‘हिंदू राष्ट्र’ की बात आज़ादी के नायकों के सपनों की हत्या है
“आरएसएस के नेता ने आश्वासन दिया है कि आरएसएस के संविधान में, भारत के संविधान और राष्ट्रध्वज के प्रति निष्ठा को और सुस्पष्ट कर दिया जाएगा। यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि हिंसा करने या हिंसा में विश्वास करने वाला या गुप्त तरीक़ों से काम करनेवाले लोगों को संघ में नहीं रखा जाएगा। आरएसएस के नेता ने यह भी स्पष्ट किया है कि संविधान जनवादी तरीक़े से तैयार किया जाएगा। विशेष रूप से, सरसंघ चालक को व्यवहारत: चुना जाएगा। संघ का कोई सदस्य बिना प्रतिज्ञा तोड़े किसी भी समय संघ छोड़ सकेगा और नाबालिग अपने मां-बाप की आज्ञा से ही संघ में प्रवेश पा सकेंगे। अभिभावक अपने बच्चों को संघ-अधिकारियों के पास लिखित प्रार्थना करने पर संघ से हटा सकेंगे। ...इस स्पष्टीकरण को देखते हुए भारत सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि आरएसएस को मौक़ा दिया जाना चाहिए।”
यह 11 जुलाई 1949 को प्रतिबंध हटाने का एलान करने वाली भारत सरकार की विज्ञप्ति है। इससे पता चलता है कि महात्मा गाँधी की हत्या के बाद लगे बैन को हटवाने के लिए क्या-क्या वायदे किये थे। इस संबंध में सरसंघ चालक गोलवलकर और श्यामा प्रासद मुखर्जी की सरदार पटेल से लगातार बात हो रही थी जो इन सूचनाओं से बेहद आहत थे कि महात्मा गाँधी की हत्या के बाद आरएसएस के लोगों ने जगह-जगह मिठाई बाँटी। बहरहाल, उनका मानना था कि हिंदू महासभा के एक ग्रुप ने महात्मा गाँधी की हत्या को अंजाम दिया है और पूरी आरएसएस को इसकी सज़ा नहीं दी जानी चाहिए, हालाँकि उसकी हिंसक गतिविधियाँ ख़तरनाक़ हैं।
बहरहाल, आज 73 साल बाद साफ़ है कि आरएसएस ने सरदार पटेल और भारत सरकार से किये गये वादों को पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। न सर संघचालक का चुनाव होता है और न उसके जनवादी तरीक़े से तैयार संविधान के बारे में ही कोई चर्चा है। सरसंघ चालक की इच्छा ही सर्वोपरि है और वह ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करते हैं। हिंसा से भी कोई परहेज़ नहीं है। मौजूदा सरसंघ चालक मोहन भागवत ने हिंदुओं (असल में उनसे जुड़े संगठनों) की आक्रामकता को कुछ दिन पहले ही स्वाभाविक बताया है।
लेकिन सबसे बड़ी कोशिश उस संविधान को ही बदलने की है जिसके प्रति निष्ठा बनाये रखने का वादा करके वह बैन हटवा पाया था। सत्ता शीर्ष की ओर बढ़ते अपने हर क़दम के साथ संविधान बदलने का अपना इरादा वह साफ़ करता गया है। 2014 में पूर्ण बहुमत की सरकार आने के बाद धीरे-धीरे जो बात शुरू हुई थी, वह अब एक शोर में बदल गयी है। बीजेपी के सांसदों और नेताओं की यह बात खुलकर कही जाने लगी है। माहौल ऐसा बनाया गया है कि आजकल टीवी पर छाये बागेश्वर धाम वाले धीरेंद्र शास्त्री भी ‘तुम मुझे समर्थन दो, मैं तुम्हें हिंदू राष्ट्र देने की हुंकार भर रहे हैं।’
संविधान बदलने की कोशिश का असल मक़सद भी यही है कि भारत को हिंदू राष्ट्र संवैधानिक रूप से घोषित किया जाये। संघ को संविधान की उद्देशिका में दर्ज ‘सेक्युलर’ शब्द से बेहद दिक़्कत है जो उसके मुताबिक़ इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी के दौरान ज़बरदस्ती डाला था। सुप्रीम कोर्ट ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान के बुनियादी ढाँचे का महत्वपूर्ण हिस्सा बताया है इसीलिए आरएसएस के निशाने पर है। एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका उसकी इस इच्छा को पूरा कर सकती है और हाल में केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच उठा विवाद उसकी इसी कोशिश का नतीजा है।
लेकिन ‘हिंदू राष्ट्र’ दरअसल उसी द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर मुहर होगी जिसकी दलील देकर जिन्ना ने कभी पाकिस्तान का मुक़दमा जीत लिया था लेकिन आज़ादी की लड़ाई के नायकों ने जिसे कभी स्वीकार नहीं किया था।
उन्होंने धर्म के आधार पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया में भारत नहीं बनाया था बल्कि अभिव्यक्ति और विचार की आज़ादी, पंथ और परंपराओं की विविधिता के सम्मान की भारतीय परंपरा के आधार पर नये भारत का संविधान बनाया था जिसे सेक्युलर होना ही था। आरएसएस आज़ादी के जिन नायकों को ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई राज्य सभ्य नहीं हो सकता’ कहने वाले ‘कट्टर सेक्युलर’ पं. नेहरू के ख़िलाफ़ खड़ा करता रहता है, वे सभी एक धर्मनिरपेक्ष भारत के ही पक्ष में थे। 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े होना और बांग्लादेश का अस्तित्व में आना उनकी समझदारी का ऐतिहासिक सबूत है।
आरएसएस और बीजेपी जिन सरदार पटेल को पूजनीय मानते हैं, उन्होंने 12 फ़रवरी 1949 को आकाशवाणी से देश को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘हिंदू और मुसलमान एक ही ख़ुदा के बेटे हैं। उन्हें एक ही पिता की संतान की तरह इस देश में रहना है।’ यही नहीं, वे विभाजन की विभीषिका से पैदा हुए सांप्रदायिक माहौल के बीच ‘हिंदू राष्ट्र’ को पागलों का विचार बता रहे थे।
अपनी किताब आज़ादी के बाद भारत में मशहूर इतिहाकार विपन चंद्रा लिखते हैं- सरदार पटेल ने ‘फरवरी, 1949 में ‘हिंदू राज’ यानी हिंदू राष्ट्र की चर्चा को ‘एक पागलपन भरा विचार’ बताया और 1950 में उन्होंने अपने श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा, ‘हमारा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है… यहाँ हर एक मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है। यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते तो हम अपनी विरासत और अपने देश के लायक नहीं हैं।’
सरदार पटेल ने 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में साफ़-साफ़ घोषणा की थी कि ‘कांग्रेस और सरकार इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि भारत एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष राज्य हो।’
अब ज़रा सुभाषचंद्र बोस के विचार जान लीजिए जिनकी 126वीं जयंती अभी आरएसएस ने बड़े ज़ोर-शोर से मनाई है और जिसे ‘गाँधी जी और कांग्रेस की ओर से नेताजी पर किये गये ज़ुल्म’ की दास्तान गढ़ने में महारत हासिल है। नवंबर 1944 में टोक्यो विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों को संबोधित करते हुए नेता जी ने साफ़ कहा था कि “भारत में कई धर्म हैं। अत: आज़ाद भारत की सरकार का रुख सभी धर्मों के प्रति पूरी तरह तटस्थ और निष्पक्ष होना चाहिए और उसे यह चुनाव प्रत्येक व्यक्ति पर छोड़ देना चाहिए कि वह किस धर्म को मानता है।”
आज़ाद हिंद के सुप्रीम कमांडर बतौर सुभाष बोस ने 8 जुलाई 1945 को सिंगापुर में शहीद सैनिकों के जिस स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित की थी, उस पर उनकी फ़ौज के ध्येयशब्द लिखे थे- इत्तेहाद (एकता), एतमाद (विश्वास) और कुर्बानी (बलिदान)। नेताजी एक सेक्युलर और समाजवादी भारत देखते हुए शहीद हुए।
संविधान सभा के अध्यक्ष और प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद को भी कांग्रेस के दक्षिणपंथी खेमे का माना जाता है और सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में उनकी भूमिका को लेकर आरएसएस ख़ासतौर पर उनका प्रशंसक है। लेकिन भारत को एक सेक्युलर देश बनाने वाली संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ‘हिंदू राष्ट्र’ जैसे किसी विचार के प्रति दूर-दूर तक सहमत नहीं थे। उल्टा वे संघ की गतिविधियों को लेकर काफ़ी चिंतित थे। 14 मई 1948 को प्रसाद ने सरदार पटेल को आरएसएस की गतिविधियों से आगाह करते हुए लिखा-
“लगातार यह अफ़वाह सुनाई दे रही है कि 15 जून की तारीख़ किसी बड़ी घटना के लिए नियत की गयी है और इसकी वजह से लोगों में घबराहट और भय बढ़ रहा है। यह भय है कि उस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कुछ कर सकता है। मुझसे कहा गया है कि आरएसएस की उस दिन उपद्रव करने की योजना है। उसके पास अनेक लोग ऐसे हैं जो मुसलमानों की पोशाक पहनते हैं और मुसलमानों जैसे दिखते हैं। ये लोग हिंदुओं पर आक्रमण करके गड़बड़ पैदा करेंगे और इस प्रकार हिंदुओ को उभाड़ेंगे। इसी प्रकार उनमें कुछ ऐसे हिंदू होंगे जो मुसलमानों पर आक्रमण करेंगे और मुसलमानों को भड़कायेंगे। हिंदुओं और मुसलमानों में इस प्रकार उपद्रव खड़ा करने का परिणाम आयेगा भयंकर क़ौमी आग के विस्फोट में।” (पेज 282, सरदार पटेल के चुने हुए पत्र व्यवहार, नवजीवन प्रकाशन)
अब ज़रा संविधान बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले डॉ. आंबेडकर के विचार भी सुन लीजिए जिन्हें आरएसएस आजकल प्रात:स्मरणीय बताता है। वे हिंदू राष्ट्र के विचार को मुसलमानों से ज़्यादा हिंदुओं की बड़ी आबादी के लिए ख़तरनाक मानते थे। उन्होंने कहा था कि “अगर हिंदू राष्ट्र बन जाता है तो बेशक इस देश के लिए भारी ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए एक ख़तरा है। इस आधार पर लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए।”
इस सिलसिले में शहीदे आज़म भगत सिंह की चर्चा करने का कोई फ़ायदा नहीं जो एक घोषित ‘नास्तिक’ और ‘बोल्शेविक’ थे। वे भारत में रूस जैसी क्रांति करके मज़दूर और किसानों का राज चाहते थे। वे पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने के लिए वैश्विक साम्यवादी अभियान का हिस्सा होना चाहते थे। इन तमाम ‘विदेशी विचारों’ वाले भगत सिंह को तस्वीर से निकालना आरएसएस के लिए आग से खेलना होगा।
इसलिए हिंदू राष्ट्र बनाने का हर नारा गाँधी और नेहरू ही नहीं, सरदार पटेल, सुभाष बोस, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. आंबेडकर और भगत सिंह की कुर्बानियों का भी अपमान है। इस ओर उठा एक क़दम भी इन महान विभूतियों के सपनों की लाश पर गिरेगा।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)