शहरों में अब उर्दू बेनामो-निशां ठहरी/आजादिए-कामिल (पूर्ण स्वाधीनता) का एलान हुआ जिस दिन/मातूब (श्राप की मारी) जबां ठहरी, गद्दार जबां ठहरी/जिस एहदे-सियासत (राजनीतिक युग) ने यह जिन्दा जबां कुचली/उस एहदे-सियासत को मरहूमों का गम क्यों है/गालिब जिसे कहते हैं, उर्दू ही का शायर था/उर्दू पे सितम ढा कर गालिब पे करम क्यों है।’’

मौजूदा दौर एक तरफ़ बुतों को पूजने तो दूसरी ओर बुतकशी का दौर है। सियासी फायदा उठाने के लिए रोज-ब-रोज नए-नए बुत बनाए जा रहे हैं, तो कुछ बुत तोड़े जा रहे हैं। त्रिपुरा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की हार के बाद, जिस तरह से इस सूबे में ‘लेनिन’ के बुत ढहाए गए, वह वाकई गंभीर और अफसोसनाक हालात थे। ‘लेनिन’ का गौरवशाली इतिहास जाने बिना, उनके बुत तोड़े गए। मानो बुत टूटने से विचारधारा का अंत हो जाएगा। जबकि साहिर लुधियानवी ही नहीं, दुनिया के कई लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी ‘लेनिन’ की शानदार शख्सियत और विचारधारा से न सिर्फ मुतास्सिर हुए, बल्कि अपने मुल्कों में भी उन्होंने क्रांति का अलख जगाया। साहिर ने अपनी मशहूर नज्म ‘लेनिन’ में रूसी क्रांति के महानायक ब्लादिमीर लेनिन की अज्मत को बतलाते हुए कहा है,

‘‘तबकों में बटी दुनिया सदियों से परेशां थी/गमनाकियां (दुःख) रिस्ती थीं आबाद खराबां (खंडहर) से/ऐश एक का, लाखों की गुरबत (गरीबी) से पनपता था/मन्सूब (सम्बंधित) थी यह हालत, कुदरत के हिसाबों से/इखलाक (अच्छा चरित्र) परेशां था, तहजीब हरासां (डरी हुई) थी/बदकार ‘हजूरों’ (कुकर्मी स्वामी) से, बदनस्ल जनाबों (कुजातीय महोदय) से/अय्यार सियासत (धूर्त राजनीति) ने ढांपा था जरायम (अपराध) को/अरबाबे-कलीसा (गिरजा के लोग) की हिकमत (युक्ति) के नकाबों से/इन्सां के मुकद्दर को आजाद किया तूने/मजहब के फरेबों से, शाही के अजाबों (अत्याचार) से।’’

साहिर लुधियानवी जिंदगी भर कुंवारे रहे। अलबत्ता उनकी जिंदगी में मोहब्बत ने कई बार दस्तक दी। लेकिन इस मोहब्बत को वे अपना नहीं पाए। पंजाबी की मशहूर उपन्यासकार अमृता प्रीतम भी उन्हें बहुत प्यार करती थीं, पर साहिर की फक्कड़ मिजाजी ने इस प्यार को परवान नहीं चढ़ने दिया। साहिर के जानिब इस मोहब्बत को अमृता प्रीतम ने कई बार सार्वजनिक तौर पर कबूला। पर साहिर यह हिम्मत नहीं दिखला पाए। प्रसिद्ध चित्रकार इमरोज जो बाद में अमृता प्रीतम के जीवन साथी बने, उनका साहिर-अमृता के प्यार के बारे में कहना था,

‘‘अगर साहिर चाहते, तो अमृता उन्हें ही मिलती। लेकिन साहिर ने कभी इस बारे में संजीदगी नहीं दिखाई।’’ 

जाहिर है कि यह प्यार परवान चढ़ने से पहले उतर गया। साहिर ने इसके बाद सारी उम्र शादी नहीं की। ‘तल्खियां’, ‘परछाइयां’, ‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें' आदि किताबों में जहां साहिर लुधियानवी की गजलें और नज्में संकलित हैं, तो ‘गाता जाए बंजारा’ किताब में उनके सारे फिल्मी गीत एक जगह मौजूद हैं। इन गीतों में भी गजब की शायरी है। उनके कई गीत आज भी लोगों की जुबान पर चढ़े हैं। साहिर को अवाम का खूब प्यार मिला और उन्होंने भी इस प्यार को गीतों के मार्फत अपने चाहने वालों को बार-बार सूद समेत लौटाया। उर्दू अदब और फिल्मी दुनिया में साहिर लुधियानवी के बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया। जिसमें भारत सरकार का पद्मश्री अवार्ड भी शामिल है। 25 अक्टूबर, 1980 को इस बेमिसाल शायर, गीतकार ने अपनी जिंदगी की आखिरी सांस ली। साहिर लुधियानवी ने अपनी नज्मों और गीतों में मुल्क और अवाम के लिए, जो समाजवादी ख्वाब बुना था, अफसोस ! वह अब भी पूरा नहीं हुआ है। आज भी वह हमें प्रेरित करता है और आगे भी करता रहेगा, 

‘‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें, कल के वास्ते’’

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