देश के भविष्य के लिए लोकसभा चुनाव 2019 बहुत ही महत्वपूर्ण साबित होने वाला है। लेकिन इसमें सत्ताधारी पार्टी जीतने लायक मुद्दों की तलाश में आज भी लगी हुई है। चुनाव के ठीक पहले पुलवामा और बालाकोट की घटनाएँ हो गयीं। सत्ताधारी पार्टी के कुछ नेता उसी को मुद्दा बनाने की कोशिश करने लगे। पाकिस्तान को सबक़ सिखाने वाली बातें लगभग हर बीजेपी नेता के मुँह से सुनने को मिल रही थीं। बीजेपी के 2014 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार, नरेंद्र मोदी ने उस समय जो प्रमुख वायदे किये थे उनमें नौजवानों के लिए प्रति वर्ष दो करोड़ नौकरियाँ, किसानों की आमदनी दुगुनी करना जैसे लोकलुभावन मुद्दे शामिल थे। पाँच वर्षों में इस दिशा में सरकार कोई भी वायदा पूरा नहीं कर पायी। इसके अलावा नोटबंदी, जीएसटी जैसी योजनाएँ भी लाई गयीं जिनके बारे में 2019 के चुनावों में कोई ख़ास बातचीत सत्ताधारी पार्टी की तरफ़ से नहीं की जा रही है ज़ाहिर है उनका ज़िक्र करने से वोट कम होने का ख़तरा बना हुआ है।
राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में बीजेपी की हार के बाद हो रहे इन चुनावों में सत्ताधारी पार्टी को चिंता होना स्वाभाविक है क्योंकि केंद्र में बीजेपी की सरकार बनवाने में इन राज्यों का ख़ास महत्व था। इन राज्यों से तीन सीटें छोड़कर सभी बीजेपी के पास थीं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार में विपक्षी पार्टियों का जो गठबन्धन हो गया, वह भी बीजेपी को कुछ सीटों का नुक़सान पहुँचा सकता है। पार्टी को उम्मीद है कि पूर्वोत्तर राज्यों, बंगाल और ओडिशा से हिंदी प्रदेशों में होने वाले नुक़सान की भरपाई कर ली जायेगी।
विपरीत परिस्थितियों में चुनाव लड़ रही बीजेपी को नए मुद्दों की तलाश थी। पार्टी को मालूम है कि 2014 की स्थिति उनकी नहीं है। उस चुनाव में तो मनमोहन सिंह सरकार की कमियाँ गिनाकर और लुभावने वादे करके चुनाव जीत लिया गया था। इस बार उनकी अपनी सरकार है।
अपनी सरकार की उपलब्धियों और पार्टी के 2014 के वायदों की नाकामी से बचने का कोई रास्ता नहीं है। इसलिए जब पुलवामा और बालाकोट की घटनाएँ हुईं तो पार्टी के नेताओं को एक रेडीमेड मुद्दा हाथ लग गया। लेकिन पहले और दूसरे चरण के मतदान के बाद साफ़ हो गया कि इन मुद्दों पर वह माहौल नहीं बन पा रहा है जिसकी उम्मीद की जा रही थी। 2014 में नरेंद्र मोदी की बात पर जाति का बंधन तोड़कर लोग एकजुट हो गए थे और उनको समर्थन दिया था लेकिन इस बार जातियाँ मतदान में मुख्य भूमिका निभा रही हैं। सबको मालूम है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में अगर जातियों का बंधन नहीं टूटा तो बीजेपी के लिए भारी मुश्किल हो सकती है।
बीजेपी की रणनीति में बदलाव!
शायद चुनाव के मध्य में बीजेपी के रणनीतिकार अब प्रचार के तरीक़ों में कुछ बदलाव कर रहे हैं। राष्ट्रवाद के मुद्दे पर बड़े पैमाने पर लामबंदी नहीं हो सकी। सरकार में रहते हुए अपने काम पर वोट माँगा जाता है। यहाँ वह भी संभव नहीं है। आम तौर पर ऐसा माना जा रहा है कि सरकार पिछले पाँच साल में ऐसा कोई काम नहीं कर सकी है जिसके बल पर चुनाव जीता जा सके। इस सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री, डॉ. मुरली मनोहर जोशी की ही मानी जायेगी।
जब डॉ. मुरली मनोहर जोशी से पूछा गया कि आप मोदी सरकार को दस में से कितने नम्बर देंगे तो उन्होंने कहा कि जब कॉपी में कुछ लिखा ही नहीं है तो क्या नंबर दूँ।
इन हालात में यह बात बिलकुल साफ़ हो गयी है कि पार्टी को चुनाव जीतने के लिए नए मुद्दे चाहिए। ऐसा लगता है कि उन्हीं मुद्दों की तलाश में बीजेपी चुनाव जीतने के लिए हिंदुत्व को मुद्दा बनाने की रणनीति पर काम कर रही है। इसी कोशिश में भोपाल से कांग्रेस के उम्मीदवार और ‘संघी आतंकवाद’ के प्रबल विरोधी, दिग्विजय सिंह के ख़िलाफ़ प्रज्ञा ठाकुर को बीजेपी का उम्मीदवार बनाया गया है। प्रज्ञा ठाकुर अभी जमानत पर हैं, उनके ऊपर मुक़दमा चल रहा है। वे मध्य प्रदेश के बीजेपी नेता सुनील जोशी की हत्या के केस में भी अभियुक्त थीं। 2014 में सरकार आने के बाद कुछ मामलों में उनके केस बंद कर दिए गए थे लेकिन अभी मालेगाँव धमाके सहित कुछ मुक़दमे चल रहे हैं। उनको आनन-फानन में बीजेपी ज्वाइन करवाकर भोपाल से टिकट दे दिया गया। ऐसा लगता है कि बीजेपी के लोग हिंदुत्व को मुख्य मुद्दा बनाने की दिशा में चल पड़े हैं।
अब दिग्विजय सिंह का क्या होगा?
अब कोशिश यह की जायेगी कि दिग्विजय सिंह पर यह आरोप चस्पा किया किया जाए कि वे सभी हिन्दुओं को आतंकवादी मानते हैं। हालाँकि यह भी सच है कि दिग्विजय सिंह ने कभी भी हिन्दू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। वे हमेशा ‘संघी आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग करते हैं लेकिन आरएसएस और बीजेपी के नेता उनको हिन्दू विरोधी साबित करने के लिए दिन रात लगे रहते हैं। बीजेपी के लोग दिग्विजय सिंह के ऊपर हिन्दू विरोधी का बैज लगाने में काफ़ी हद तक सफल भी हो गए थे लेकिन उन्होंने 2017-18 में तीन हज़ार किलोमीटर से ज़्यादा दूरी की नर्मदा परिक्रमा करके उस हथियार को नाकाम कर दिया। प्रज्ञा ठाकुर और उनके सहयोगियों के आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने के मामलों की जाँच मुंबई पुलिस के आला अफ़सर हेमंत करकरे ने की थी। उनसे दिग्विजय सिंह के निजी और अच्छे सम्बन्ध थे।
प्रज्ञा का चुनाव लड़ना कितना उचित?
चुनाव जीतने के लिए आतंकवाद में शामिल किसी अभियुक्त को इस्तेमाल करना और धार्मिक उन्माद फैलाना देश के भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा। यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं होगा। पूरी दुनिया में आतंकवाद तबाही ही लाता है। भारत के ख़िलाफ़ जब पाकिस्तान ने आतंकवाद का प्रयोग शुरू किया तो एक राष्ट्र के रूप में हमने बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है। पड़ोसी देश पाकिस्तान आज पूरी तरह से आतंकवाद की चपेट में है। वहाँ भी धार्मिक तुष्टीकरण के लिए मुल्लाओं की शरण में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और याहया खान चले गए थे और उसी के चलते वहाँ धार्मिक गुटों ने अपनी निजी सेनाएँ बना लीं। शुरू में तो इन आतंकवादियों का इस्तेमाल भारत और अफ़ग़ानिस्तान के ख़िलाफ़ किया गया लेकिन बाद में आतंकवाद का यह भस्मासुर पाकिस्तान को ही निगल जाने को व्याकुल है।
प्रज्ञा ठाकुर ने अपनी उम्मीदवारी की घोषणा के बाद साफ़ कहा कि दिग्विजय सिंह के ख़िलाफ़ यह चुनाव नहीं है, यह धर्मयुद्ध है। यह बहुत ही ख़तरनाक संकेत हैं।
आतंकवाद की एक अभियुक्त ने एलानियाँ देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत हो रहे चुनाव को धर्मयुद्ध का नाम दे दिया और सरकार ने उनके ऊपर कोई कार्रवाई नहीं की। यह लोकशाही के लिए बहुत अच्छे संकेत नहीं हैं। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले व्यक्ति का उद्देश्य हमेशा राजनीतिक होता है और वह भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फँसाता है। इसलिए आतंकवाद की मुख़ालिफ़त करना तो सभ्य समाज का कर्तव्य है लेकिन आतंकवाद को किसी धर्म से जोड़ने की कोशिश करना जहालत की इंतहा है। आतंकवाद अपने आप में एक राजनीतिक विचारधारा बनती जा रही है। इसे हर हाल में रोकना होगा।
बीजेपी की रणनीति
जहाँ तक साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का सवाल है मालेगाँव धमाकों के बाद उनका नाम ख़ूब चर्चा में रहा है। उस केस के सभी अभियुक्तों की चर्चा देश और विदेश के मीडिया में होती रही है। उस दौर में आरएसएस और बीजेपी के नेताओं ने आरोप लगाया था कि दिग्विजय सिंह ने' भगवा आतंकवाद' शब्द का प्रयोग किया और वे हिन्दुओं के ख़िलाफ़ हैं इसलिए आतंकवाद को भगवा रंग दे रहे हैं। लेकिन दिग्विजय सिंह ने तुरंत जवाबी हमला बोल दिया था और एलान कर दिया कि भगवा रंग तो बहुत ही पवित्र रंग है, वास्तव में उनका विरोध संघी आतंकवाद से है। प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी का सीधा मतलब यह है कि भोपाल का चुनाव अब इन्हीं वाक्यों के इर्दगिर्द घूमेगा। लेकिन जो बड़ी बात है वह यह कि कोशिश की जायेगी कि कांग्रेस के एक बड़े नेता को हिन्दुओं के दुश्मन के रूप में पेश किया जाए और चुनाव को हिन्दुओं की रक्षा का धर्मयुद्ध बना दिया जाए। यह तरीक़ा ख़तरनाक है।
हो सकता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में इस तरकीब से बीजेपी जीत जाए और उनको सरकार बनाने में सफलता भी मिल जाए लेकिन देश की भावी दशा-दिशा पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इसको समझने के लिए दुनिया के हर उस देश की राजनीति को समझना पड़ेगा जहाँ धर्म और धार्मिक नेता राजनीति पर हावी हो जाते हैं।
उन देशों को भी देखना पड़ेगा जहाँ राजनीति को धर्म से अलग रखा गया है। सबसे ज्वलंत उदाहरण पड़ोसी देश पाकिस्तान का ही है। हमारी और उनकी आज़ादी एक ही दिन मिली थी। पाकिस्तान ने धर्म के आधार पर राजनीतिक अधिकारिता की बात की और आज उनकी अर्थव्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था सब कुछ तबाह हो चुकी है। हमारे नेताओं ने धर्म और राजनीति को अलग रखा। नतीजा सामने है। भारत एक बड़ी शक्ति है और पाकिस्तान एक असफल देश बन चुका है। आतंकवादी वहाँ की फ़ौज और राजनीति को कंट्रोल करते हैं। भारत के मौजूदा राजनेताओं को चाहिए कि फ़ौरी लाभ के लिए देश को धार्मिक राजनीति के हवाले न करें। ‘सबका साथ सबका विकास’ की मूलभावना को ही राजधर्म का स्थाई और संचारी भाव बनाएँ।